Book Title: Shrutsagar Ank 2007 03 012
Author(s): Manoj Jain
Publisher: Shree Mahavir Jain Aradhana Kendra Koba

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Page 159
________________ पन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी आचार्यपद प्रदान महोत्सव विशेषांक गृह व्यवस्था बाद में घर पर जाकर घर संबन्धी जैसे भोजन आदि की जो व्यवस्था करनी हो सो करे, करावे, बन्धुओं तथा नौकरों को भी अपने अपने काम पर नियुक्त करें, इसके बाद उपाश्रय में जाकर व्याख्यान का श्रवण करे. व्याख्यान श्रवण श्रावक बुद्धि के आठगुणों से युक्त होकर व्याख्यान श्रवण करें, गुरु को पंचांग प्रणिपात कर गुरु की आशातना न हो ऐसे स्थान में जाकर बैठे सुनने की इच्छा, सुनना, ग्रहण करना, धारण करना, उहा, अपोह, अर्थविज्ञान, तत्वविज्ञान यह बुद्धि के आठ गुण है. दो पैर, दो हाथ और एक मस्तक इन पाँचों को जमीन के साथ स्पर्श कर वंदन करना उसका नाम है- पंचांग प्रणिपात. गुरु के सामने बैठकर व्याख्यान सुनते समय इन बातों का अवश्य ध्यान रखा जाय पैरों को कमर के साथ बांधकर नहीं बैठना. पैर लम्बे नहीं करना चाहिए. पैर पर पैर नहीं चढाना चाहिए. हाथ ऊँचे नहीं करना चाहिए, जिससे बगल दिखाई दे. बहुत पीछे भी नहीं बैठना चाहिए, एकदम नजदीक भी नहीं बैठना चाहिए, लेकिन ऐसी जगह और इस तरह बैठें कि गुरु का मुख भी दिखाई दे और आने जाने वालों को भी विघ्न न हो. इन बातों का ध्यान रखते हुए व्याख्यान श्रवण करना चाहिये. व्याख्यान में होने वाली शंकाओं का गुरु के समीप विनय पूर्वक समाधान भी कर लेना चाहिए. जिसने सुबह प्रतिक्रमण न किया हो, गुरु को द्वादशावर्त्त वंदन करते समय उसे यथाशक्ति पच्चक्खाण ले लेना चाहिए. स्नान विधि अब प्रभुपूजा के लिये श्रावक पूर्व दिशा में मुख रखकर स्नान करना चाहिए. जिस पट्टे पर बैठकर स्नान किया जाय, वह जमीन से ऊँचा होना चाहिये जिससे पानी बहकर निकल जाये किसी भी जीव को बाधा न पहुंचे. रजस्वला या किसी अत्यन्त मलिन चीज से स्पर्श हुआ हो या सूतक हो या स्वजन की मृत्यु हुई हो तो गृहस्थ को सर्व स्नान अवश्य करना चाहिए. बिना छाना हुआ पानी काम में न लाना चाहिये. स्नान करने के बाद स्वच्छ वस्त्र से शरीर को पोंछकर कंवली पहन कर जब तक पैर न सूख जाय तब तक खडे होकर मन में जिनेश्वर प्रभु का स्मरण करना चाहिये.. देवपूजा जिस गृहस्थ के घर में देरासर (मंदिर) हो वह घर में जाकर पूजा के वस्त्र पहने और मुख कोष बाँधे घरमंदिर में प्रवेश करते हुए बाँई ओर में होना चाहिये. भगवान की मूर्ति जमीन से कम से कम डेढ हाथ ऊँची होनी चाहिये.. पूजा के समय सात प्रकार की शुद्धि होनी चाहिये. मन, वचन, काया, वस्त्र, भूमि, पूजा के उपकरण और स्थान उसके बाद शुद्ध जल या पंचामृत कलश में लेकर प्रभु को प्रक्षाल आदि कराया जाय. बाद में अष्टद्रव्य से पूजा करनी चाहिये. आठ द्रव्य के नाम है- जल, चंदन, पुष्प, धूप, दीपक, अक्षत, नैवेद्य, फल आदि. घरमंदिर में पूजा करते समय जहाँ तक हो सके पूर्व या उत्तर दिशा की ओर मुख रखना चाहिए. फिर नौ अंग की पूजा इस प्रकार करे चरण, जंघा, हाथ, कन्धा, मस्तक, ललाट, कण्ठ, हृदय और नाभि, यह पूजा करने के स्थान है. इस प्रकार घर देरासर की पूजा कर लेने के बाद मार्ग की अशुद्धियों को दूर करता हुआ गाँव के मंदिरजी में पूजा करने जाए. पहले मूलनायकजी की पूजा करने के बाद फिर दूसरी प्रतिमाजी की पूजा करनी चाहिये सभी अरिहंतों की मूर्तियों की पूजा कर लेने के बाद सिद्ध भगवान् की पूजा करनी चाहिए. इसके बाद यक्ष यक्षिणी की पूजा करनी चाहिये. अवग्रह से गंभारा के बाहर जाकर भावपूर्वक चैत्यवंदन करना चाहिए. बाद मे आवस्सिहि करके मंदिर जी से निकल कर घर जावे. 157

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