Book Title: Shrutsagar Ank 2013 12 035
Author(s): Mukeshbhai N Shah and Others
Publisher: Acharya Kailassagarsuri Gyanmandir Koba
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दिसम्बर - २०१३ उपरनी आ ज वात एक प्राकृत पद्यमां पण मळे छे ते आ प्रमाणे - न तवो सुटु गिहीणं, विसयसत्ताण होइ न हु सीलं | सारंभाण न भावो, तो साहीणं सया दाणं ||१०६।।
धर्मरत्न प्रकरण [३] दानफळ .
भावपूर्वक पात्र व्यक्तिने विषे अपायेलुं दान घणुं शुभ फळ देनारूं छे. तेमां पण सुपात्रने आपेल दान विशेष फळ आपनारूं छे. पण जो दान देती वखते चित्तमां विषाद-क्रोध-मान-लोभ वगेरे भावो होय तो ते दान अल्प फळ आपनारूं थाय छे.
दानना (A) इहलोक [प्रत्यक्ष]अने (B) परलोकपिरोक्ष] ए बे प्रकारना फळ ग्रंथोमा जणावाया छे ते आ प्रकारे - (A) प्रत्यक्ष -
इहलोए दाणाओ, लहंति भव्वा सुहं च सोहग्गं । जसपसरं ससिसरिसं, रज्जं चउरंगबलकलियं ।।१२।।
[दानोपदेशमाला-१२] दाणेण फइ कित्ती, दाणेण होइ निम्मला कां(क)ति | दाणाऽऽवज्जीअहिअओ, वैरिवि हु पाणिअं वहइ
(दानादिकुलकवृत्ति दानेन सत्त्वानि वशीभवन्ति, दानेन वैराण्यपि यान्ति नाशम् । परोऽपि बन्धुस्वमुपैति दानात्, तस्माद्धि दानं सततं प्रदेयम् ||२||
[धर्मरत्नप्रकरण] (B) परोक्ष
परलोए सुररमणी-संभोगसुहाणी अणुहवेऊण । दाणपरा परिपालीय, चरणं साहिति सिद्धिपदं ।।१३।।
[दानोपदेशमाळा १३) दुःखसमुद्रं प्राज्ञा-स्तरन्ति पात्रार्पितेन दानेन | लघुतेव मकरनिलयं, वणिजः सद्यानपात्रेण 11911
[आचाराङ्ग श्रुत-१, अध्य.८, उद्दे, २२
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