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पुरस्कार मिला, में मृत्यु को संबोधित करते हुए लिखा- आओ ? तुम बडी प्रसन्नता से आओ. मैं तुम्हारा स्वागत करता हूँ. बहुत वर्षों से मैं तुम्हारी प्रतीक्षा में था. परन्तु याद रखना ! इस रवीन्द्रनाथ के यहाँ से कोई निराश नहीं गया. आज तक कोई खाली नहीं गया. आने वाले अतिथि को कुछ न कुछ देकर ही भेजा है. अब मेरे पास कुछ नहीं बचा है. अब तुम अपनी खाली झोली लेकर आये हो तो मैंने सोचा, अपना ये जीवन ही तुम्हें अर्पण कर दूं.
मृत्यु को इतनी शांति के उन्होंने देखा, उसको अपने जीवन में अनुभव किया और उसका दर्द भूलकर मृत्यु को ही संगीत बना लिया.
पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी भाचार्यपद प्रदान •महोत्सव विशेषांक
जटायु ने सीता हरण के समय अपना जीवन अर्पण कर दिया. उसे मालुम था कि मैं सीता को बचाने में सफल नहीं हो सकता. पर किसी प्रकार में रावण को रोकूं, उसके कार्य में बाधा उत्पन्न करू. परिणाम क्या रहा? रावण ने तलवार से जटायु के पंख काट दिये, परन्तु जटायु खुश था, उसे मृत्यु में भी प्रसन्नता नजर आ रही थी कि मैंने सत्कार्य के लिये अपना जीवन अर्पण किया है.
हमारे जीवन में जिस दिन यह भावना आ जाय कि परमात्मा के कार्य के लिए मैं अपना सर्वस्व अर्पण कर दूं. अपना
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जीवन अर्पण कर दूं. यह भाव ही पुण्य भाव बन जाता है जो परमात्मा की प्राप्ति में कारण बनता है.
व्रत नियम का पुण्य प्रभाव हमारे जीवन में परमात्मा की प्राप्ति हो, इसके लिए जीवन के दैनिक व्यवहार में कुछ ऐसे नियम धारण करे जो हमें अनीति के मार्ग पर जाने से रोके पाप के दलदल में धसने से बचाये. व्रत नियमों का ऐसा
पुण्य प्रभाव होता है जो हमारे जीवन में बदलाव भी ला सकता है.
सेठ मफतलाल रोज प्रवचन सुनने जाते थे. महाराज प्रतिदिन प्रेरणा मफतलाल व्रत नियमों से कोसों दूर भागते थे. एक दिन महाराज से कहा क्या उपदेश मेरे लिए ही है? और कोई नहीं मिला.
देते थे और व्रत नियम लेने का आग्रह करते. आपने मेरे को ही क्यों टारगेट बनाया है. यह
महाराज ने कहा- तुम्हारे ऊपर मेरा विशेष अनुराग है. साधु संतों के अंदर ऐसी करुणा होती है कि जो आध्यात्मिक रुप से सीरियस पेशेन्ट हो उसी का मैं पहले रक्षण करुं.
सेठ मफतलाल ने कहा- भगवन्, मैंने तो बहुत व्रत नियम ले रखे हैं. आप और कितने नियम देंगे. सुबह उठता हूँ, पहले बीडी पीता हूँ, यह मेरा पहला नियम. दूसरा नियम-पान खाता हूँ. तुरन्त चाय पीता हूँ. यह तीसरा नियम फिर बाजार जाता हूँ यह चौथा नियम. सारा जीवन ही इस तरह नियमों से जकडा है. अब आप कहाँ और नियमों का जंगल पैदा कर रहे हैं.
महाराज ने कहा- फिर भी प्रयास करो, यह मेरा आग्रह है.
चार महीना निकल गया, पर मफतलाल नहीं माने. परन्तु महाराज की करुणा ऐसी कि मैं इसको कुछ नियम देकर
जाऊं.
आखिर जाते जाते विहार करते समय महाराज ने कहा- भले आदमी चार महीने पूरे हो गये. अब तो जाते जाते मेरी गुरुदक्षिणा तो दे दो. कम से कम अपने मन की प्रसंन्नता तो लेकर जाऊं.
मफतलाल ने कहा- महाराज आपने तो बहुत प्रयास किया. मेरा ही पुण्य बल कम था कि मैं आपकी वस्तु ग्रहण न
कर सका. आप देना चाहते हैं तो एक नियम मैं ले सकता हूँ किन्तु मेरी बुद्धि से.
महाराज ने कहा- ठीक है भाई, तुम्हारी जो इच्छा हो, वही नियम तुमको दूंगा.
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मफतलाल ने कहा मेरे घर के सामने एक कुम्हार रहता है. रोज सवेरे जब मैं उठता हूँ तो सबसे पहले उस कुम्हार की टाट दिखाई देती है. तो मैं यह नियम ले सकता हूँ कि जहाँ तक कुम्हार की टाट नहीं देखूं, वहाँ तक चाय पानी नहीं करुं.