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पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी आचार्यपद प्रदान महोत्सव विशेषांक
जैनधर्म और चार पुरुषार्थ
शैलेष महेता
* जैन धर्म ने चारों पुरुषार्थों को अपनी-अपनी जगह महत्त्व दिया है.
* धर्मपुरुषार्थ को शेष तीनों पुरुषार्थों की सिद्धि के लिए आधाररूप माना है.
* धर्म, अर्थ और काम पुरुषार्थ का सेवन समरूप से करना चाहिए.
* व्यवहार के लिए अर्थोपार्जन को अत्यन्त महत्त्वपूर्ण मानते हुए उसका सम्पादन धर्मानुसार न्याय-नीति से करना ही श्रेष्ठ आधार माना है.
* सही तरीकों से उपार्जित अर्थ से धर्म और मोक्ष की प्राप्ति होती है.
* सन्मार्ग में दान देना व स्वयं उचित उपभोग करना, अर्थ के ये ही दो प्रयोजन हैं अन्यथा नाश तो है ही ।
* तादात्विक, मूलहर और कदर्य इन तीनों का धन सदा नष्ट हो जाता है.
* तादात्विक यानि उपार्जित धन को जो बिना विवेक के खर्च करता है वह.
* मूलहर यानि पिता और पितामह से प्राप्त सम्पत्ति को जुआ, शराब, वेश्यावृत्ति आदि में उडाता है वह. * कदर्य यानि सेवकों को और खुद को भी कष्ट में डालकर मात्र धनसंग्रह ही करता है वह.
* वैभव का फल इन्द्रियों और मन की प्रसन्नता है. जिस वैभव से अपनी इंद्रिया और मन प्रसन्न न रह सके वह वैभव
नहीं कहा जाता.
* काठ की हांड़ी में एक ही बार भोजन पकाया जा सकता है. अर्थात् बेईमानी एक ही बार चल सकती है.
दान के क्षेत्र :- स्थावर जंगम तीर्थ, अनुकंपा, जीवदया, परोपकार, साधर्मिक, गुरु, ज्ञान भक्ति आदि.
* आज भी बहुत सारे नामी-अनामी श्रेष्ठिजन जिनमंदिर, उपाश्रय, पांजरापोल, चिकित्सालय, विद्यालय आदि के निर्माण द्वारा समाज, धर्म, राष्ट्र व विश्व की सेवा कर के अपनी लक्ष्मी का सदुपयोग कर रहे है. जैन व्यापार विधि
* श्रावक को व्यवहार शुद्धि के साथ देश-काल के नियमों का पालन करते हुए अपने धर्म के अनुरूप अर्थोपार्जन करना चाहिए.
* धन प्राप्ति के लिये अपनी आर्थिक स्थिति आदि को ध्यान में लेकर, अपने कुल के योग्य एवं नीति से धंधा रोजगार करना चाहिए.
* योग्य तरीकों से प्राप्त धन वर्तमान जीवन में एवं परलोक में सुख देने वाला होता है. क्योंकि न्यायोपार्जित धन का निःशंक उपभोग हो सकता है एवं तीर्थयात्रा सुपात्र दान, अनुकंपा दान आदि सत्कार्य हो सकते हैं.
* अन्याय से प्राप्त धन का शीघ्र नाश होता है. यदि नाश न हो तब भी 'मत्स्यगलभक्षण' न्याय से (लालच से कांटे में लगे खाद्य पदार्थ खाने से दुःख पाती मछली की तरह) उभय लोक में अहित करनेवाला होता है. * अन्याय से धन मिले या न भी मिले परंतु अनर्थ-दुःख तो निश्चित मिलता है.
* एकान्त लोभी व्यक्ति के धन का कोई औचित्य नहीं है.
आजीविका के शास्त्रदर्शित सात उपाय
(१) व्यापार (२) विद्या (३) खेती (४) पशुपालन (५) शिल्प (६) सेवा (७) भिक्षा. अनाज, घी, तेल, कपास, सूत, वस्त्र, सोना-चांदी, धातु, मणि, मोती, रत्न आदि.
१. व्यापार
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