Book Title: Shrutsagar Ank 2007 03 012
Author(s): Manoj Jain
Publisher: Shree Mahavir Jain Aradhana Kendra Koba

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Page 136
________________ पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी अाचार्यपद प्रदान महोत्सव विशेषांक १८. मूलगोत्र कन्नोजिया- कन्नोजिया, वडभटा, राकावाल, तोलीया, धाधलिया, घेवरीया, गुंगलेचा, करवा, गढवाणि, करेलीया, राडा, मीठा, भोपावत्, जालोरा, जमघोटा, पटवा, मुशलीया इस तरह १७ शाखाएँ कन्नोजिया गोत्र से निकली हैं, वे सब भाई हैं. १९. मूलगोत्र संचेति- लघुश्रेष्टि, वर्धमान भोभलीया, लुणोचा, बोहरा, पटवा, सिंधी, चिंतोडा, खजानची, पुनोत्गोधरा, हाडा, कुबडिया, लुणा, नालेरीया, गोरेचा एवं १६ शाखाएँ लघु श्रेष्ठिगोत्र से निकली हैं, वे सभी भाई हैं. २२-५२१४-२६-१७-१८-१७-२२-३०-४४-८५-२०-२९-१९-१६-२१-१६-१६ कुल संख्या ४९८. इस प्रकार मूल अठारह गोत्र में से ४९८ शाखाएँ निकलीं, इससे यह स्पष्ट होता है कि एक समय ओसवालों का कैसा उदय था और कैसे वटवृक्ष की भांति उनकी वंशवृद्धि हुई थी. इनके सिवाय उपकेशगच्छाचार्य व अन्य आचार्यों ने राजपूतों को प्रतिबोध देकर जैन जातियों में मिलाया, अर्थात् विक्रम पूर्व ४०० वर्ष से लेकर विक्रम की सोलहवीं सदी तक जैनाचार्य ओसवाल बनाते गये. ओसवालों की ज्ञातियाँ विशाल संख्या में होने के कारण कुछ तो व्यापार करने के कारण, कुछ एक ग्राम से दूसरे ग्राम जाने के कारण, कुछ पूर्व ग्राम के नाम से तथा कुछ लोग देशसेवा, धर्मसेवा या बडे-बड़े कार्य करने के कारण तथा इसके अतिरिक्त कुछ लोग हँसी-मजाक के कारण उपनाम पड़ते-पड़ते उस जाति के रुप में प्रसिद्ध हो गये. एक याचक ने ओसवालों की जातियों की गिनती करनी प्रारंभ की, जिसमें उसे १४४४ गोत्रों के नाम मिले. ओसवाल जाति तो एक रत्नागार है, जिसकी गिनती मुश्किल है. इस समय कई जातियाँ बिलकुल नाबूद हो गयी हैं, परन्तु इन दानवीरों के द्वारा बनवाये गए मंदिर व मूर्तियाँ, जिनके शिलालेखों से पता चलता है कि पूर्वोक्त जातियाँ भी एक समय अच्छी उन्नति पर थी। इतना ही नहीं प्राचीन कवियों ने उन जाति के दानवीरों, धर्मवीरों और शूरवीर नर रत्नों की कविता बनाकर उनकी उज्ज्वल कीर्ति को अमर बना दिया है. खामेमि सव्वजीवे सब्वे जीवा खमंतु मे। मिति मे सव्वभूएसु वेरं मज्झ न केणइ।। હું દરેક જીવોને ખમાવું છું, સર્વે જીવો પણ મને ક્ષમા પ્રદાન કરે, સમeત પ્રાણિઓની સાથે મારે nિતા છે, કોઈની સાથે પણ મારે વેરભાવ નથી. 134

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