Book Title: Shrutsagar Ank 038 039
Author(s): Hiren K Doshi
Publisher: Acharya Kailassagarsuri Gyanmandir Koba

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Page 26
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कवि ऋषभदासकृत धुलेवाजी बारमासा डॉ. भानुबेन शाह भूमिका : मध्यकालीन युग में जैन मनीषीओं ने रास, फागु, बारमासा, स्तवन, सज्झाय जैसे ५० काव्यप्रकारों में अपनी लेखनी चलाई है। जैन 'गुर्जर कविओ भाग-१ से ६ में विविध काव्यप्रकारों का उल्लेख किया गया है। मध्यकालीन युग 'रासायुग' से विख्यात है, लेकिन रास के साथ-साथ 'फागु' और 'बारमास' काव्यप्रकार भी प्रभाव में दिखाई दिये हैं । बारमासा का स्वरूप : बारमासा लघुकाव्य प्रकार है । यह गेयकाव्य है। बारमासा में नायकनायिका के विरह की मनोव्यथा होने से करुणरस को प्रधानता मिली है । बारमासा के अंतमें नायक-नायिका का मिलन होता है, तब शृंगार का निरुपण भी कविजनों द्वारा हुआ है । बारमासा में वर्ष के बारहमास के क्रमिक आलेखन द्वारा विरहिणी स्त्री की विरहवेदना उजागर की जाती है। यहाँ कल्पना का वैभव, रस निरूपण और भावस्थिति का ह्रदयस्पर्शी चित्र होने के कारण बारमासा को स्वतंत्र काव्य प्रकार में गिना जाता है | बारमासा ऋतुकाव्य प्रकार है। जैन और जैनेतर कवियों ने इस काव्यप्रकार को अपनी कलम से नवपल्लवित किया है। जैन परंपरा में ५० और जैनेतर परंपरा में ३० कृतियाँ इस काल में उपलब्ध हैं । For Private and Personal Use Only बारमासा काव्य के उद्भव में मध्यकालीन समाजजीवन के महत्त्व का परिबल है। समाज के भाट, चारण, भवैया, व्यापारी, लडवैये विद्यार्थी आदि का अपने गाँव को छोडकर विदेश में जाना, वहाँ लम्बे अरसे तक ठहरना, ऐसी स्थिति में स्त्रियों का अकेले रहना, तदुपरांत राजकीय अव्यवस्था, चोरी, लूटमार, तूफान, दंगा-फसाद इत्यादि कारणों से जनता को एक स्थल से दूसरे स्थल पर आना-जाना पडता था । इस परिस्थिति में नायिका को नायक का विरह असह्य प्रतीत होता था । उसी परिस्थितियों में बारमासा का उद्भव हुआ होगा, ऐसा विद्वानों का अनुमान है।

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