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पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी आचार्यपद प्रदान
• महोत्सव विशेषांक
कर्नाटक के चार प्रसिद्ध राजवंशों ने जैनधर्म के अभ्युत्थान में सक्रिय सहयोग दिया था. उन राजाओं का अनुकरण उनके मन्त्रियों, सेनापतियों, सामन्तों तथा साहूकारों ने भी किया.
गंग राजवंश- दक्षिण भारत का गंग राजवंश अत्यन्त प्राचीन है. उसका सम्बन्ध इक्ष्वाकुवंश से बतलाया जाता है. पहले यह वंश उत्तर-पूर्व में था. परन्तु ईसा की दूसरी शताब्दी के आस पास इस वंश के दो राजकुमार दडिग और माधव दक्षिण में आए. पेरूर नामक स्थान में उनकी मुलाकात जैनाचार्य सिंहनन्दि से हुई. सिंहनन्दि ने उन्हें शासन-कार्य की शिक्षा दी. आचार्य सिंहनन्दि के निर्देशानुसार उन्होंने सम्पूर्ण राज्य पर अपना प्रभुत्व कर लिया. नन्दगिरि पर किला तथा कुवलाल में राजधानी बनायी थी. युद्ध में विजय ही उनका साथी था, जिनेन्द्रदेव उनके देवता थे. जैनमत उनका धर्म था और शान से पृथ्वी पर शासन करते थे.
राजा मारसिंह एक धर्मप्रिय राजा था, जिसने ई. ९६१ से ९७४ तक राज्य किया. उसने जिनेन्द्रदेव के सिद्धान्तों को सुनियोजित किया तथा अनेक स्थानों पर वसदियों और मानस्तम्भों का निर्माण कराया. उसने पुलगिरे नामक स्थान पर एक जिनमन्दिर बनवाया जो 'गंग कन्दर्प जिनेन्द्र मन्दिर' के नाम से प्रसिद्ध था. उसने अनेक पुण्यकार्य किए तथा जैनधर्म के उत्थान में महत्वपूर्ण योगदान किया. अन्त में उसने राज्य का परित्याग कर बंकापुर में अजितसेन भट्टारक की उपस्थिति में संल्लेखना धारण की.
मारसिंह तथा उसके पुत्र रायमल्ल चतुर्थ का मन्त्री और सेनापति प्रसिद्ध चामुण्डराय था. जिसने श्रवणबेलगोला में बाहुबली की प्रसिद्ध उत्तुंगमूर्ति का निर्माण कराया था. गंगवंश के अन्तिम राजा रक्कस गंग पेर्मानडि रायमल्ल पंचम था तथा नन्नि आदि शान्तर राजकुमारों की अभिभाविका प्रसिद्ध जैन महिला चट्टलदेवी उसकी पत्नी थी. इस प्रकार गंगवंश के राजा प्रारम्भ से ही जैनधर्म के उपासक तथा संरक्षक थे.
कदम्बवंश- कदम्बवंश मूलतः ब्राह्मण धर्म का अनुयायी था. परन्तु उस वंश के कुछ राजा जैनधर्म के भक्त थे तथा उनके सहयोग से कर्नाटक में जैनधर्म की अभ्युन्नति हुई. चौथी शताब्दी के अन्त में इस वंश में एक राजा जैनधर्म का भक्त हुआ, जिसका नाम काकुत्स्थ वर्मा था. उसका सेनापति श्रुतकीर्ति जैन था तथा उसने काकुत्स्थ वर्मा के जीवन की रक्षा की थी. कदम्बवंशीय राजा यद्यपि ब्राह्मणधर्म के अनुयायी थे, परन्तु उनके उदार संरक्षण के अन्तर्गत जैनधर्म की पर्याप्त उन्नति हुई. कुछ कदम्बनरेश जैनधर्म के अत्यन्त निकट थे. काकुत्स्थ वर्मा के पौत्र राजा मृगेश वर्मा ने जिनालय की सफाई के लिए, घृताभिषेक के लिए तथा जीर्णोद्धार आदि के लिए भूमि दान में दिया था. यह दानपत्र महात्मा दामकीर्ति भोजक के द्वारा लिखा गया था तथा जिसमें जैनधर्म के दोनों सम्प्रदायों का उल्लेख करते हुए लिखा था कि अमुक गाँव अर्हन्त भगवान तथा उनके उपासक श्वेतपट महाश्रमणसंघ व निर्गन्थ महाश्रमणसंघ के लिए दिया गया. इसके अतिरिक्त मृगेश वर्मा ने अपने स्वर्गीय पिता की स्मृति में पलासिका नगर में एक जिनालय बनवाया तथा कुछ भूमि यापनियों व कूर्चक सम्प्रदाय के नग्न साधुओं के निमित्त दान में दिया था.
मृगेश वर्मा के उत्तराधिकारी राजा रवि वर्मा ने भी अपने पिता का अनुसरण किया तथा जैनधर्म के बढ़ते हुए प्रभाव को अधिक स्पष्टता के साथ अंगीकार किया. उसने यह नियम भी निकाला कि पुरुखेटक गाँव की आय से प्रतिवर्ष कार्त्तिक पूर्णिमा तक अष्टानिका महोत्सव होना चाहिए. वर्षा ऋतु के चार महीनों में साधुओं की सेवा होनी चाहिए. रवि वर्मा की तरह उसका भाई भानु वर्मा भी जैनधर्म का अनुयायी था. उसने प्रत्येक पूर्णमासी के दिन जिनदेव के अभिषेक के निमित्त जैनों को भूमिदान किया था. राजा रवि वर्मा के पुत्र का नाम हरि वर्मा था. जब वह उच्चशृंगी पहाड़ी पर था, तब उसने चाचा शिवरथ के उपदेश से जिनालय के वार्षिक अष्टाह्निका पूजन के निमित्त कूर्चक सम्प्रदाय के वारिषेणाचार्य को वसन्तवाटक गाँव दान में दिया था.
कदम्ब वंश का अन्तिम शासक देव वर्मा था, जिसने चैत्यालय की मरम्मत तथा पूजा के लिए यापनीय संघ को सिद्ध केदार में कुछ भूमि प्रदान की थी. कदम्बवंशीय राजाओं ने जब पुनः ब्राह्मणधर्म अंगीकर कर लिया उसके बाद भी वे
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