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मार्च-अप्रैल - २०१४
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प्राचीन भारतीय इतिहास के पुनर्निर्माण में ब्राह्मी-लिपि-बद्ध इन अभिलेखों की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। इनमें सिक्कों और मुहरों पर प्राप्त लेख भी सम्मिलित हैं। भारत के अनेक राजवंशों का इतिहास इन पुरालेखों के आधार पर ही रचा गया है। अतः स्पष्ट है कि ये लेख न केवल प्राचीन शासन व्यवस्था पर बल्कि संस्कृति के विविध पहलुओं पर भी प्रकाश डालते हैं।
जैसा कि पूर्व में उल्लेख किया जा चुका है- यह लिपि सर्वदेश व्यापी लिपि के रूप में देखने को मिलती है। लेकिन देश-काल-परिस्थिति अनुसार इस लिपि के अक्षरों की संरचना में परिवर्तन भी हुआ, जो स्वाभाविक है। कालान्तर में शैली की दृष्टि से इसके उत्तरी तथा दक्षिणी लिपि के रूप में दो भेद हुए।
दक्षिणी ब्राह्मी से दक्षिण भारत की मध्यकालीन तथा आधुनिक कालीन लिपियाँ अर्थात् तामिल, तेलुगु, मलयालम, ग्रंथ, कन्नडी, कलिंग, नंदीनागरी, पश्चिमी तथा मध्यप्रदेशी आदि लिपियों का जन्म हुआ। जबकि उत्तरी ब्राह्मी से शारदा, गुरुमुखी, प्राचीन नागरी, मैथिल, बंगला, उडिया, कैथी, गुजराती आदि विविध लिपियों का विकास हुआ।
ई.सन की चौथी शताब्दी में उत्तरी ब्राह्मी लिपि के वर्षों में शिरोरेखा सदृश आकृति बनने लगी, कुछ वर्षों की आकृतियाँ नागरी सदृश तथा कुछ मामाओं के
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