Book Title: Shrutsagar Ank 038 039
Author(s): Hiren K Doshi
Publisher: Acharya Kailassagarsuri Gyanmandir Koba

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Page 71
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुतसागर - ३८-३९ मा कर्णयोत्मीलदलीकमालां त्वं कोमलाङ्गां कमलाननायाः। यड्डाकिनीमन्त्र इव श्रुता सा दत्ते बुधानामपि दुष्टबुद्धिम् ।।७।। सुर नर तिरि प्रजागति, जागति मई किम जाई; तिणि त्रिणि जित कमलकंठि, रे कंठि रेखा व(च) हुं माई. ।।२८ ।। दिविज-मनुज-तिर्यग्गामुकाः कामुकाः स्युः कथमिव मयि सत्यमिव मावेदनाय ! कथयति कमला वेदिम रेखास्नि सख्याः स्वरजितकलकण्ठी कण्ठपीठप्रतिष्ठा ।।२९ ।। कसिण कंचुक मिसि आभलु, आभलु कुच गिरिशृंगि; भीतरि करिसि ए कांदम, कां दम घरसि न अंगि. ||३०|| भूषारत्नचरिष्णुरोचिरचिरद्युच्चारु नारीकुचक्ष्यामृत्यभ्रकमेतदुन्नतमयं नो मेचुकः कञ्चुकः । कर्ता प्रकिलतामिदं किल भव(त्य)त्यद्गुणभ्रंसिनी तेनाशु प्रविशत्वनिन्द्रियदमावासोदरं सोदरः ||३१|| आपण पुं गिणि हार तुं, हार तुं जइ निरखेसि; मांडिय पास पयोधर, योध रह्या तुझ रेसि. 1|३२|| विपुलभौक्तिकपद्धतिपाशयोस्तव पयोधरयोः किमु योधयोः । द्वयमिदं तरुणिस्वनिरीक्षणप्रवणपुंधरणाय सभीहते ।।३३।। नेत्रिवली त्रिवली नर, लीन रही मन वर्णि; त्रिविध कपट भरी रेख, वरेख वहई तिण त्रिणि, ||३४|| इयमिह कणगर्ता गाढम्भीरभावात् त्रिकरणकपटानामुत्कटानां वधूटी। इति विधिरकरोत किं तामभिज्ञानहेतोः कलितवलितरङ्गाव्याजमध्यत्रिरेखाम् ।।३५।। मयण पारि करि ला(क)डी, मा कडि लंकि हि झीण; इम कि कहई जुवती वसि, जीव सवे हुई खीण. ॥३६।। For Private and Personal Use Only

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