Book Title: Sramana 1992 07 Author(s): Ashok Kumar Singh Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi View full book textPage 4
________________ ~ जैन-धर्म में वैराग्य भावना या संन्यास पर जोर दिया गया है। शायद यही कारण हैं इस दर्शन की उपादेयता पर वर्तमान समय में प्रश्नचिह्न लगा दिया जाता है, पर इस बात इन्कार नहीं किया जा सकता कि आज हमारे राष्ट्र को समाज को जिन विषम परिस्थिति एवं समस्याओं सम्प्रदायवाद, वर्गवाद, जातिवाद, गरीबी, भाई-भतीजावाद, देश को अ टुकड़ों में बाँटने की प्रवृत्ति का सामना करना पड़ रहा है, उसका मूल कारण हमारा स् है, राग है, ममत्व है। आज जब तक हम अपने इस 'मैं और मेरे के भाव के नागपाश से नहीं होते, तब तक न तो हममें स्वस्थ राष्ट्रीय चेतना का प्रादुर्भाव हो सकता है और न ही 'वसुधैव कुटुम्बकम्' के सिद्धान्त को गौरवान्वित कर सकते हैं। इस प्रकार राग हमारे स्वर सम्बन्धों के विकसित होने के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा है । पर यह भी सत्य है कि राग-1 आदि (क्रोध, मान, माया, लोभ) ये मनुष्य की सहज प्रवृत्तियां हैं, अतः तज्जन्य समस्याएं सभी कालों में उठती रही हैं। अतः हमारे भारतीय दर्शन ने हमारी इन दुष्प्रवृत्तियों के उच्छे पर बल देकर, तज्जन्य समस्याओं के हल को ढूँढ़कर अपनी दूरदर्शिता को ही दर्शाया है. अतः हमारी स्वस्थ सामाजिकता का आधार राग नही, प्रत्युत विवेक है। डॉ. जैन के अनुसा "विवेक के आधार पर ही दायित्व बोध एवं कर्तव्य-बोध की भावना जागृत होती है। राग भाषा अधिकार की भाषा है, जबकि विवेक की भाषा कर्तव्य की भाषा है । जहाँ केव अधिकारों की बात होती है, वहाँ केवल विकृत सामाजिकता होती है । स्वस्थ सामाजिक अधिकार की नहीं, विवेक का बोध कराती है और ऐसी सामाजिकता का आधार विवेक होत है, कर्तव्य-बोध होता है। जैन-धर्म ऐसी ही सामाजिक चेतना को जागृत करना चाहता है।" " क्रोध, मान, माया और लोभ हमारी कुप्रवृत्तियाँ हैं, जो हमें बन्धन में डालती हैं, इन्हें कषाय कहते हैं। इन कषायों के निरोध की परिकल्पना सामाजिक विषमताओं को दूर कर स्वस्थ सामाजिक समत्व को स्थापित करने की दिशा में एक सफल प्रयास है। इन कषायों हमारी आत्मा अपने मूल स्वरूप से तो च्युत होती ही है, साथ ही ये सामाजिक विषमता, अशान्ति और संघर्ष को भी पल्लवित, पुष्पित एवं फलित करने में अपना महत्वपूर्ण योगदान देते हैं। क्रोध के कारण पारस्परिक सौहार्द नष्ट होता है। जिसके फलस्वरूप अविश्वास और असुरक्षा की भावना उत्पन्न होती है। वर्तमान समय में विश्व के देशों में शस्त्र - संग्रह करने की प्रवृत्ति के पीछे अविश्वास की भावना ही काम कर रही है। इस प्रकार क्रोध एवं आवेश के फलस्वरूप आक्रमण, हत्या, युद्ध एवं संघर्ष को बढ़ावा मिलता है । हमारे समाज में व्याप्त धार्मिक असहिष्णुता एवं घृणा का कारण भी यह आक्रोश ही है। मान अर्थात् अहंकार के फलस्वरूप घृणा, द्वेष, ऊंच-नीच का भाव पनपता है । हमारे सामाजिक सम्बन्धों में टूटन का यह एक प्रमुख कारण है । वह अहंकार ही है, जिसमें व्यक्ति अपने अहं के वशीभूत होकर उचित - अनुचित का भी विवेक खो देता है । माया या कपट की मनोवृत्ति स्वार्थपरता, अविश्वास और अमैत्रीपूर्ण व्यवहार को पोषित करती है, जो समाजिक जीवन के लिये अभिशाप है। लोभ श्रमण, जुलाई-सितम्बर १. जैन, बौद्ध और गीता का समाज - (राजस्थान ). 1982. पृ. 10 Jain Education International ज-दर्शन, डॉ. सागरमल जैन, प्र-प्राकृत, भारती संस्थान, जयपुर For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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