Book Title: Shrutsagar Ank 2007 03 012
Author(s): Manoj Jain
Publisher: Shree Mahavir Jain Aradhana Kendra Koba

Previous | Next

Page 95
________________ पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी आचार्यपद प्रदान महोत्सव विशेषांक प्रस्तुत की है. ८. पउमचरियं - आ. विमलसूरिजी द्वारा वि. सं.६० में रचित इस ग्रंथ में पद्म अर्थात् दशरथ पुत्र राम का चरित्र मुख्य रूप से वर्णित है. राम, सीता, जनक, दशरथ, रावण इत्यादि पात्रों के वर्णन के साथ सम्पूर्ण रामायण का वर्णन है. प्रासंगिक अनेक विषयों का भी समावेश किया गया है. ९. शत्रंजय माहात्म्य - श्रीहंसरत्न मनिद्वारा रचित एवं १५ अधिकारों में विभक्त यह ग्रन्थ शाश्वत गिरिराज श्रीशत्रुजय के माहात्म्य को उजागर करता है. पर्वत के एक-एक कंकर के जितने जहाँ अनन्त आत्माएँ सिद्ध हुई हैं ऐसे गिरिराज के माहात्म्य के साथ ही गिरिराज के १६ बार उद्धार किस-किसने कब-कब किया, इत्यादि का वृतान्त दिया गया है. साथही उन अनेक राजाओं के जीवन चरित्र भी वर्णित हैं जिन्होंने गिरिराज पर अनशन द्वारा मोक्ष प्राप्त किया. हम भी भावोल्लास से गिरिराज की यात्रा कर सकें, इसलिए इस ग्रंथ का अवगाहन करना आवश्यक है. १०. पंचसंग्रह - चन्द्रर्षि द्वारा रचित यह ग्रन्थ दो विभागों में उपलब्ध है. प्रथम में योग-उपयोग का स्वरूप, जीवस्थानकों में भिन्न-भिन्न द्वारों का स्वरूप, आठ कर्म, कर्म के १५८ उत्तरप्रकृति स्वरूप, ध्रुवबंधी-अधूबंधी प्रकृति स्वरूप, साद्यादि प्ररूपणा व गुणश्रेणी इत्यादि पदार्थों का वर्णन मिलता है. दूसरे में करणों का विस्तार पूर्वक वर्णन किया गया है. इसके विषय लगभग कम्मपयडी के समान ही हैं. ११.बृहत्संग्रहणी - श्रीजिनभद्रगणि क्षमाश्रमण द्वारा रचित इस ग्रंथ में चार गति में रहे हुए जीवों का स्वरूप निरुपित है. जीवो के आयु, शरीर, वर्ण, अवगाहना, गति, आगति, विरह काल, लेश्या इत्यादि अनेक द्वारों का विस्तार से वर्णन है. रचयिता ने मात्र ३६७ गाथाओं में जीवतत्त्व की विचारणा-अनुप्रेक्षा कर सके ऐसा निरुपण किया है. १२. बृहत्क्षेत्र समास - श्री जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण द्वारा रचित इस ग्रंथ में तिर्छालोक के स्वरूप का ५ अधिकारों में वर्णन किया गया है. प्रथम अधिकार में जम्बूद्वीप और सूर्य-चन्द्रादिक की गति का वर्णन. दुसरे में लवण समुद्र का, तीसरे में घातकी खंड का, चौथे में कालोदधि समुद्र का व पांचवें में पुष्करावर्त द्वीप और प्रकीर्णाधिकार में शाश्वत जिन चैत्यों का वर्णन कुल ६५५ गाथाओं में किया गया है. १३. ध्यानशतक - पू. जिनभद्रसूरिजी महाराज ने ध्यान विषयक बातें मात्र १०५ गाथाओं में निबद्ध कर इस ग्रन्थ की रचना की है. पूज्य हरिभद्रसूरिजी महाराज ने इसकी टीका की है. ध्यान ही मोक्ष का श्रेष्ठ कारण है, साधना में बाधक कौन सा ध्यान हैं यह जानकर उनका त्याग करना, आवश्यक साधक ध्यान बारह प्रकार के द्वारों से समझना, ध्यान के अधिकारी कौन है? ध्यान कब करना चाहिए? आदि विषयों का विवेचन विस्तार पूर्वक किया गया है. __१४. पंचसूत्र - इस दुःखरूपी संसार से बचने के लिए क्या करें ? कहाँ जाएँ ? दुःख कभी आये नहीं, सुख कभी जाये। नहीं - ऐसी हार्दिक इच्छा का उत्तर इस ग्रंथ में है. १५. अनेकान्त जयपताका - आ. श्रीहरिभद्रसूरिजी द्वारा रचित. इस में अनेकान्तवाद का स्वरूप वर्णित है. भेद-अभेद, धर्म-अधर्म, एक-अनेक, सत-असत्, इत्यादि का विभाग कर, उसे अनेकान्तवाद का स्वरूप कहकर उन्हें एक वस्तु में घटित करने का प्रयास किया गया है. चार अधिकारों में अनेक विषयों पर प्रकाश डालने वाला यह महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है. ___१६. उपदेशपद - आ. श्रीहरिभद्रसूरिजी द्वारा रचित यह ग्रन्थ दो विभागों में विभक्त है. जिसमें दृष्टान्त पूर्वक मनुष्य की दुर्लभता, विनय, चार प्रकार की बुद्धि का स्वरूप, मिथ्यात्व, चारित्र के लक्षण, उचित प्रवृत्ति का फल, वैयावच्च का फल, मार्ग का बहुमान तथा स्वरूप इत्यादि विषय और शुद्ध आज्ञायोग का महत्त्व, स्वरूप, उसके अधिकारी, देवद्रव्य का स्वरूप, उसके रक्षण का फल, महाव्रतों का स्वरूप, गुरुकुलवास का महत्त्व, जयणा का स्वरूप व फल आदि विषय दृष्टान्त द्वारा अनुठी शैली में वर्णित है. १७. ललितविस्तरा - आ. श्रीहरिभद्रसूरिजी द्वारा रचित यह ग्रंथ अत्यन्त प्रभावशाली है. महाबुद्धिशाली जीवों को आकृष्ट करने में समर्थ इस ग्रंथ के अध्ययन से बौद्धमत से प्रभावित प्रतिभाशाली सिद्धर्षि गणी जैन धर्म में पुनः स्थिर हुए 93

Loading...

Page Navigation
1 ... 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175