Book Title: Shrutsagar Ank 2013 12 035
Author(s): Mukeshbhai N Shah and Others
Publisher: Acharya Kailassagarsuri Gyanmandir Koba

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Page 18
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra १६ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पाकारेणोच्यते पापं, त्रकारस्त्राणवाचक : 1 अक्षरद्वयसंयोगे, पात्रमाहुर्मनीषिणः ||२३|| पात्र व्यक्तिना पण [१] उत्तम [२] मध्यम अने [३] जघन्य एम ऋण प्रकार छे. उत्तमत्तं साहू, मज्झिमपत्तं च सावया भणिया । अविरयसम्मद्दिट्ठी, जहन्नपत्तं मुणेयव्वं ॥ ७० ॥ जंगम भेद [उपदेशतरङ्गिणी १ / ७०] उपरना त्रण भेदमांना प्रथम भेद 'उत्तमपात्र' ने 'सुपात्र' पण कहेवाय छे. ए 'सुपात्र' शब्दनी बे व्याख्या नीचे मुजब छे. स्थावरं जङ्गमं चेति, सुपात्रं द्विविधं मतम्, स्थावरं तत्र पुण्याय, प्रासादप्रतिमादिकम् ।।९४।। [१] सु - शोभनं पात्रं स्थानं ज्ञान - दर्शन - चारित्र - तपः क्षमा-शम- शील- दमसंयमादीनां गुणानाम् । अथवा [२] सु-अतिशयेन पापात् त्रायते इति सुपात्रम् | अहीं उत्तमपात्र के सुपात्रथी मात्र 'साधु' अर्थ न लेता तीर्थंकर, गणधर . वगेरे उत्तमव्यक्ति लेवी जोइए. 'उपदेशतरंगिणी' ग्रंथमां 'सुपात्र'ना बे भेद जणाव्या छे [१] स्थावर-स्थिर अने [२] जंगम-अस्थिर. दिसम्बर २०१३ 4 ज्ञानाधिकं तपः क्षामं, निर्ममं निरहङ्कृतिम् । स्वाध्यायब्रह्मचर्यादि-युक्तं पात्रं तु जङ्गमम् ।। ९५ ।। For Private and Personal Use Only [ उपदेशतरङ्गिणी १ / ९४ ] स्थावर भेद - जिनभवण- बिम्ब-पुत्थय सङ्घ सरुवाई सत्त खित्ताई, जुत्रुद्धारो पोसह- साला साहारणं दसहा । । ९६ ।। [उपदेशतरङ्गिणी १/९५] [ उपदेशतरङ्गिणी १ / ९६]

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