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श्रुतसागर ३८-३९
जैन परंपरा में विरह की बात आती है, तब विरही युगल के रूप में नेमराजुल और स्थूलिभद्रजी को कवियों ने अग्रस्थान दिया है। सांप्रतकाल में उपलब्ध ५० बारमासा में 'रायचंद्रसूरि बारमासा' और 'धर्मसूरि बारमासा' को छोड़कर बाकी की रचनाएँ इस (नेम-राजुल) युगल को केन्द्र में रखकर रची गई हैं। पिप्पलकगच्छ के आचार्य हीराचंदसूरि और तपगच्छ के चंद्रविजयजी इन दो कवियों ने 'स्थूलभद्र बारमासा' की रचना की है ।
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विषय वैविध्य की दृष्टि से देखें तो जैनेतर कविओ ने विरहवेदना के साथसाथ गुरुमहिमा, गुरुज्ञानमास, समाजसुधारकता, राष्ट्रहित जैसे विविध विषयों को बारमासा में गुंफित किया है।
समय के अनुसार कवियों ने पंद्रह तिथियों और सात वार को भी अपनी कविता में आश्रय दिया है। सात वार की गरबी जिसमें प्रारंभ आदित्य याने इतवार (रविवार) से होती है, तो कोई कृति मंगलवार से भी प्रारंभ होती है।
जैनेतर काव्य में इस तरह का परिवर्तित रूप दिखाई देता है ।
कवि ऋषभदासजी ने 'धुलेवाजी बारामासा' का निर्माण करके विषय वैविध्य प्रस्तुत किया है। अर्वाचीन साहित्य में भी मास, तिथि व वार विषयक रचनाएँ प्राप्त होती हैं, जिसमें जैन धर्म के उपदेशात्मक विचार प्रकट होते हैं। बारमासा की प्राचीन रचना ५३३ वर्ष पूर्व की अंचलगच्छ के डुंगर स्वामी की प्राप्त होती है।
श्री अगरचंद नाहटा और शिवलाल जेसलपुरा ने राजस्थानी भाषा में बारमासा काव्य प्रकार पर संशोधन किया है। विदेश में रशिया के झबातिवेल एवं फ्रांस के शार्भोत वोदविल जैसे संशोधकों ने बारमासा काव्यप्रकार पर काफी संशोधन किया है।
कवि परिचय :
प्रस्तुत 'धुलेवाजी बारमासा' के रचयिता सोलवीं सदी के खंभात के निवासी श्रावक कवि ऋषभदासजी हैं।
केशरियाजी तीर्थ का इतिहास :
तीर्थंकरों के कल्याणक और अतिशय से पवित्र आर्यावर्त का इतिहास सरोवर में कमल-सा शोभायमान भव्य जीवों के चित्ताकर्षण में सदा गौरवपूर्ण रहा है ।
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