Book Title: Shrutsagar Ank 2007 03 012
Author(s): Manoj Jain
Publisher: Shree Mahavir Jain Aradhana Kendra Koba

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Page 126
________________ पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी आचार्यपद प्रदान महोत्सव विशेषांक गौरवमयी तपागच्छ परंपरा में सागर समुदाय मनोज जैन जैन धर्म के चोवीसवें तीर्थकर भगवान महावीर देव की गरिमापूर्ण आचार्य पाट परंपरा उनके शिष्य आर्य श्रीसुधर्मास्वामी से प्रारम्भ होती है. इसमें अनेक समर्थ आचार्य भगवंत हुए जिन्होंने जिनशासन की ज्योति को सदा प्रज्ज्वलित रखा. श्वेताम्बर जैन संघ जिस स्वरूप में आज विद्यमान है, उस स्वरूप के निर्माण में तपागच्छीय आचार्यों, मुनिराजों एवं श्रावक समुदाय का भी बड़ा योगदान रहा है. तपागच्छ का प्रादुर्भाव भगवान महावीर की पाट परम्परा में ४४वीं पाट पर से माना है. भगवान महावीर के ४४वीं पाट पर श्री जगच्चंद्रसूरिजी हुए, यह उग्र तपस्वी के रूप में प्रसिद्ध थे. कहा जाता है कि इन्होंने आजीवन आयंबिल की तपस्या की थी. उनकी तपस्या की प्रसिद्धि से प्रभावित होकर उदयपुर के महाराजा ने उन्हें तपा की पदवी प्रदान कर सम्मानित किया था. यहीं से तपागच्छ का जन्म हुआ मानते हैं. आपके पाट पर श्री देवेन्द्रसूरि हुए, जिन्होंने कर्मग्रन्थ की रचना की थी. आपके बाद श्री धर्मघोषसूरि, श्री सोमप्रभसूरि, श्री सोमतिलकसूरि, श्री देवसुन्दरसूरि, श्री सोमसुन्दरसूरि आदि अनेक नामाकिंत आचार्य हो गये हैं जिनकी विद्वता, सहृदयता और उपदेशों ने अनेक जैनेत्तरों के हृदय परिवर्तन करने में अद्वितीय सफलतायें प्राप्त की। इसी परम्परा में मुनिसुन्दरसूरिजी ५१वीं पाट पर हुए ये सहस्त्रावधानी थे। आपने ही श्री संतिकरं स्तोत्र की रचना की थी। ५२वीं पाट पर श्री रत्नशेखरसूरिजी हुए आपने श्राद्धविधि नामक ग्रंथ की रचना की। ५३वीं पाट पर श्री लक्ष्मीसागरसूरि, ५४वीं पाट पर श्री सुमतिसाधुसूरि, ५५वीं श्री हेमविमलसूरि ५६वीं श्री आणंदविमलसूरि, ५७वीं श्री विजयदानसूरिजी और ५८वीं पाट पर अकबर प्रतिवोधक जगतगुरु श्री विजयहीरसूरिजी बडे प्रभावशाली आचार्य हुए हैं। जिनकी यशोगाथा इतिहास के पृष्ठों में स्वर्णाक्षरों में अंकित है। श्री हीरविजयसूरिजी का जन्म गुजरात प्रान्त के पालनपुर नगर में विक्रम संवत १५८३ की मार्गशीर्ष शुक्ला नवमी तिथि सोमवार के दिन ओसवाल जाति भूषण कुराशांह की धर्मपत्नी नाथीदेवी के कुक्षि से हुआ था। संवत १५९६ की कार्तिक वदी २ के दिन १३ वर्ष की अल्पायु में ही श्री विजयदानसूरि जी महाराज के पास पाटन में दीक्षा अंगीकार की। संवत १६०७ में आपको पण्डित और १६०८ में वाचक पदवी प्रदान की गयी। संवत १६१० में आपको आचार्य पद से विभूषित किया गया। देश में भ्रमण करते हुए तथा जीवदया का उपदेश देते हुए मुनि महाराज का यश सौरभ दिग्दिगन्तों में फैल गया। भारत के तत्कालीन सम्राट अकबर ने भी उनकी गुणगाथा सुनी और उनको बुलाया। मुनि महाराज की गौरव गाथा किस प्रकार अकबर के कर्ण गोचर हुई इसकी भी एक कहानी 'जगद्गुरु काव्य' में लिखी गयी है। बादशाह अकबर को उन्होनें प्रतिबोध दिया था. उसे अहिंसक बना कर उसके द्वारा हिंदुओं पर लिया जाने वाला जाजिया कर माफ करवाया था. उनके अनेक विद्वान शिष्यों में से एक थे उपाध्याय श्री सहजसागरजी महाराज, उनके शिष्य थे उपाध्याय जयसागरजी महाराज. इस क्रम में श्री जितसागरजी, श्री मानसागरजी, श्री मयगलसागरजी, श्री पद्मसागरजी (प्रथम), श्री स्वरूपसागरजी, श्री ज्ञानसागरजी, श्री मयासागरजी व श्री नेमिसागरजी हुए. श्री ज्ञानसागरजी ने उदयपुर में श्री अजीतनाथ प्रभु की अंजनशलाका और श्री पद्मनाभ प्रभु की प्रतिष्ठा की थी. उनके शिष्य मुनिश्री भावसागरजी के उपदेशों को सुनने उदयपुर के महाराणा श्री भीमसिंहजी भी आते थे. उन्होंने उदयपुर में श्री सहस्त्रफणा पार्श्वनाथ प्रभु की अंजन शलाका भी की थी. १८वी सदी में जब अधिकांश जैनमुनियों के आचार विचार कुछ शिथिल हुए थे तब भी इस परंपरा के सन्त महान तपस्वी और सुसंयमी थे. मुनिश्री नेमिसागरजी के पास रखचंदजी ने वि.सं. १९०८ में दीक्षा ली. वे मुनिश्री रविसागरजी के नाम से जैन जगत में प्रसिद्ध हुए. वे षड्दर्शन के जाने माने विद्वान और त्यागी तपस्वी के रुप में जन मानस में श्रद्धेय बने थे. कठिन तपस्या व त्याग के कारण वचनसिद्धि उन्हें सहज रूप से प्राप्त थी. वि.सं. १९५४ में वे ध्यानस्थ होकर देवलोक हुए. उनकी पाट 124

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