Book Title: Shrutsagar Ank 2007 03 012
Author(s): Manoj Jain
Publisher: Shree Mahavir Jain Aradhana Kendra Koba

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Page 173
________________ पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी ਬਣੀ ਫਰਕ महोत्सव विशेषांक आर्षवाणी आचार्य श्री कैलाससागरसूरिजी * संसार में देखना हो तो तीर्थंकर परमात्मा को देखो, दूसरा देखने जैसा है ही क्या. * शरीर और कर्म अपना कार्य करते हैं तो आत्मा को अपना कर्तव्य करना चाहिए. एक दिन जिसकी मिट्टीहोनेवाली है उस देह की किसलिए चिन्ता करे. * जगत की भाषा में नहीं परन्तु जगतपति की भाषा में बोलो. हाँ कभी जनसमुदाय की भाषा में तुच्छकार हो तो वह क्षम्य है, किन्तु साधु की वाणी में कभी तुच्छकार नहीं होता. * कोई व्यक्ति भूल या अपराध कर सकता है, परन्तु हमें तो उसके सद्गुण ही देखना, ग्रहण करना चाहिए, दुर्गुण नहीं. * इस भव में जीभ का दुरूपयोग करेंगे तो जीभ, कान का दुरूपयोग करेंगे तो कान, यानि जिसका दुरुपयोग करेंगे वह परभव में नहीं मिलेगा. इस प्रकार परभव में ये चीजें दुर्लभ हो जाएँगी. * यदि आपको गुण की आराधना करनी है, तो तीर्थंकर परमात्मा की करो, प्रभु की भक्ति करो, हम साधुओं की __ नहीं. साधु के लिए प्रशंसा ज़हर के समान है, * ज्ञाता द्रष्टा भाव जैसे-जैसे प्रकट करेंगे, वैसे-वैसे समभाव आएगा. राग द्वेष जीतने का उपाय, साक्षीभाव से रहना ही है. *गुरू की सेवा जितनी हो सके, उतनी कम है. उनके आशीर्वाद और सेवा से ही विद्या फलवती होती है. * सहन करना, क्षमा करना और सेवा करना , यही है जीवन मन्त्र. * आत्मश्रेय के लिए हमेशा जागृत रहो. * तीर्थ तो प्रभुभक्ति के लिए है, इस तीर्थ का मैं कुछ भी ग्रहण करूँ तो मेरी आसक्ति बढ़ेगी. સમસ્ત વિશ્વનું કલ્યાણ થાઓ, સર્વ જીવો પરોપકાર માં તત્પર બનો. દોષોનો સર્વથા નાશ થાઓ, અને લોકો સર્વત્ર સુખી થાઓ. 171

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