Book Title: Shrutsagar Ank 2007 03 012
Author(s): Manoj Jain
Publisher: Shree Mahavir Jain Aradhana Kendra Koba

Previous | Next

Page 39
________________ पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी अाचार्यपद प्रदान महोत्सव विशेषांक सम्राट संप्रति संग्रहालय अरुण झा आर्य सुहस्तीसूरि ने दुष्काल के समय कौशाम्बी नगरी में साधुओं से भिक्षा की याचना करने वाले रंक को अपने ज्ञानबल से भावी में कल्याण को जान कर दीक्षा दी. वह रंक मरकर सम्राट अशोक के पुत्र कुणाल के यहाँ उत्पन्न हुआ. जन्म के समय इसका नाम संप्रति रखा गया. शैशवकाल में ही दस महीने के संप्रति को अशोक सम्राट ने अपने विशाल साम्राज्य का उत्तराधिकारी घोषित किया. यही संप्रति आगे चलकर वीर निर्वाण संवत् २९२ में मगध की राजगद्दी पर आया. सम्राट संप्रति को लगा कि पाटलिपुत्र में उसके अनेक शत्रु हैं. ऐसा जानकर पाटलिपुत्र का त्याग किया और अवन्ती (उज्जैन) में आकर सुख से राज्य करने लगा. यह भी अशोक की तरह बड़ा पराक्रमी था, जिसने नेपाल, तिब्बत और भूटान के भू-भाग को अपने अधीन किया था. महाराजा संप्रति के तिब्बत, भूटान आदि प्रदेशों पर विजय के डर से चीनी सम्राट सी. ह्यु. वांग. ने वीर निर्वाण संवत् ३१२,ईस्वी पूर्व २१४ में एक ऊँची दीवार बनवाई.जो चीन की दीवार के नाम से विश्व का एक आश्चर्य है. संप्रति के सिक्के जो वर्तमान में मिल रहे हैं, उनके एक तरफ सम्प्रति और दूसरी तरफ स्वस्तिक, रत्नत्रयी मोक्ष के प्रतीक हैं और उनमें लिखे गए लेख ब्राह्मी लिपि में हैं, यह सिद्ध हो चुका है. ऐसे जैन राजा के नाम पर कोबा संग्रहालय का नाम सम्राट संप्रति संग्रहालय है. परम पूज्य आचार्य भगवंत श्री पद्मसागरसूरिजी के स्वप्न स्वरूप इस संग्रहालय का प्रारंभ २८ अप्रैल १९९३ में हुआ, जो विकास के पथ पर निरन्तर आगे बढ़ रहा है, भगवान महावीर स्वामी के आदर्श सिद्धान्तों का प्रचार-प्रसार एवं जैन संस्कृति के धरोहर और भारतीय कला संपदा का संरक्षण-संशोधन करना एवं इसके लिये लोक जागृति लाना इस संग्रहालय का प्रमुख उद्देश्य है. इस संग्रहालय में प्राचीन एवं कलात्मक रत्न, पाषाण, धातु, काष्ठ, चन्दन आदि की कलाकृतियाँ विपुल प्रमाण में संगृहीत है. इनके अलावा ताड़पत्र एवं कागज पर बनी सचित्र हस्तप्रतें, प्राचीन चित्रपट्ट, विज्ञप्ति पत्र, गट्टाजी, लघु चित्र, सिक्के एवं अन्य प्राचीन कलाकृतियों का भी संग्रह है. इस संग्रहालय में विशेष रूप से जैन संस्कृति, जैन इतिहास और जैनकला का अपूर्व संगम है. संग्रहालय चार खण्डों में विभक्त है : १. वस्तुपाल तेजपाल खण्ड व ठक्कुर फेरु खण्ड,२. परमार्हत कुमारपाल व जगत शेठ खण्ड, ३. श्रेष्ठी धरणाशाह व पेथडशा मन्त्री खण्ड, ४. विमल मन्त्री व दशार्णभद्र खण्ड, वस्तुपाल, तेजपाल व ठक्कुर फेरु शिल्प खण्ड ___ संग्रहालय में प्रवेश करते ही प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव की वि. सं. ११७४ में बलुआ पत्थर से बनी प्रतिमा है. गुच्छेदार केशयुक्त मस्तक, तिरछी पलक, अधखुली आँखें, नुकीले नाक, सुंदर होठ, श्रीवत्स, हथेली एवं पैर के तलवों पर मांगलिक चिह्न व शान्त एव प्रसन्न भाव मथुरा शैली की विशेषता है. પણ પStew/ દેશાઇll, થાણે કાણoણી થા, થાણ પSIPolી , થાણે પાણoણી છે!ાલિની, વાટ પકolી હalleણા અમwો મો| US!!! દયા61611 ડાતા માવ! છગીરણ ગુણોથી યુકત માયાને વંદન જવેલેડસ ઈન્ડિયા પ્રા.લિ., ajનઈ 37

Loading...

Page Navigation
1 ... 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175