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अमृतविजयकृत नेम-राजुल बारमासा
डॉ. भानुबेन शाह मध्यकालीन जैन गुर्जर साहित्यना काव्य प्रकारो तरफ दृष्टिपात करीए तो संख्याबंध प्रकारो प्राप्त थाय छे. जेम के रास, भास, चोपाई, चच्चरी, कडखो, कवित्त, कुंडलीया, बारमास, फाग, छंद, छप्पा, लावणी, हरीयाळी, हुंडी, संधी, प्रबंध, पद, प्रभातिया, पूजा, स्तुति, स्तवन, सज्झाय इत्यादि, जे गुर्जर भाषानुं वैभवी गौरव छे. वारमासानुं स्वरूप :
आ काव्य प्रकारोमां 'बारमासा' ए एक लोकप्रिय गेय काव्यप्रकार छे. आ काव्यप्रकारनुं अनुसंधान संस्कृत काव्य परंपरानां ऋतुकाव्यो साथे जोई शकाय छे. आ काव्य जूनी राजस्थानी, गुजराती, हिन्दी, बंगाळी वगेरे साहित्यमां उपलब्ध छे. बारमासा ए ऋतुकाव्य प्रकार छे. जैन अने जैनेत्तर कविओए बारमासानी रचना करी छे. जैन परंपरानी ५० अने जैनेत्तर परंपरानी ३० जेटली कृतिओ आ काळखंडमां उपलब्ध छे.
बारमासा फागु काव्यना अनुसंधानपूर्वकनो ज गेयकाव्य प्रकार छे. फागु काव्यमां वसंत के वर्षाऋतुमां गवातां गान, जेमां वसंतनी असरथी मात्र प्रकृति ज नहीं पण विश्वना प्राणीमात्र मादकतानो अनुभव करे छे, तेनु रसभर वर्णन थयेलु होय छे. ज्यारे बारमासामा बारमास अने क्यारेक तेर महिनानी विविध असर अनुभवता मानस भावो व्यक्त करवामां आवे छे.
श्री हरिवल्लभ भायाणी बारमासानुं स्वरूप बतावतां नोंधे छे : ' 'ऋतुवर्णननी जेम ज स्वतंत्र रचनारूपे अथवा कोई मोटी रचनाना एक भाग तरीके (बारमासी उपलब्ध थाय छे.) ते ते ऋतु के मासनुं वर्णन, निसर्ग अने जनजीवन (उत्सव, रिवाज, रहेणीकरणी) ने लगती लाक्षणिकताओ चींधतुं चाले छे. बारमासी परंपरामां विरह अने मिलनना शृंगारिक भावोने केन्द्रवर्ती बनाववानुं वलण विकसे छे परिणामे काव्य तत्त्वने माटे वधु अवकाश उभो थाय छे. धार्मिक परंपरामांनी वैराग्यबोधक विविध प्रकारनी बारमासीओ अथवा तो खेडूतनी बारमासी जेवा प्रकार मूळ लोकप्रिय स्वरूपनो पछीथी प्रचार के कौतुकना हेतुथी विनियोग थयो छे.'
बारमासी स्वरूपनी रचनाओ मूळ तो लोकसाहित्यनां विरहिणी स्त्रीना मनोभावोनी मनोहारी रजूआतमांथी उद्भवी हशे. संस्कृत काव्य परंपराना 'ऋतुसंहार' अने
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