Book Title: Shrutsagar Ank 2007 03 012
Author(s): Manoj Jain
Publisher: Shree Mahavir Jain Aradhana Kendra Koba

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Page 100
________________ पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी आचार्यपद प्रदान महोत्सव विशेषांक ज्ञानभंडारों की स्थापना एवं अभिवृद्धि डॉ. हेमन्तकुमार श्री महावीर प्रभु ने तत्वज्ञान की त्रिपदी गणधरों को दी. गणधरों ने उसे अवधारित कर अपनी प्रगाढ प्रज्ञा के बल से भव्यजीवों के कल्याणार्थ उस त्रिपदी को सूत्रबद्ध कर, विस्तार पूर्वक अर्थ करके अर्थागम के रूप में चतुर्विध श्रीसंघ के सम्मुख प्रस्तुत किया. जो कई सदियों तक शिष्य-प्रशिष्यों में श्रवण परम्परा के माध्यम से व्यवहृत होता रहा. भगवान महावीर की श्रमण परंपरा ने अपनी अवधारणा शक्ति के द्वारा इस श्रुतज्ञान को सुरक्षित रखा एवं उसका अध्ययन अध्यापन जारी रखा. कुछ समय तक यह आगमज्ञान अनुप्रेक्षा तथा स्वाध्याय के द्वारा अतिशुद्ध व अखंड रहा, परन्तु भगवान महावीर के निर्वाण के बाद कई बार व्यापक दुष्काल एवं देश काल जन्य कारणों से मुनिविहार का क्रम अवरुद्ध हो गया. स्वाध्याय, पुनरावर्तन तथा अध्ययन की प्रक्रिया छिन्न-भिन्न हो गई. जिसके कारण कंठस्थ श्रुत के अंश विस्मृत होते गए. काल के दुष्प्रभाव के कारण जैन श्रमणों में स्मरण शक्ति का ह्रास होने लगा और प्रभु श्री महावीर से चली आ रही श्रुतपरम्परा लुप्त होने के कगार पर आ गयी. उस समय तत्कालीन प्रमुख जैनाचार्यों ने इसे पुनः व्यवस्थित एवं संरक्षित करने के उद्देश्य से समय समय पर मुनियों के पाटलीपुत्र और माथुरी संमेलनों में वाचनाओं के माध्यम से विस्मृत ज्ञान को संकलित कर उसका पुनः स्थिरीकरण किया गया. इसके बाद भी जब जैनाचार्यों को यह प्रतीत हुआ कि हमारा श्रुतज्ञान बिना लिपिबद्ध किये सुरक्षित नहीं रहेगा तब पुनः नवमी दसवीं सदी के मध्य श्रमण समुदाय को एकत्र कर वल्लभी वाचना का आयोजन किया गया, जिसमें सर्वसम्मति से इसे लिपिबद्ध किया गया. यह सौभाग्य गुजरात प्रांत को प्राप्त हुआ. उस वल्लभी वाचना के प्रमुख संयोजक जैनाचार्य श्री देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण थे. विस्मृत हो रहे श्रुत को सुरक्षित रखने के लिए क्षमाश्रमण की निश्रा में श्रुतालेखन के भगीरथ कार्य का जो शुभारम्भ किया गया था उस परम्परा का प्रवर्तन एवं विकास आज तक अखंड रूप से जैनाचार्यों और श्रेष्ठिवयों द्वारा मूल्यवान धरोहर के रूप में किया जाता रहा है. इसके पश्चात लेखनकला के नये-नये आविष्कार होते रहे. शुरुआत में ताड़पत्रों पर और बाद में कागज आदि पर जैनवाङ्मय लिखने - लिखवाने की परम्परा का प्रचलन प्रारम्भ हुआ. कालक्रम से इस तकनीक में क्रमशः विकास होता गया और यह इतना प्रसिद्ध हुआ कि धार्मिक व सामाजिक प्रसंगों के जरिये विपुल प्रमाण में साहित्य का सृजन हुआ जो आज हमारी विरासत के रूप में हमें गौरवान्वित कर रहा है. श्रुत साहित्य के संरक्षण व संवर्द्धन के लिए पूज्य साधु साध्वीजी भगवंतो ने करण करावण और अनुमोदन की भावना से कार्य किया. जैनश्रमणों ने विपुल साहित्य का सृजन कर जहाँ एक ओर श्रुतसंवर्द्धन का कार्य किया वहीं तत्कालीन राजाओं, महामात्यों, नगर श्रेष्ठियों, धर्मनिष्ठ श्रावकों आदि को प्रोत्साहित कर साहित्यरचना, प्रतिलिपियाँ और ज्ञानभंडारों का निर्माण भी करवाया. विशेष अवसरों पर ज्ञानपूजा आदि का आयोजन करवाकर श्रुतसंवर्द्धन और संरक्षण का कार्य भी होता था. इतना ही नहीं जो राजा, मंत्री, नगरश्रेष्ठि एवं श्रावक श्राविका आदि शास्त्रों की रचना करने की ओर प्रवृत होते, उन्हें प्रोत्साहित कर उनकों और साहित्य सर्जन करने की प्रेरणा देते थे इसका वृतान्त हमें प्राचीन हस्तलिखित ग्रन्थों के अंत में दृष्टिगोचर होनेवाली प्रशस्तियों में प्राप्त विविध उल्लेखों से मिलता है. प्राचीन ग्रन्थों की प्रशस्तियों और प्रतिलेखन पुष्पिकाओं को देखकर यह सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि जैन श्रमणों ने ज्ञानभंडारों की अभिवृद्धि हेतु सर्वतोमुखी उपदेश प्रणाली को स्वीकार किया था. समझदार व्यक्तियों को 98

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