Book Title: Shrutsagar Ank 2007 03 012
Author(s): Manoj Jain
Publisher: Shree Mahavir Jain Aradhana Kendra Koba

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Page 43
________________ पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी भाचार्यपद प्रदान महोत्सव विशेषांक पीढी के लिये निःस्वार्थ भाव से विपुल साहित्य की रचना की है. इन रचनाओं को पूर्वजों ने बड़े जतन से संभाल के रखा. प्राकृतिक विपदाओं से श्रुत-संपदाओं को बचाने के लिये कितना त्याग किया यह प्राचीन ग्रन्थों को देखकर सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है. इस परंपरा को आगे बढाने के लिये उन्होंने जो अथक परिश्रम किया उसके कारण आज हमारे पास विपुल प्रमाण में श्रुत साहित्य उपलब्ध हैं एवं जगह-जगह पर संगृहीत है, जो हमारे जैनाचार्यों एवं पूर्वजों की अमूल्य निधि है. पठन-पाठन की पाँच प्रक्रिया द्वारा श्रुत का शिक्षण एवं संरक्षण, ब्राह्मी लिपि की उत्पत्ति एवं विकास, आगम वाचना, ग्रन्थलेखन, जैन लिपि, लेखन के माध्यम एवं साधन, सुलेखन कला ग्रंथ के विविध स्वरूप, ग्रन्थ संरक्षण के माध्यम के साथसाथ ४५ आगम एवं अनेक महत्वपूर्ण विषयों पर रचित हस्तप्रतों को इस खंड में प्रदर्शित किया गया है. पठन-पाठन से ग्रंथालेखन ___ पठन-पाठन की पाँच प्रक्रियाओं के द्वारा गुरु अपने शिष्य को और शिष्य अपने शिष्य को मुखपाठ के द्वारा श्रुत को कंठस्थ करवाते थे और इस तरह श्रुतशास्त्रों को संरक्षित रखते थे. यह परंपरा तीर्थंकर श्री महावीर के निर्वाण के बाद करीब एक हजार साल तक चली. इन वर्षों में तीन महादुष्काल आने से श्रुत धीरे-धीरे नष्टप्राय हो रहा था. इस अंतराल में तीन आगम वाचनाएँ हुई. अंतिम वाचना वल्लभीपुर में आचार्य देवर्धिगणी क्षमाश्रमण की निश्रा में हुई. तब ८४ आगमों में से सिर्फ ४५ आगम ही बच पाये. भविष्य में श्रुत और नष्ट न हो इसलिये प्रथम बार उन्होंने बचे हुए आगमों को ग्रंथारुढ करवाया. ब्राह्मीलिपि सभ्यता के प्रारंभिक चरणों में मनुष्य अपने भावों को व्यक्त करने के लिये चित्रों का उपयोग करता था. जिसे चित्रलिपि के नाम से जाना जाता है. मनुष्य का चिंतन, भावनाएँ, सोचने एवं समझने की शक्ति एवं अभिव्यक्ति के लिये भाषा का होना आवश्यक है. भाषा की अभिव्यक्ति को वार्तालाप के बाद भी सुरक्षित रखने के लिये लिपि की भी उतनी ही आवश्यकता है, भारतीय परिवेश में पनपी संस्कृत, प्राकृत, पाली आदि सर्वाधिक प्राचीन भाषाओं की विशेषताओं में इनमें प्रयुक्त संयुक्ताक्षरों की संख्या विश्व की अन्य भाषाओं की तुलना में सर्वाधिक है. भारतीय भाषाएँ सर्वाधिक कठिन होते हुए भी भारत में लिपि का विकास बहुत ही रोचक ढंग से हुआ है. ऐतिहासिक युग में सबसे प्राचीन लिपि के नमूनों में ब्राह्मी, खरोष्ठी तथा ग्रीक इत्यादि लिपियाँ मिलती है. किन्तु इनमें से मात्र ब्राह्मी का उपयोग भारत में खूब प्रचलित एवं लोकप्रिय हुआ जबकि अन्य लिपियाँ लुप्त हो गई. प्राकृत, संस्कृत जैसी वर्ण समृद्ध भाषा को लिखने में समर्थ होने वाली ब्राह्मी लिपि ने अपनी जड़े अन्य लिपियों की तुलना में ज्यादा जमा ली और धीरे-धीरे अन्य लिपियाँ लुप्त हो गई. अशोक के समय ब्राह्मी सभी जगह एक ही जैसी लिखी जाती थी लेकिन कालान्तर में इसकी लेखन पद्धति उत्तरी एवं दक्षिणी शैलियों में बँट गई. ब्राह्मी लिपि की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसमें जैसे लिखते हैं वैसे ही पढते हैं तथा जैसे पढते हैं वैसे ही लिखते हैं. कहीं कोई भ्रम नहीं होता कि क्या लिखा है और क्या पढना है. इसमें स्वर और व्यंजन पूरे हैं तथा स्वरों में ह्रस्व, दीर्घ, अनुस्वार और विसर्ग के लिये स्वतंत्र संकेत चिहन हैं. व्यंजन भी उच्चारण के स्थानों के अनुसार वैज्ञानिक क्रम से बैठाए गए 0000000000 ભાાઠ ડાળીયાર, ચાઠ દર્શofીયાર, આઠ યાર ગાણાટ, નાક સાદગુણ1 જાને માટે બુદ્ધિના ઘા ઇll 9 મીટાણુથી | - આયાર્યોને વંદન lo 0 0 0 0 0 0 0 0 0 એસ.વિનોદ જોઇS કંપની, a[બઈ

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