Book Title: Shrutsagar Ank 038 039
Author(s): Hiren K Doshi
Publisher: Acharya Kailassagarsuri Gyanmandir Koba
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुतसागर वर्ष-४, अंक नं.२-३, कुल अंक-३९, मार्च-अप्रैल २०१४ यणासाकापियनयात्म स्थमदवहादिप्रतिस्यहिनसह साधतापडितमाणमयणव वीरवालाकसमादशाबा सा०लालाथावकलगिद्या ताहतावनतिनियमितायतमा धारयिहिसागरचविहांदावा सिायणसोशाधितावना दानशीलतयोहावनानिरत 'विक्रमनी तेरमी सदीमां लखायेल श्रीज्ञाताधर्मकथांग आगमनुं ताडपत्रीय सचित्र पत्र' आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर For Private and Personal Use Only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SCREE155-161060 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 16301956STRUSBT610892GLEASig 189% ENRNडानलमला www.kobatirth.org PaneKSGAMBABारूपाल NOTESesbaबनानासा For Private and Personal Use Only Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra सम्राट् संप्रति संग्रहालयमा प्रदर्शित विक्रमनी सोळमी सदीमां आलेखायेला कृष्णलीला प्रसंगना ताडपत्रीय चित्रो Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर का मुखपत्र * संपादक श्रुतसागर ३८-३९ * आशीर्वाद राष्ट्रसंत प. पू. आचार्य श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म. सा. हिरेन के. दोशी Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir * निदेशक : कनुभाई एल. शाह एवं ज्ञानमंदिर परिवार १७ अप्रैल, २०१४, वि. सं. २०७०, चैत्र सुद- १५ प्रकाशक आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र कोबा, गांधीनगर - ३८२००७ फोन नं. (०७९) २३२७६२०४, २०५, २५२ फेक्स: ( ०७९) २३२७६२४९ website : www.kobatirth.org email: gyanmandir@kobatirth.org For Private and Personal Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५ अनुक्रम १. संपादकीय हिरेन के, दोशी २. गुरुवाणी पू. आ. श्री पद्मसागरसूरिजी ३. अमृतविजयकृत नेम-राजुल बारमासा डॉ. भानुबेन शाह ४. कवि ऋषभदासकृत धुलेवाजी बारमासा डॉ. भानुबेन शाह ५. आचार्यश्री मलयगिरि अने तेनुं शब्दानुशासन मुनिश्री पुण्यविजयजी ६. ब्राह्मी लिपि एक अध्ययन डॉ. उत्तमसिंह ७. सम्राट् संप्रति संग्रहालयना प्रतिमा लेखो हिरेन के. दोशी ८. स्वाध्याय तप एक परिचय । कनुभाई एल. शाह ९. फागुबंध काव्यनुं स्वरूप अने नारीनिरास फागना कर्ता पं. अंबालाल शाह १०. पं. नंदिरत्नगणिना शिष्य ___पं. रत्नमंडन गणि पं. लालचंद्र गांधी ११. पुस्तक परिचय डॉ. हेमंत कुमार १२. श्रीमान सोहनलालजी चौधरी : एक परिचय डॉ. हेमंत कुमार १३. समाचार सार प्राप्तिस्थान आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर तीन बंगला, टोलकनगर परिवार डाईनिंग हॉल की गली में पालडी, अहमदाबाद - ३८०००७ फोन नं. (०७९) २६५८२३५५ For Private and Personal Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संपादकीय श्रुतसागरनो ३८मो अंक आपना हाथमा छे. तीर्थ बे प्रकारना होय छे स्थावर अने जंगम.. स्थावर एटले स्थिर, अचल, एनुं सरनामुं एक ज होय... अने जंगम एटले विचरता, चल, एमनुं कोई सरनामुं नथी होतुं... कारण के सदाय वहेता होय छे. विचरता होय छे. आ बन्ने तीर्थो माटे आपणे गौरव लई शकीए एवी विशिष्ट कोटिनी उत्तम संपदा आपणने प्राप्त थई छे. स्थावर तीर्थ एटले आपणे जेनी पासे जईने पवित्रतानो पुनित स्पर्श पामी शकीए एवा परम तीर्थो... जे देशना विविध राज्यो अने प्रदेशोमां पोताना पुनित परमाणुओथी आपणने श्रद्धाथी परिप्लाक्ति करे छे. ज्यारे जंगम तीर्थ एटले जिनशासनना अणगार एवा पूज्य श्रमण-श्रमणी भगवंतो... जे देशना विविध प्रदेशोमां विचरीने स्वात्मकल्याणनी साथे-साथे आनुषंगिक भावे परात्मकल्याणमय करी पोतानुं जीवन निर्वाह करे छे. आ बन्ने तीर्थो आपणी आध्यात्मिक उन्नतिना मूळभूत कारणरूप छे. आ बन्ने तीर्थनी सेवा अने तीर्थनी उपासना जीवनमा अनेरो आनंद आपी जाय छे तो, आ बन्ने तीर्थनी करेली आशताना परंपराए जिनशासननी आशातना सुधी लई जाय छे. आ वास्तविकताने सामे राखी तीर्थनी आशातना न थाय एनी तकेदारी राखवी जोईए... आ अंकनी वात __ आपणा व्यवहारमा धर्मनी आवश्यकता अने उपयोगिता समजाय अने जीवनमां धर्म अने धर्ममां जीवन वधु ने वधु उमेराय ए माटे आ अंकमां पूज्य गुरुभगवंतश्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म. सा. ए आपेल प्रेरक प्रवचनने अत्रे प्रकाशित कर्यु छे. मुंबईथी ज्ञानमंदिरना नियमित वाचक श्री भानुबेन तरफथी मळेल बारमासा साहित्यनी बे अप्रकाशित कृतिओ अत्रे प्रकाशित करी छे. कृति परिचय अने प्रस्तावनामां बारमासा साहित्य अने मध्यकालीन काव्यकलापो विशे अपायेलो परिचय वाचकोने उपयोगी बने एवो छे. आ अंकमां दर अंकनी जेम आ वखते जैन सत्यप्रकाशमाथी आगमप्रभाकर पू. मुनिमहाराज श्री पुण्यविजयजी म. सा. द्वारा लिखित मलयगिरिसूरिजी म. सा, अने एमना द्वारा रचायेल शब्दानुशासन उपर प्रकाश आपतो अभ्यासपूर्ण लेख For Private and Personal Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मार्च-अप्रैल २०१४ ४ आ अंकमा प्रकाशित कर्यो छे. सामान्यथी दर वखते एक लेख प्रकाशित करवानी धारणा होवा छतां आ अंकमां जैन सत्यप्रकाशमांथी अन्य बे समीक्षात्मक लेखो आ अंकमा प्रकाशित कर्या छे अंक नं. ३५मां रत्नमंडनगणि कृत मेघवाहन नृप कथा प्रकाशित करी ए समये ज आ बन्ने लेखो प्रकाशित करवा भावना हती, पण स्थानाभावे आ बन्ने लेखो ते समये प्रकाशित करवानुं शक्य न बन्युं पं. रत्नमंडन गणिना संबंधां थयेला विमर्शने प्रकाशित करवाना हेतुथी आ बन्ने लेखो अत्रे प्रकाशित कर्या छे. ▾ छल्ला घणा समयथी समाजमा अने व्यक्तिमां हस्तप्रत अने लिपिने लईने एक अनुमोदनीय गणी शकाय एवी जागरूकता जोवा मळे छे. ए अनुमोदनानी सक्रियता रूपे अमारा ज्ञानमंदिरमां कार्यरत लिपिज्ञ पंडितवर्य डॉ. उत्तमसिंहजी तरफथी ब्राह्मी लिपि एक अभ्यासपूर्ण परिचय आ अंकमा प्रकाशित कर्यो छे. ज्ञानमंदिरना अनन्य सहयोगथी श्री संघोमां अने अन्य संस्थानोमां लिपि क्लास विगेरेनुं आयोजन अने संगठन थयुं छे. श्रुतसागरना माध्यमे आ ज प्रयासने थोडी जुदी रीते रजु कर्यो छे. ब्राह्मी लिपिना परिचयनी साथे ब्राह्मी लिपिनो विकास, एना व्यंजनो अने अक्षरोना मरोडनी विगतनी तुलना करता अक्षरो विगेरे वाचकोना स्वाध्यायमा अने संशोधनमां उपयोगी बनशे ए आशा अस्थाने नथी. दर वखते अपाता तीर्थ परिचयना स्थाने आभ्यंतर तपना एक प्रकार स्वरूपे स्वाध्यायनुं महिमा गान करतो लेख स्व - अध्यायमा खरेखर उपादेय बनशे. For Private and Personal Use Only पू. गुरुभगवंतश्री अने श्री महावीर जैन केन्द्र कोबाने जेमनुं संपूर्ण जीवन समर्पित हतुं एवा श्री महावीर जैन आराधना केन्द्रना गौरववंता पूर्व प्रमुख, आदरणीय श्री सोहनलालजीनी संक्षिप्त जीवनरेखा आ अंकमा प्रकाशित करी छे. फुल फोरम आपीने, दीवो प्रकाश आपीने, सरिता वहीने अमर बनी जाय छे. आदरणीय श्री सोहनजीमां सेवा, समर्पितता, अने सद्गुण आम त्रणेय गुणोनो संगम थयो हतो. एमणे श्री संघ माटे, जनसमाज, अने मानवता माटे करेला पुण्यकार्योनी सूचि करीए तो आवा एक बे डझन अंको नाना अने ओछा पडे एम छे. आवा विशिष्ट कोटिना सुकृतो करवानी शक्ति आपणने सहुने मळे एटला माटे एमना सुकृतोनी अनुमोदना रूपे एमनो परिचयांश प्रकाशित कर्यो छे. वाचकोनी उपादेयता अने संशोधन कार्यमां उपयोगिता वधे ए हेतुसर राजस्थानी ग्रंथागार तरफथी प्रकाशित 'जैनों का संक्षिप्त इतिहास दर्शन व्यवहार एवं वैज्ञानिक आधार' नो संक्षिप्त परिचय आ अंकमा प्रकाशित कर्यो छे. आ प्रकारना अनेक प्रकाशको तरफथी प्रकाशित प्रकाशनो ज्ञानमंदिरमां उपलब्ध छे. आवश्यकता अनुसार वाचको एनो लाभ लई शके छे. Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गुरुवाणी आचार्यश्री पद्मसागरसूरिजी 'धम्मस्स मूलं विनयः' परमात्मा महावीर का कथन है कि धर्म का जो मूल है, वह विनय है और विनय के द्वारा ही व्यक्ति प्रेम का साम्राज्य स्थापित कर सकता है। जगत के प्राणीमात्र के अन्तस्तल में अपना स्थान बना सकता है। इसमें सारे क्लेशों और कटुता का नाश करने की अपूर्व क्षमता समाहित है। नम्रता के द्वारा हम अपनी क्षमा की भावना प्रकट करते हैं। अपनी तिक्तता विसर्जित करते हैं। अपने वैर भाव को हम तिलांजलि दे देते हैं। अनन्त काल के संसार का भेद इसी नम्रता की क्रिया के द्वारा ही हम प्राप्त करते हैं। इसीलिए संसार के प्रत्येक धर्म के अन्दर सर्वप्रथम नमस्कार को महत्त्व दिया गया है। मंदिर जाएं, प्रभु दर्शन करें, रास्ते में सन्त मिल जाएँ, गुरुजन मिल जाएँ तो नमस्कार अवश्य करें, घर के अन्दर अपने माता-पिता या बड़े भाई या जो भी घर में बड़े हैं, सर्वप्रथम व्यवहार में भी नमस्कार करें। कहीं पर जब ऑफिसर के पास काम कराने जायें तो वहाँ भी पहले ही नमस्ते, नमस्कार करते हैं। बड़ी अपूर्व क्रिया है। विलक्षण चमत्कार इस नमरकार की क्रिया में अन्तर्हित है। शुद्ध भाव से परमात्मा को किया हुआ नमस्कार मोक्ष का कारण बनता है। हमारे यहाँ प्रतिक्रमणसूत्र में पाप की आलोचना की जो सब से श्रेष्ठ क्रिया है, उसमें स्पष्ट कह दिया गया है 'इक्को वी नमुक्कारो जिनवर वसहस्स वद्धमाणस्स। संसार सागराओ तारेई नरं व नारिं वा ।। संसार रूप इस सागर से आत्मा तैरकर किनारा प्राप्त कर लेती है ऐसी अपूर्व क्रिया है इस नमस्कार में। इसलिए ग्रन्थकार ने सर्वप्रथम नमस्कार को महत्त्व दिया है। आपको मालूम होगा घर के अन्दर आप इलैक्ट्रिक स्विच रखते हैं और यदि स्विच ऑफ कर दें तो लाइट चली जाती है। स्विच जैसे ही ऊपर हुआ, उसका माथा, 'गर्वेण तुंगं शिरः' गर्व से, अभिमान से उसका माथा आपने ऊँचा कर For Private and Personal Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मार्च-अप्रैल - २०१४ दिया, ऑफ कर दिया लाईट चली जाएगी। अन्धकार मिलेगा। परन्तु जैसे ही स्विच आपने ऑन कर दिया, स्विच को नमा दिया तो उस नमस्कार का चमत्कार देखा - तुरन्त लाइट आ जाती है। नमस्कार मन का बटन है, मन का स्विच है। मन को विपरीत करिये तो क्या बनता है - नम। मन का स्विच यदि आपने ऑन कर दिया, औंधा कर दिया तो नमस्कार डिवाइन लाइट बनेगा। अन्धकार में ज्ञान का प्रकाश होगा। यह रहस्य है। मन के स्विच को ऑन करके रखिये। नमस्कार पूर्वक हरेक क्रिया करिये। नमस्कार की भावना से प्राप्त करने की उत्कण्ठा रखिये। सारी समस्या दूर हो जाएगी। मन का तनाव दूर हो जाएगा। मन को हल्का बना देगा। नमस्कार की क्रिया में यही रहस्य है। बड़ी प्रसन्नता होगी। अनेक व्यक्तियों की जब सद्भावना मिल जाएगी तो प्रसन्नता तो स्वयं आ जाएगी। यहाँ भी उस परमात्मा को सर्वप्रथम भावपूर्वक नमस्कार किया गया कि भगवन् तुझे नमस्कार करके मैं इस कार्य के अन्दर प्रवेश कर रहा हूँ। इस लेखन कार्य के अन्दर, जो मुझे जगत् को देना है और जो कुछ जगत् को दिया जाय, वह विशुद्ध हो, अमृत तुल्य हो। उसमें मनोविकार रूपी विष का प्रवेश न हो जाए | अहं की दुर्गन्ध इन शब्दों में न आ जाए। इसीलिए प्रथमः नमस्कार की मंगल क्रिया सम्पादित की गयी, ताकि जगत् का मार्गदर्शन करने की प्रक्रिया में कहीं मनोविकृति न हो। विशुद्ध अमृत तत्व इसके अन्दर दिया जाये जिसका पान करनेवाला आनन्द का अनुभव कर सके। बहुत सारे ऐसे विकृत लेख आपको मिलेंगे। बहुत गलत मार्गदर्शन मिल जाएंगे। पश्चिमी सभ्यता की आँधी इतनी खतरनाक है कि वह साइक्लोन सारी दुनिया के अन्दर वायरस फैलाने वाला है। उनका एक ही दर्शन है, उनकी एक ही मान्यता है - 'खाओ, पीओ, ऐश करो - कल तो तुम मर जाओगे।' जहाँ परमात्मा के अस्तित्व में विश्वास नहीं है । स्वयं की आत्मा में आत्मविश्वास नहीं, जहाँ किसी प्रकार का जीवन में अनुशासन नहीं, जहाँ भोग का अतिरेक हो, वहाँ यही दशा होगी। मरना तो सबको है। ज्ञानियों ने कहा - मरना भी एक अपूर्व कला है। जिसका सारा ही जीवन धर्ममय होगा । विनम्रता पूर्वक जहाँ जीने की सुन्दर कला होगी। जहाँ विचारों का अपूर्व सौन्दर्य होगा, वहाँ उस आत्मा की मृत्यु भी जगत को प्रेरणा देने वाली बनेगी। उसका सारा ही जीवन परोपकारमय होगा। For Private and Personal Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुतसागर - ३८-३९ इसीलिए किसी कवि ने कहा'जीना भला है उसका जो जीता है इंसान के लिए। मरना भला है उसका जो जीता है खुद के लिए।।' जो आत्मा अनेक आत्माओं के कल्याण के लिए जीवित हो, पूर्णतया परोपकार की भूमिका पर जिसका जीवन निर्वाह हो, उस आत्मा का जीवन धन्य है और उसकी मृत्यु भी मंगलमय होगी। परन्तु जो व्यक्ति सिर्फ अपने लिए जीता अपना पेट भर कर यह समझ ले कि सारी दुनिया का पेट भर गया है, उस व्यक्ति का तो मरना ही श्रेष्ठ है। अपने लिए नहीं जगत् की आत्माओं के लिए मुझे जीवन जीना है। मेरे जीवन में से अनेक व्यक्तियों को लाभ मिले, यह भावना नमस्कार के द्वारा प्राप्त होगी। व्यक्ति जब लघु बनता है तब उसे प्रभुता मिलती है। इस प्रकार प्रभुता के विचार अद्भुत होते हैं। 'लघुता से प्रभुता मिले, प्रभुता से प्रभु दूर ।' संत तुलसीदास का कथन है - जहाँ लघुता होगी वहीं प्रभुता आएगी और यदि पहले ही प्रभुता का नशा बढ़ जाए तो ज्ञानियों ने कहा है कि कुछ मिलने वाला नहीं। वह आत्मा की प्राप्ति से वंचित रहेगा। सारा जीवन धर्म से शून्य रहेगा, कुछ मिलेगा नहीं। भारतीय दर्शन के उन महान विद्वानों ने चित्ता प्रस्तुत किया कि पश्चिम की आँधी में हम किस तरह से अपनी स्थिरता को प्राप्त कर सकते हैं। आपके सामने सर्च लाइट दिया, ज्ञान का ऐसा दिव्य प्रकाश आपके समक्ष रखा और कहा 'अनित्यानि शरीराणि विभवो नैव शाश्वतः। नित्यं सन्निहितो मृत्युः कर्तव्यो धर्मसंग्रहः।।' हे आत्मन् ! मौत आपके मस्तक पर नाच रही है और न जाने कब आप किस निमित्त से चले जाओ, क्या इसका पता है आपको? (क्रमशः) For Private and Personal Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अमृतविजयकृत नेम-राजुल बारमासा डॉ. भानुबेन शाह मध्यकालीन जैन गुर्जर साहित्यना काव्य प्रकारो तरफ दृष्टिपात करीए तो संख्याबंध प्रकारो प्राप्त थाय छे. जेम के रास, भास, चोपाई, चच्चरी, कडखो, कवित्त, कुंडलीया, बारमास, फाग, छंद, छप्पा, लावणी, हरीयाळी, हुंडी, संधी, प्रबंध, पद, प्रभातिया, पूजा, स्तुति, स्तवन, सज्झाय इत्यादि, जे गुर्जर भाषानुं वैभवी गौरव छे. वारमासानुं स्वरूप : आ काव्य प्रकारोमां 'बारमासा' ए एक लोकप्रिय गेय काव्यप्रकार छे. आ काव्यप्रकारनुं अनुसंधान संस्कृत काव्य परंपरानां ऋतुकाव्यो साथे जोई शकाय छे. आ काव्य जूनी राजस्थानी, गुजराती, हिन्दी, बंगाळी वगेरे साहित्यमां उपलब्ध छे. बारमासा ए ऋतुकाव्य प्रकार छे. जैन अने जैनेत्तर कविओए बारमासानी रचना करी छे. जैन परंपरानी ५० अने जैनेत्तर परंपरानी ३० जेटली कृतिओ आ काळखंडमां उपलब्ध छे. बारमासा फागु काव्यना अनुसंधानपूर्वकनो ज गेयकाव्य प्रकार छे. फागु काव्यमां वसंत के वर्षाऋतुमां गवातां गान, जेमां वसंतनी असरथी मात्र प्रकृति ज नहीं पण विश्वना प्राणीमात्र मादकतानो अनुभव करे छे, तेनु रसभर वर्णन थयेलु होय छे. ज्यारे बारमासामा बारमास अने क्यारेक तेर महिनानी विविध असर अनुभवता मानस भावो व्यक्त करवामां आवे छे. श्री हरिवल्लभ भायाणी बारमासानुं स्वरूप बतावतां नोंधे छे : ' 'ऋतुवर्णननी जेम ज स्वतंत्र रचनारूपे अथवा कोई मोटी रचनाना एक भाग तरीके (बारमासी उपलब्ध थाय छे.) ते ते ऋतु के मासनुं वर्णन, निसर्ग अने जनजीवन (उत्सव, रिवाज, रहेणीकरणी) ने लगती लाक्षणिकताओ चींधतुं चाले छे. बारमासी परंपरामां विरह अने मिलनना शृंगारिक भावोने केन्द्रवर्ती बनाववानुं वलण विकसे छे परिणामे काव्य तत्त्वने माटे वधु अवकाश उभो थाय छे. धार्मिक परंपरामांनी वैराग्यबोधक विविध प्रकारनी बारमासीओ अथवा तो खेडूतनी बारमासी जेवा प्रकार मूळ लोकप्रिय स्वरूपनो पछीथी प्रचार के कौतुकना हेतुथी विनियोग थयो छे.' बारमासी स्वरूपनी रचनाओ मूळ तो लोकसाहित्यनां विरहिणी स्त्रीना मनोभावोनी मनोहारी रजूआतमांथी उद्भवी हशे. संस्कृत काव्य परंपराना 'ऋतुसंहार' अने For Private and Personal Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुतसागर - ३८-३९ 'मेघदूत' जेवां काव्यो आ दृष्टिए नोंधपात्र छे. धार्मिक परंपराओ आ लोकपरंपरानो पोतानी कृतिमां विनियोग कर्यो छे. १ ९ जैन परंपरामां जैन कविओए विरही युगल तरीके नेम- राजुल अने स्थूलिभद्रकोशाने केन्द्रस्थाने राख्या होवाथी बारमासा काव्यप्रकारमां स्वाभाविक रीते ज आ बन्ने पात्रो उपर कविजनोए काव्य रचनाओ करी छे. रायचंद्रसूरि बारमासा अने धर्मसूरि बारमासा जेवी बे-चार रचनाओने बाद करतां मोटा भागनी रचनाओ ( लगभग ५० ) आ युगलने अनुलक्षीने आलेखाई छे. तेमां पण नेमिनाथ विषयक बारमासाओ ज प्राधान्य स्थान भोगवे छे. पिप्पलकगच्छना हीराचंदसूरि अने तपगच्छना चंद्रविजय आ बे सर्जकना स्थूलिभद्र बारमासाओ उपलब्ध छे. अंचलगच्छना डुंगर स्वामीनी 'बारमासा कृति (सं. १५३५) मळी आवी छे, जे वि. सं. ५३३ वर्ष पूर्वनी छे. - भारतमां श्री अगरचंद नाहटाए राजस्थानीमां अने श्री शिवलाल जेसलपुराए गुजरातीमा बारमासा उपर संशोधन कर्तुं छे. विदेशमां पण बारमासा काव्यप्रकार पर संशोधन थयुं छे. तेमां रशियाना झबातिवेल, फ्रांसना शार्लोत वोदविल मुख्य छे. फ्रेंच भाषामा बारमासा साहित्य प्रकाशित थयुं छे. प्रस्तुत 'नेम राजुल बारमासा' अप्रकाशित कृति छे. प्रत्येक मासनी अंतिम कडीमां 'अमृत' नाम अभिप्रेत करेलुं छे. ते उपरथी अनुमान करी शकाय के प्रस्तुत कृति कोइ अमृत नामना श्रावक अथवा तो अमृतविजय नामना कोइ साधु कविनी होवी जोईए. अहीं गच्छ इत्यादिनो स्पष्ट उल्लेख जोवा मळतो नथी. कृतिना रचनावर्षना आधारे कर्तानो समय १९ मी सदीनो जाणी शकाय छे. डॉ. कविन शाहे 'ज्ञानतीर्थनी यात्रा' आ पुस्तकमां अमृतविजयजी (तपगच्छ) कृत 'नेमनाथ बारमासानुं स्तवन' (पृ. १६० थी १६४ ) मां प्रकाशित कर्तुं छे. ते कृति साथ आ कृतिने मेळवतां जणाय छे के बन्ने कृतिनो प्रारंभ, अंत अने मासनो प्रारंभ भिन्न-भिन्न छे तेथी कही शकाय के बन्ने कृतिओना कविओ एक जनाम धरावता होवा छतां जुदा-जुदा छे. तपगच्छना अमृतविजयजीए ३५ कडीओमां, बे देशी, दुहा, ढाळ अने अंते कलशमां काव्यनी गूंथणी करी छे. तेनो प्रारंभ 'समुरंमाता सारदा'.... अने अंत 'वर्णव्या में नेम - राजुल ... थी थयो छे. For Private and Personal Use Only १. प्राचीन मध्यकालीन बारमासा संग्रह, सं. शिवलाल जेसलपुरा, प्र. नरेन्द्र जेसलपुरा, प्रथम आवृत्ति १९७४ पृ. १३३ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १० मार्च-अप्रैल - २०१४ प्रस्तुत अभ्यासनी कृतिनो प्रारंभ 'यदुपति जान लइने आव्या... ए प्रमाणे कहीं कविए त्रिषष्ठी शलाका पुरुष चरित्र भाग-८ नी कथानो पातळो दोर खेच्यो छे. ४१ कडीओमां विस्तृत ढाल अने विविध देशीओथी गूंथायेल आ काव्यनी पूर्णाहूति समस्या-उखाणानी शैलीथी थाय छे. __ रचना साल : 'सीलंग रथ काउसग्गना रे, भेदथी वर्ष जाणज्यो' (क, ४१,६) सीलंग रथ : १८०००, द्रव्य कायोत्सर्गना : ४ भेद (गण, शरीर, उपधि, अशुभ भक्तपान व्युत्सर्ग) अने भाव कायोत्सर्गना : ३ भेद (कषाय, भव, कर्मव्युत्सर्ग) छे. तेथी १८४० अथवा १८३० आ कृतिनो समय गणी शकाय. नाम : आ बारमासा काव्यनुं शीर्षक कथावस्तु के नायक-नायिकाना नाम परथी छे. शैली : काव्यनी शैली सरळ, गंभीर अने मनोहारी छे. छंदोबद्ध रचना छे. काव्यमां शब्दालंकार, अर्थालंकार, यमक, उपमा, उत्प्रेक्षा जेवा अलंकारो छुटाछवाया वीखरायेलां छे. प्रत परिचय : प्रस्तुत बारमासानी हस्तप्रत आचार्य श्री कैलारासागरसूरि ज्ञानमंदिर, कोबाथी प्राप्त थइ छे. प्रत नं. ३६२९३ नी प्रतनुं परिमाण २५ X १२ छे. अने आशरे ४० थी ४२ जेटला अक्षरो आलेखाया छे. उपदेश तत्त्व : काव्यना माध्यमथी कवि पत्नीधर्म, पतिधर्म अने अध्यात्मधर्म समजावे छे. शील, सदाचार अने अहिंसानो तेम ज पशुत्वमाथी परमात्मा तरफ जवानो भाव पण निहित छे. प्रयोजन : आ बारमासा काव्य अनुरागना भावोने व्यक्त करे छे. परंतु अंते कवि अनुरक्तिमांथी विरक्ति तरफ दोरी जाय छे. रागमाथी विरागमा प्रवेशवं, लौकिकमांथी लोकोत्तरमा प्रवेश, ए ज जीवननी सार्थकता छे. __कथा घटक : प्रस्तुत बारमासानी कथावस्तु 'त्रिषष्ठी शलाका पुरुष चरित्र' पर्व-८नी छे. बावीसमां तीर्थंकर नेमिनाथ जीवनमा घटेली घटना पर आधारित कथानक, माळखू लई कविए कल्पनाशक्तिथी भावात्मक काव्य सर्जन कर्यु छे. माता शिवादेवी अने पिता समुद्रविजयना पुत्र नेमिकुमारे यौवनवयमा प्रवेश कॉ. श्रीकृष्णना कहेवाथी तेमनी राणीओए नेमिकुमारने लग्न माटे समजाव्या. घणी मुश्केलीए राणीओए मौनने ज संमति गणी श्रीकृष्णने वधामणी आपी. तरत ज जोषीओने तेडाव्या, मुहूर्त विना पराणे मुहूर्त कढावी श्रीकृष्ण नेमिकुमारने For Private and Personal Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ११ श्रुतसागर - ३८-३९ वरघोडे चडाव्या. वरघोडो उग्रसेन राजाने त्यां आव्यो. लग्न निमित्ते वाडामां पुरायेला पशुओनो चित्कार सांभळी दयाळु नेमिकुमारनुं हृदय द्रवी उठ्यु. जीवदया प्रेमी नेमिकुमारे तरत ज रथ पाछो वाळ्यो. वैरागी नेमिकुमार गिरनार चाल्या गया. त्यारे प्रियतमा राजुलना हृदय पर वज्रपात थयो. प्रियतमथी त्यजायेली नायिका राजुलनी विरहावस्था अने वेदनाने आ बारमासामां कविए वाचा आपी छे. कात्य परिचय : यादववंशना श्यामवर्णना कामदेव जेवा सौंदर्यवान नेमिकुमारे राजुलनुं चित्तडूं चोरी लीवू. नव नव भवनी प्रीतडी पलक वारमां तूटी जतां नायिकानुं नानकडु हृदय अवनवा प्रश्नोथी घेरायं. 'शं थयुं हशे? तोरणेथी रथ पाछो वाळ्यो! शुं मारामां कोइ अवगुण देखायो?' पोताना प्रीयतमने पाछा बोलाववा राजुल पथिको द्वारा संदेशो आपता कहे छे : ‘सुंणी पसु पोकार पीउ नाव्या रे, एह संदेशो जइ केज्यो; तोरणेथी रथने व्याल्यो, स्यो अवगुण मुझमां भाळ्यो? अडभवनो प्रेम न किम पाल्यो रे?' (क. १.२) उत्तम गनुष्योनी अविचल टेक अने नीतिशास्त्रनो नियम शास्त्रज्ञ प्रियतमा बतावता कहे छे : 'सज्जनो जेनो एकवार हाथ झालें छे तेने कदी छोडता नथी. तमे उत्तम होवा छतां घरे आवीने बारणेथी पाछा वळ्या?' अहीं नायिका आडकतरी रीते पतिधर्म निभाववानुं सूचन प्रियतमने करे छे. तपगच्छना अमृतविजयजीए लखेल 'नेमनाथ बारमासानुं स्तवन'मां श्रावण मासने प्रथम गणी काव्य वर्णननो कविए प्रारंभ कर्यो छे. सामान्य रीते जोईए तो श्रावण सुद-६ना दिवसे नेमिकुमार जान लइ परणवा आव्या अने ते ज दिवसे परण्या विना ज पाछा फर्या. आ घटनाने अनुलक्षीने ज कविश्रीए पोतानी कृतिमां श्रावणमासने प्रथम स्थान आप्युं छे. ___ ज्यारे प्रस्तुत कृतिमा मागसर मासथी काव्य वर्णननो प्रारंभ करवामां आव्यो छे. गीतामा पण श्रीकृष्णे कर्तुं छे : 'हुँ महिनामा मागसर छु. संभव छे के कविना मनमां गीतानो प्रभाव होय तेथी अथवा चातुर्मास पछीना प्रथम महिनाथी काव्यनो प्रारंभ करवा मांगता होय. शामळिया श्रीकृष्णे गोपीओनुं चित्त चोरी ली, हाँ, तेम राजुलनु चित्त अने प्राण शामळिया नेभिकुमारे चोरी लीधां हतां. निष्प्राण अने नीरस खोळीया वडे आखो जन्मारो वीताववो असह्य थतां प्रियतमा उपालंभ आपी प्रियतमने फूंदाना For Private and Personal Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १२ दृष्टांत द्वारा अविचारी कार्य न करवानुं सूचन करे छे. 'छटकी छेह इम नवी दीजै, फुंदि परें किम कुदीजै ? अबला एहं नवी कीजे रे, एह संदेशो जई केज्यो ||५|| 'दीवानी ज्योत पर पतंगियुं वगर विचार्ये कूदी पड़े छे, तेम तमे पण प्रियतमानो विचार कर्या विना ज तेने एकली छोडी योगी बनी चाल्या गया?' मार्च-अप्रैल २०१४ मागसर : मागसर मासमां नायिका अविचारी पगलुं न भरवानुं सूचन करे छे. त्यार पछी पोतानी भूलो (दोष) दर्शाववानी विनंती करी नम्रता दाखवे छे जेथी नेमजी वचन पाळीने शीघ्र घरे पाछा फरे. - पोष : पोष महिनो एटले शिशिरऋतु आ ऋतुमां कामिनी पोताना कंत साथे विविध क्रीडाओ करी यौवनरसने माणे छे. तेवा टाणे प्रियतमनुं पोतानाथी दूर रहेवुं ते प्रियतमाने खूब आकरुं लागे छे. शीतकाळे प्रियतमा पोताना प्रियतमने शरीरनी संभाळ राखवानुं सूचन करी पत्नीधर्म बजावे छे. 'ए दिन काया पोषइ, तप करी तनू नवी शोषइ ।1 (मास - २, क. २) पोष मासनी सखत ठंडीथी रक्षण मेळववा लोको मेवा-मीठाइ जेवा पौष्टिक आहार ग्रहण करी तननुं पोषण करे छे, तेवा समये उपवास इत्यादि तप करीने प्रियतमना तनने सुकवी नाखचुं प्रियतमाने बिलकुल रुचतुं नथी. लोकव्यवहारमां आजे पण शिशिर ऋतुमां सूकामेवा, अडदीया, खजूरपाक, गुंदरपाक जेवा पकवानो खवाय छे. अहीं ते समयनी खान-पान विगेरे लोकजीवननी शैलीनो बोध मेळवी शकाय छे. महा : महा महिनामां शीतळता अनुभवाय छे. शियाळानी लांबी लांबी रात्रिओ विरहिणी स्त्रीने वरस जेटली लांबी लागे छे. रात्रिना समये विरहानलना कारणे आ नेत्रो बीडातां नथी अर्थात् नायिकानी उंघ वेरण बनी छे. 'नाह विण माहनी रेण, किमही न जाइ रे, तलपणां अणमिष नेण, वरस सो थाइ रे ।। ( मास-३, क. १) For Private and Personal Use Only उपरोक्त पंक्तिओमां नायिकानी विरह वेदना अत्यंत वृद्धि पानी छे, पोताना वालेश्वरने संदेशो आपतां कहे छे : 'तमे घरे आवी षट्सयुक्त भोजन आरोगो तेमज नवसेर वाळो हार पहेरो शीतऋतुमां सजावेली शय्या पण सूनी पडी छे. हे प्रितम ! तमे जल्दी घरे आवो ।। (क. २) प्रियतमा कागडोळे प्रियतमनी वाट जुवे छे. लोकपरंपरामां पण शीतकाळे Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुतसागर - ३८-३९ वातावरणमां ठंडक होवाथी शरीरनो शणगार अने किंमती वस्त्रो पहेरवा गमे छे. फागण : फागणमासमां शब्दानुप्रास अलंकार प्रयोजी कवि वसंतना विविध वर्णनो करे छे. फागुण मासे कंत, जो होइ संगे रे, लाल गुलाल वसंत, खेलीइ रंगे रे। भोली टोली भोर, सरखें साथे रे, होली रमई जोर, हाथो हाथें रे... ||१|| आ कडीओ एक बाजु आपणी फागुनी ऋतुवर्णननी परंपरा साथे संकळाय छे, तो साथे ज व्रजभाषानी परंपरानुं अनुसंधान पण जोवा मळे छे. रंग अबीलगुलाल फाग खेलतां नर-नारीओने जोइ राजुलने नेमिकुमारनी याद सतावे छे. प्रियतमाने पर्वना दिवसो प्रियतम विना पसार करवां कपरां थइ पडे छे. चैत्र : कविए चैत्रनुं प्राकृतिक अने विरहिणी नायिकानी मनोव्यथानुं मार्मिक वर्णन कर्यु छे. चैत्रे तरुवर पलटाइजी, चीत्रीत फुली वनरायजी; सवी कुसुमलता महकायजी, रणझण मधुकर गुणगायजी...।।१।। आ एह वखतमा कंतजी, घरे आवीने जुओ वसंतजी, तोरी हृदयकमल विकसंतजी, जो चंद चकोर देखंतजी...।।२।। चैत्र मासमां वृक्षोना पीळा पांदडाओ खरी पडे छे. नवी कंपळो फटी नीकळे छे. वृक्ष लीलाछम देखाय छ, अर्थात् वृक्षनी कायापलट थाय छे. चारे तरफ वनराजी खीली उठे छे. कुसुमलता सर्वत्र महेकी उठे छे. तेनी सुगंधथी प्रेराइने भ्रमरो रणझण नाद करी मधुर गीतो गाय छे. सर्वत्र खुशनुमा वातावरण छे. प्रकृतिमा मादकता प्रसरेली छे त्यारे चंद्रने जोइने जेम चकोर, 'तेम प्रियतमने जोइने मुरझायेली प्रियतमा पुलकित थाय, परंतु अफसोस! प्रियतम घरे नथी. कविए अहीं चंद्रने प्रियतम अने चकोरने प्रियतमानी उपमा आपी छे. वैशाख : वैशाख एटले ग्रीष्मऋतु. आ ऋतुमां शेरडी अने आंबानो मबलक पाक थाय छे. प्रियतमा मधुरा फळोनो आस्वाद करवा पोताना प्रियतमने निमंत्रण पाठवे छे. For Private and Personal Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १४ मार्च-अप्रैल - २०१४ 'खंड करी आफू अभिलाषजी, प्राणेसर रस भरी चाखोजी' ...||१|| अहीं प्रियतमा द्वारा चाकरी अने पतिभक्तिनो भाव प्रदर्शित थयो छे. प्रियतमा राजुल तळपदी दृष्टांतो द्वारा पोताना प्रियतमने भवोभवना स्नेहनुं स्मरण करावे नव नव भवनो प्रेम किम करी, चूकावो चतुर चित्त लहिइ, उत्तमना तिम छे प्यारजी, जलमां जिम तेलनी धारजी, आथमति छांहडी सारजी, ते तो वड जेटले विस्तारजी (मास-६, क. २) हे चतुर! आपणी नव नव भवनी लांबी प्रीतडीने केम भूलो छो? तमे चित्तमां अवधारो. सूर्यास्त समयनो पडछायो अने जळमां रहेलुं तेल सदा व्यापीने ज रहे छे, तेम उत्तम पुरुषोनो प्रेम क्षणिक न होतां अखंड होय छे. कविश्रीए नायिकाने अहीं शास्त्रज्ञ, समजु अने पतिव्रता चित्रित करी छे. योगी थयेला प्रियतमने प्रियतमा समाज व्यवस्था बतावे छे, जेमां वैदिक धर्मना ब्रह्मचर्याश्रम, गृहस्थाश्रम, वानप्रस्थाश्रम अने सन्यासाश्रम आ चार आश्रमना भावनो संकेत रहेलो छे. बालक वय भणवा जोगजी, जोवन वये वीलसें भोगजी, वृद्धपणे पाले जोगजी, कहे 'अमृत' अचल अमोघजी (मास-६, क.३) बाल्यवयमा विद्याभ्यास करवो, यौवनवये लग्न करी गृहस्थाश्रममा प्रवेश करवो, गृहस्थाश्रममा रही संन्यासनी तैयारी करवी ते वानप्रस्थाश्रग अने अंते योगी बनवू ते संन्यासाश्रम छे. दरेकनो २५-२५ वर्षनो रामय छे. कविए वैदिक परंपराने अनुसारे गायिकाना भावोने अभिव्यंजित कर्या छे. जेठ : जेठमासनु वर्णन अत्यंत लाक्षणिक छे. ग्रीष्मऋतुमां प्रचुर ताप होय छे. त्यारे वृक्षनी छाया शीतळता बक्षे छे. आ छाया अळगी होवा छतां वळगीने बाथ भीडे छे त्यारे ताप, शमन करे छे. प्रियतमा पोताना प्रियतमने नाम लइने न बोलावतां समुद्रविजयना पुत्र, शामळिया, प्राणजीवन, पातळिया जेवा संबोधनो प्रयोजे छे. व्रजमा राधाए श्रीकृष्ण माटे शामळिया, पातळिया, जशोदानंदन, जेवा शब्दप्रयोगो कर्यां हता. एवा ज केटलांक भाव अने स्नेह स्निग्ध संबोधनोथी राजुलनां हृदयगत भावोने वाचा आपी अषाढ : आ अषाढ मास आव्यो. अषाढना वर्णनमा कविनो तळपदी गुजराती For Private and Personal Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुतसागर ३८-३९ लय टहुको संभळाय छे. 'चिहुं दिशें घनघोर मचावी हो, वीरह न वधारो नाहलीया, गयण धडूके वरसे धारा, आ दादुर मोर किंगारा हो, झबझब झबके चपला चमकारा, आ अबलानें कौंण आधारा' ।। ( मास - ८, क. १, २) अषाढ मास एटले वर्षाकाळ. आकाश घनघोर वादळोथी आच्छादित थयुं छे. वादळ गर्जना करे छे, वीजळी चमकारा करे छे, चारे बाजु देडका, मोर अने सारंगीना अवाज संभळाय छे त्यारे प्रियतमाने शिवादेवीना पुत्र नेमिकुमारनी अनहद याद आवे छे. १५ अचानक प्राकृतिक तत्त्वामां आवेला परिवर्तनथी प्रियतमा भयभीत बने छे. तेवा समये ते पोताना प्रियतमनी ओथ इच्छे छे. सामान्य रीते वैशाख अने जेठ मासनी प्रखर उष्णताने ठारवा वर्षानुं आगमन सुखद वर्ताय छे परंतु विरहिणी स्त्रीना हृदयमां कुदरती तत्त्वो विरहनी वेदना वधारे छे. प्रियतमा वलवलतां आक्रोश करतां कहे छे : 'कोई भवनुं वैर संभाली, आ दुःखमां डारी ?' ।। (मास-८, क. ३) श्रावण : श्रावण मासमां मेघ सरवडानी जेम अचानक वरसीने चाल्यो जाय छे. ( मास - ९, क. १) श्रावणनां सरवडांने विप्रलंभ शृंगारना विरहिणी स्त्रीनी अश्रुधारा अने परणेतरनुं अचानक आवीने चाल्या जवा साथे अपूर्व संयोजन जोई शकाय छे. प्रियतमा पोताना प्रियतमने वरणागी थवानुं सचोट कारण कहे छे : 'हरीतांबर वसुधा धरें, जलधर सुंदर संग, नीसनेहि थइइ नहीं, कीजे वलणो ढंग' ।। (मास - ९, क. २ ) वर्षाना संग वसुधा हरितांबर धारण करे छे. धसमसती नदीओना जळप्रवाहथी समुद्र पण छलकाय छे, तेम प्रियतम अने प्रियतमाना मिलनथी पूर्णता प्राप्त थशे वो भाव अहीं व्यक्त थयो छे. For Private and Personal Use Only भादरवो: भादरवा महिनामां सांबेलाना धारे वरसाद वरसे छे तेथी नदी, वाव इत्यादि जळराशिथी छलकाय छे. अर्थात् प्रियतमाना हृदयमां प्रेमरसनी तलप जागी छे. परंतु समुद्रविजयना नंदन घरमां नथी त्यारे प्रियतमा दुःखी थतां कहे छे : Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra १६ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मार्च-अप्रैल २०१४ 'किम करी राखूं हो प्राण' ।1 ( मास- १०, क.१) अहीं विरह वेदनानी तीव्रता सभर अभिव्यक्ति करी छे. हारेली, थाकेली, असहाय प्रियतमा अन्य कोई उपाय न जडतां भविष्यवाणी जाणवा ज्योतिष पासे आवे छे. पूर्वे सारा के माठा प्रसंगे समाजमां भविष्यकथन व्यापक रीते प्रचलित हशे, तेचुं अहीं स्पष्ट थाय छे. आसो : प्रियतमनी राह जोता आसो मास आवी गयो. 'आ मासमां प्रियतम पाछा फरशे एवं लागतुं नथी तेथी पियुमिलननी आशा सेववी व्यर्थ छे,' एवं प्रियतमा कहे छे. आसो मास एटले दिवाळी पर्वना दिवसो. आ दिवसोमां वेपारी वर्ग व्यापारमां व्यस्त होय. परदेश कमावा गयेला दिवाळी पछी धन प्राप्त करीने घरे पाछा फरे छे. तेथी आसो मासमां प्रियतम पाछा फरशे एवी लोकपरंपरामां आशा बंधाती नथी, एवो भाव अहीं कविश्री नायिकाना मनोविचार द्वारा प्रगट करता होय तेवुं लागे छे. नायिका पथिकाने संदेशवाहक तरीके स्थापित करी संदेशो मोकले छे. 'वीछडीयां हरणां जसी रे, तिम अबला नित झूरे' ।। अहीं विरहिणी स्त्रीनी विरह वेदनानुं सचोट वर्णन जोवा गळे छे. दिवाळी पर्वना दहाडा प्रियतम संगे भामिनीने सुखदायक अने आह्लादक लागे छे. आसोमासमां प्रकृतिनुं जे निरीक्षण छे ते परंपराने अनुरूप छे. नीर सरोवर निरसयां रे, थयो हवे मार्गे सुधिलाल, अवसर आव्यानो थयो रे, रहि हुं आस विलूधी लाल ।। ( मास-११, क. ३) For Private and Personal Use Only वरसाद चाल्यो जतां छलकातां सरोवरनां पाणी ओसरी जाय छे. अर्थात् नीर नवाणमां चाल्या जवाथी आववा जवानो पंथ अनुकूल (शुद्ध) थयो छे. प्रियतमने आववानो अवसर (समय) थवाथी प्रियतमा विलुब्ध (आसक्त) रहे छे. प्रियतमना आगमननो अवसर थतां प्रियतमा शृंगार करे छे. 'नवसत भूषण राज करी रे, प्रीतम पंथने जोती लाल, ' ।। ( मारा-११, क. ४) प्रियतमा (नव + सात- = सोळ) १६ प्रकारना विविध शृंगार करी पोताना प्रियतम समक्ष जवा मांगे छे, जेथी प्रियतम तेने पोतानी बनावे. अहीं प्रियतमा पोताना प्रियतमनुं मन रीझवी स्वयं भाग्यशाळी बनवा मांगे छे. अहीं स्त्रीओना विविध शृंगारो अंगेनो संकेत पण थयो छे. कार्तिक : कार्तिक मासमां कवि प्रकृतिनुं वर्णन अने विप्रलंभ शृंगारना Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुतसागर - ३८-३९ प्रयोजनने विराम आपी नायिकानी स्थिर मनोदशा पर आलेखन करे छे. कार्तिक मासि ते कांमनी रे, राती ताती थई संगे लाल, आतिम रामनी सेवना रे, नीरखी मुझमन उलसे रे, प्रीतम सेवामें रंगे लाल... 11911 प्रियतमाए हवे प्रियतगनी चिंता छोडी दीधी. ते उल्लासपूर्वक भगवान नेमिनाथनी सेवामा मग्न बनी गई. अर्थात् राजुले श्रमण धर्म स्वीकार्यो. अहीं विरहथी उपालंभ उत्पन्न थाय छे. उपालंभमांथी करुणाभाव प्रगट थाय छे. १७ बारमासाना वर्णन बाद आश्चर्य उपजावे तेवी घटना बनी राजुलने प्रियमिलननी कोई आशा न देखाइ कारण के नेमिकुमार योगी बनी गया हता. हवे तो जे रस्ते पति चाल्या ते रस्ते ज पोते चालवु एवं राजुले नक्की करी लीधुं. राजुले वासना उपर विजय मेळव्यो. अहीं पति-परायण स्त्रीनी लाक्षणिकता राजुलना पात्र द्वारा कवि प्रगट करे छे. शीलपालननी चुस्तता, स्वप्नभां पण अन्य पुरुषने न स्वीकारवानी मनोदशा ते काळनी स्त्रीओमां राजुलना पात्र द्वारा प्रगट थाय छे. रामचंद्रजी साथ सीता वनमां गया, हरिश्चंद्र साथै तारामती राणीए राजपाट छोड्, नळराजा साथै दमयंती वनना दारुण दुःखो सहन करवा तैयार थयां आ युगनी मांगने जाणीने ज 'अमृतविजयजी 'ए त्याग, वैराग्य अने धर्मनो उपदेश समावी आ बारमासानी रचना करी छे. राजुलना दीक्षित थवाना समाचार सांभळी भगवान नेमिनाथ (प्रियतम) आसो मारामां संदेशो मोकलावे छे : 'बाधक कारण जिहां नहीं रे, भोग्य अनंत विलासी ... ।।२।। साधक साधन ताव रे, अक्षय अकीड वासो लाल, परमानंद जिहां नहीं रे, नहि विकल्प प्रयासो लाल... । । ३ । । वस्तु स्वरूप स्वभावथी रे, देखी निज परधानें लाल, तेह मंदिरमां आवज्यो रे, मलसूं तव एकताने लाल...।।४।।' For Private and Personal Use Only ज्यां बाधक (अंतराय) कारण नथी, ज्यां साध्य-साधन भेद नथी, ज्यां अनंतकाळ सुधी अविनाशी सुखने महालवानुं छे, ज्यां परम आनंद छे, दुःखनुं नामोनिशान नथी, ज्यां संकल्प-विकल्प ( मोहनाशथी ) कोइ अवकाश नथी, ज्यां पोताना मूळ स्वभावमां (ज्ञाता-दृष्टाभावमां) अनंतकाळ सुधी रहेवानुं छे. ज्यां स्वथी स्वने निहाळवानुं Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मार्च-अप्रैल - २०१४ छे. एवा स्वघरमां आपणे मळशुं त्यारे एकमेकमां समाइ जशुं.' अहीं नेमिनाथ राजुलने स्थिरभावना मंदिरमा प्रवेशवानो संदेशो मोकलावे छे. स्वमा स्थिर थया विना सिद्धि नथी तेवो कविश्री नेमनाथ भगवानना पात्र द्वारा उपदेश आपे छे. कवि लौकिक भावोने छोडी लोकोत्तर भावो तरफ वळे छे. शृंगार रसने छोडी वीररस के शांतरसनो स्पर्श करे छे. कवि वासनाना उभारने विवेकथी शांत करी वैराग्यमां लई जाय छे, 'नेम-राजुल बीहुँ मलीयां रे, पाम्या सुख अनंता लाल, सुधातम गुंण नीपना रे, नीज नीज पद वीलसंता लाल'...(५) अंते नेमनाथ भगवान अने राजुल बन्ने सिद्धगतिना सोपानो चढी सिद्धालयमा अनंत सिद्धोनी वसाहतमां भळी गया. तेओ अनंतकाळ सुधी अनंत सुखोना स्वामी बन्या. तेमणे आत्माना ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य जेवा गुणो प्राप्त कर्या. तेओ स्व स्वभावमां सदा रत रहे छे. पोताना सिद्धस्वरूपने सादि अनंत भागे विलसी रह्या छे. अंतिम कडीमां कवि काव्यर्नु रचना वर्ष समस्या (उखाणा)मां आलेखे छे. कवि ऋषभदास, कवि वीरविजयजी, कवि लावण्यसमय, कवि समयसुंदर आदि घणा मध्यकालीन कविओए आ परंपराने अपनावी छे. कवि अमृतविजयजी पण ते परंपराने अनुसरे छे. प्रस्तुत बारमासाना अंतमां लखेला विवेक पदथी कर्ताए पोताना सद्गुरुर्नु नाम अने त्यारबाद पोतानुं नाम काव्यना कर्ता तरीके प्रयोज्युं छे, जै. गू. क. भाग ६मां १३१२ नं. उपर प्रस्तुत अमृत विजयजीनी बे जेटली ज कृतिओ नोंधायेली जोवा मळे छे. परंतु ए सिवाय पण एमणे नेमिजिन रतवन, शत्रुजयतीर्थमाला स्तवन, पार्श्वजिन विवाहलो, सदयवच्छराज रास, सम्मेतशिखरतीर्थ स्तवन विगेरे १५थी वधारे रचनाओ मध्यकालीन साहित्यने अपी छे. ज्ञानमंदिरमा संगृहित प्रत नं. ५७६१०मां मळती प्रतिलेखन पुष्पिका अनुसार पार्श्वनाथ विवाहलानी प्रत अमृतविजयजी म. सा. ना शिष्य रंगविजयजी महाराजे लखी होवानो उल्लेख आपे छे. ए सिवाय एमना संबंधमां विशेष कांई जणायुं नथी. प्रस्तुत कृतिमां व्रजभाषानी काव्य परंपराना प्रबळ संस्कारो देखाय छे. जैन कवि होवाथी पोतानी मर्यादाने कारणे कविए नेम-राजुल जेवां पात्रोने केन्द्रमां राखी लौकिक शृंगारनी पण अभिव्यक्ति करी छे. प्रस्तुत बारमासामा अंते सिद्धस्वरूपर्नु वर्णन छे. ते सिवाय भाग्ये ज जैनधर्मनी कोई संज्ञाओ प्रयोजायेली होय तेथी आ जाणे शृंगारर्नु ज साद्यंत काव्य होय तेवी अनुभूति थाय छे. For Private and Personal Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अमृतविजयजी कृत नेम-राजुल बारमासा ||१|| ।। ढाळ : गधुकर माधवनें कहेग्यो ए देशी ।। जदुपति जान लेइ आव्या, राजिमति चित्तमां भाव्यां । सुंणी पसु पोकार पीउ नाव्या रे, एह संदेशो जई केज्यो तोरणथी रथने व्याल्यो, स्यो अवगुण मुझमां भाल्यो।। अडभवनो प्रेम न किम पाल्यो रे, एह संदेशो जई केज्यो प्रीत उत्तमनी इम लहिइं, निज मेलावो निरवहिइं। घरि आवीने कहो किम जईइ एह संदेशो जई केज्यो |२|| ।।३।। मास :१ ||४|| माननी मन मृगशिर मासे, प्राण रह्या प्रीतम पासे। कहो किम रहेंवाइ ए घरवासें? एह संदेशो जई केज्यो छटकी छेह इंम नवी दीजें, फुदि परें किम कुदीजें । अबलासुं एहवू नवि कीजें रे, एह संदेशो जई केज्यो एवडी दुहवणसुं राखो, दोष होइं ते मझ दाखो। घरि आवि अमृत रस चाखो रे, एह संदेशो जई केज्यो ||५|| ।६।। मास : २ ।।१।। ||२|| पोसें रोस करो स्यानें, निगण निहाजा नवि माने । समझावो तम स्यूं हठ ताणें रे, सुगुण संदेशो जइ कहेज्यो ए दिन काया पोसीइ, तप करी तनू नवि सोसीइ। आ अवसर आवी घरि वसीइं रे, सुगुण संदेशो जइ कहेज्यो कामनी कंथ करें केली, रंगसुरंगा रस भेली। ते टांणे वसीइं जई वनवेली रे. सुगुण संदेशो जइ कहेज्यो नाह निठुर मेली वासें, कहें अमृत हवे कुंण पासें। आ अबलानी सी गति थासें रे, सुगुण संदेशो जइ कहेज्यो |३|| ।।४।। For Private and Personal Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २० मार्च-अप्रैल - २०१४ || कारतिक मासें कंत गेली चाल्या रे ए देशी ।। मास:३ नाह विण माहनी रेंण, किम हि न जाइ रे। तल पतां अणमिष नेण, वरस सो थाई रे, रसवती षट रस सार, भोजन केरी रे। नवरस(सर) मुगताहार, भावो भलेरी रे तरुणी तेल तंबोल, अमृत रस पीजें रे। सीत्त सजाइस्यूं, बोल सीत गमी जे रे, विरहानल मझ एम, अधिक संतापे रे। केंहेंज्यो वालेसर एम, प्रीउ घेर आवे रे ||१|| 1॥२। मास : ४ ||१|| फागुण मासे कंत, जो होइं संगे रे। लाल गुलाल वसंत, खेलीइं रंगे रे, भोली टोली भोर, सरखें साथे रे। होली रमीइं जोर, हाथो-हाथें रे झोली भरी झूझार, अबीरनी आलिं रे। कंत वीछोहि नारि, ए दिन सालें रे, वीसरांमी केहेज्यो ए, वहेला घरे आवे रे | अमृत वयणे जेम, राजुल मना रे 11२। मास : ५ चैत्रे तरुवर पलट्ठाइंजी, चीत्रीत फुली वनराय जी।। सदी कुसम लता महकायजी, रणझण मधुकर गुणराय जी, घर आवी नेम रुठडी राजुल, मनावो सहि एक वेला। अलवेसर एम घj घणुं सुरे, कहावो मीत हमेरा ||१।। (आंकणी) आ एह वखतमा कंतजी, घरें आवीने जुओ वसंतजी। तोरी दयकमल विकसंत जी, जे(ज्यु) चंद चकोर देखंत जी घर आवी नेम ||२|| For Private and Personal Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुतसागर - ३८-३९ २१ एह विनंति चित्त हजुरजी, लहें चतुर अमृत रसपूरजी। नवि वीती हसें तस दुर जी, स्यूं जाणे मुरख भुरजी घर आची नेम ।।३।। मास :६ |१|| वैशाखें पाकी द्राषजी, अति पाकी आंबा साखजी। खंड करी आफू अभिलाषजी, प्राणेसर रस भरी चाखोजी करुणा करी नेम एकवार, मंदिर आवो घणुं स्युं कहिइं। नव भवनो प्रेम किम करी, चूकावो चतुर चित्त लहिइं. उत्तगना तेम छे प्यारजी, जलमां जिम तेलनी धार जी। आथमति छांहडी सारजी, ते तो वड जेटले विस्तार जी बालकवय भणवा जोगजी, जोवन वयें विलसें भोग जी। वृद्धपणे पालें जोगजी, कहें अमृत अचल अमोधजी || नंद कुंयर वर नानडीआ ए देशी ।। |२|| ||३11 मास : ७ लावा ||१|| हवें जेठे भेठी थइ छाहिं, आ अलगी वलगी बांहिं हो। समुद्रविजय सुत सामलीआ, आरांम अनोपम वन जईइ, उछाहिं रमीई वीसमीइं हो, प्राणजीवन वर पातिलीया भरीओ सीतल खंडोखलीओ, मांहि सुरभी कुसुम रंगे भलिओ हो। उपगारी आवी इहां झीलो, राणी राजुलनां दुःख पीलो हो ।२।। अति झाझुंस्युं रे कहावो, सुं माननीने तरसावो हो । चतुर कलीत अवसर परखो, भरी अमृत निजरे निरखो हो ।।३।। मास :८ आ असाढ चढ्यो आवी, चिहुं दिशें घनघोर मचावी हो। वीरह न वधारो नाहलीआ, मंदिर आवो सीवादेवी नंदना (आंचली) कां थाओ कठोर ते मननाहो, तुम विण न गमे नाहलीआ गयण धडूके वरसें धारा, आ दादुरमोर किंगारा हो। झवझब झबके चपला चमकारा, आ अबलाने कौंण आधारा हो ||१|| |२|| For Private and Personal Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra २२ www.kobatirth.org मास : ९ कोइ भवनुं वैर संभाली, आ दुख दरीआमां डारी हो । हितकर मझ विनति सुंणावो, जइ अमृत वयणें मनावो हो || जड़ने केज्यो भारा वालाजी रे ए देशी ।। श्रावण श्रवणेने सुण्यो हितकारीजी रे । सरवडीयें वरसंत, जइने केज्यो प्रीतमजीनें रे... (आंचली) प्रीउ जोवानें टगमगें, नयणे निर झरंत जइ भारे गाजें भाद्रवो, घरि आवो जी रे । भरीयां नदीये नीवांण, वेहला आवो प्राणेसरजी रे, समुद्रविजय घरें सुत नहीं घरि आवोजी रे । किम करी राखूं हो प्राणेसरजी रे Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir खान पान वसते करूं हितकारीजी मनगमता हो सिणगार जइ । कहें अमृत वालिम घरें नही ही. लेखें नही अवतार जइ मास : १० चंद्रादिक ग्रह जाणती घरि आवोजी रे । जोसीडें पुछती हो जोस, रमतां कांता किम मलें घरि आवोजी रे । अमृत रसना हो धांम मार्च-अप्रैल २०१४ 11 ettet deuriat etset è v delt 11 मास : ११ आसोई आस्या जग दोहिली रे, जस होइं वालिम संगे लाल । केज्यो संदेस्यो ए पंथीया रे, वीछडीआं हरणां जसी रे, तिम अबला नित झूरे लाल केज्यो संदेस्यो For Private and Personal Use Only 113 11 ।।२।। ।।३।। 119 11 ।।२।। ।।१।। रंग सूरंगी साहेलडी रे, खेलती प्रीतम संगे लाल केज्यो संदेस्यो । आदिवालीना दिहडा रे, आव्यो सुखभर संगे लाल केज्यो संदेस्यो । । २ । । Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २३ श्रुतसागर - ३८-३९ नीर सरोवर निसरयां रे, थयो हवें मार्गे सुधि लाल केज्यो संदेस्यो। अवसर आव्यानो ए थयो रे, रहि हुं आस विलूधी लाल केज्यो संदेस्यो ।।३।। नवसत भूषण सज करी रे, प्रीतम पंथनें जोती लाल केज्यो संदेस्यो। कहे अगृत करुण करी रे, राजुल कीजें पनोती लाल केज्यो संदेस्यो ।।४।। मास : १२ कार्ति(क)इं मासि ते कामनी रे, राती ताती थइ संगे लाल | आतिमरामनी रोवना रे, नीरखी मुझ मन उलसें रे, प्रीतम सेवामें रंगे लाल आतिमरामनी 119 एहवा गुंणीइ संदेसडा रे, प्रीय नेमीश्वर भासी लाल । बाधक कारण जिहां नहीं रे, भोग्य अनंतविलासी लाल ।।२।। आतिमरामनी सेवना रे... साधक साधनता वरेरे, अक्षयअक्रीडवासो लाल। परगानंद जिहां नहीं रे, नहि विकल्प प्रयासो लाल ।।३।। आतिमरामनी सेवना रे... वरतु स्वरूप स्वभावथी रे, देखी निज परधान लाल । रोह मंदिरमांहिं आवज्यो रे, मलसूं तल एकतांने लाल ||४|| आतिमरामनी सेवना रे... नेम राजुल बीहं मली रे, पाम्यां सुख अनंता लाल। सुधातम गुंण नीपना रे, निज निज पद विलसंता लाल आतिमरामनी सेवना रे... सीलंग रथ काउसगना रे, भेदथी वर्ष गणज्यो लाल। एह वीवेक संदेसडो रे, कहें अमृत नीत भणज्यो लाल ||६|| आतिमरामनी सेवना रे.... ।। इति श्री नेम-राजुल द्वादसमास समाप्त || संवत १८७४ना वर्षे आसाढ वदि - १३ दिने लिपीकृतं For Private and Personal Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कवि ऋषभदासकृत धुलेवाजी बारमासा डॉ. भानुबेन शाह भूमिका : मध्यकालीन युग में जैन मनीषीओं ने रास, फागु, बारमासा, स्तवन, सज्झाय जैसे ५० काव्यप्रकारों में अपनी लेखनी चलाई है। जैन 'गुर्जर कविओ भाग-१ से ६ में विविध काव्यप्रकारों का उल्लेख किया गया है। मध्यकालीन युग 'रासायुग' से विख्यात है, लेकिन रास के साथ-साथ 'फागु' और 'बारमास' काव्यप्रकार भी प्रभाव में दिखाई दिये हैं । बारमासा का स्वरूप : बारमासा लघुकाव्य प्रकार है । यह गेयकाव्य है। बारमासा में नायकनायिका के विरह की मनोव्यथा होने से करुणरस को प्रधानता मिली है । बारमासा के अंतमें नायक-नायिका का मिलन होता है, तब शृंगार का निरुपण भी कविजनों द्वारा हुआ है । बारमासा में वर्ष के बारहमास के क्रमिक आलेखन द्वारा विरहिणी स्त्री की विरहवेदना उजागर की जाती है। यहाँ कल्पना का वैभव, रस निरूपण और भावस्थिति का ह्रदयस्पर्शी चित्र होने के कारण बारमासा को स्वतंत्र काव्य प्रकार में गिना जाता है | बारमासा ऋतुकाव्य प्रकार है। जैन और जैनेतर कवियों ने इस काव्यप्रकार को अपनी कलम से नवपल्लवित किया है। जैन परंपरा में ५० और जैनेतर परंपरा में ३० कृतियाँ इस काल में उपलब्ध हैं । For Private and Personal Use Only बारमासा काव्य के उद्भव में मध्यकालीन समाजजीवन के महत्त्व का परिबल है। समाज के भाट, चारण, भवैया, व्यापारी, लडवैये विद्यार्थी आदि का अपने गाँव को छोडकर विदेश में जाना, वहाँ लम्बे अरसे तक ठहरना, ऐसी स्थिति में स्त्रियों का अकेले रहना, तदुपरांत राजकीय अव्यवस्था, चोरी, लूटमार, तूफान, दंगा-फसाद इत्यादि कारणों से जनता को एक स्थल से दूसरे स्थल पर आना-जाना पडता था । इस परिस्थिति में नायिका को नायक का विरह असह्य प्रतीत होता था । उसी परिस्थितियों में बारमासा का उद्भव हुआ होगा, ऐसा विद्वानों का अनुमान है। Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org - २५ श्रुतसागर ३८-३९ जैन परंपरा में विरह की बात आती है, तब विरही युगल के रूप में नेमराजुल और स्थूलिभद्रजी को कवियों ने अग्रस्थान दिया है। सांप्रतकाल में उपलब्ध ५० बारमासा में 'रायचंद्रसूरि बारमासा' और 'धर्मसूरि बारमासा' को छोड़कर बाकी की रचनाएँ इस (नेम-राजुल) युगल को केन्द्र में रखकर रची गई हैं। पिप्पलकगच्छ के आचार्य हीराचंदसूरि और तपगच्छ के चंद्रविजयजी इन दो कवियों ने 'स्थूलभद्र बारमासा' की रचना की है । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विषय वैविध्य की दृष्टि से देखें तो जैनेतर कविओ ने विरहवेदना के साथसाथ गुरुमहिमा, गुरुज्ञानमास, समाजसुधारकता, राष्ट्रहित जैसे विविध विषयों को बारमासा में गुंफित किया है। समय के अनुसार कवियों ने पंद्रह तिथियों और सात वार को भी अपनी कविता में आश्रय दिया है। सात वार की गरबी जिसमें प्रारंभ आदित्य याने इतवार (रविवार) से होती है, तो कोई कृति मंगलवार से भी प्रारंभ होती है। जैनेतर काव्य में इस तरह का परिवर्तित रूप दिखाई देता है । कवि ऋषभदासजी ने 'धुलेवाजी बारामासा' का निर्माण करके विषय वैविध्य प्रस्तुत किया है। अर्वाचीन साहित्य में भी मास, तिथि व वार विषयक रचनाएँ प्राप्त होती हैं, जिसमें जैन धर्म के उपदेशात्मक विचार प्रकट होते हैं। बारमासा की प्राचीन रचना ५३३ वर्ष पूर्व की अंचलगच्छ के डुंगर स्वामी की प्राप्त होती है। श्री अगरचंद नाहटा और शिवलाल जेसलपुरा ने राजस्थानी भाषा में बारमासा काव्य प्रकार पर संशोधन किया है। विदेश में रशिया के झबातिवेल एवं फ्रांस के शार्भोत वोदविल जैसे संशोधकों ने बारमासा काव्यप्रकार पर काफी संशोधन किया है। कवि परिचय : प्रस्तुत 'धुलेवाजी बारमासा' के रचयिता सोलवीं सदी के खंभात के निवासी श्रावक कवि ऋषभदासजी हैं। केशरियाजी तीर्थ का इतिहास : तीर्थंकरों के कल्याणक और अतिशय से पवित्र आर्यावर्त का इतिहास सरोवर में कमल-सा शोभायमान भव्य जीवों के चित्ताकर्षण में सदा गौरवपूर्ण रहा है । For Private and Personal Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org २६ मार्च-अप्रैल २०१४ राजस्थान की धरा उदयपुर से थोडी दूरी पर स्थित सुप्रसिद्ध अतिशय क्षेत्र श्री केशरियाजी ऋषभदेव तीर्थ से भला कौन अज्ञात होगा ? इस तीर्थ का इतिहास ११ लाख वर्ष पूर्व का बड़ा ही रोमांचक और अद्भुत है । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री मुनिसुव्रतस्वामी भगवान के शासनकाल में दशरथनंदन राम और लक्ष्मण ने लंकापति राक्षसराज रावण का वध किया था। महासती सीता को लेकर वे अयोध्या की ओर लौट रहे थे, तब सीताजी ने रामचंद्र से कहा कि - 'अशोकवाटिका में मैंने जो पवित्र सरोवर की मिट्टी से तीर्थंकर देवाधिदेव श्री ऋषभदेव की नयनरम्य प्रतिमाजी बनाई है उसे प्रथम पुष्पक विमान में ले चलें । इसी प्रतिभाजी के पूजन से मेरी शील रक्षा हुई है और रावण से मुक्ति मिली है।' उन्होंने अत्यंत बहुमानपूर्वक उस प्रतिमाजी को उठाकर पुष्पक विमान में विराजमान किया । मालवदेश के प्राकृतिक सौंदर्य से मोहित होकर रामचन्द्रजी ने इस प्रतिमाजी को क्षिप्रा नदी के तट पर जहाँ उज्जयिनी नगरी बसी हुई है वहाँ स्थापित किया। राम, लक्ष्मण, सीता एवं विद्याधरों ने प्रतिमाजी की अष्टप्रकारी पूजा की। सीताजी ने उस प्रतीमाजी को उठाकर अयोध्या ले जाना चाहा परंतु अधिष्ठायकदेव की अनुमति न होने से श्रीरामजी ने उज्जयिनी के महाराजाओं को यह प्रतिमा सौंप दी। महाराजा ने अपने इष्टदेव समझकर गगनचुम्बी जिनालय का निर्माण करवाकर प्रतिमाजी की महोत्सवपूर्वक प्रतिष्ठा करवाई । उसके बाद यह प्रतिमाजी उज्जयिनी के श्रावक-श्राविकाओं की श्रद्धा का केन्द्रबिंदु बन गई । श्रीपाल और मयणा ने इस प्रतिमाजी का पूजन किया था । भूपाल श्रीपाल राजा का कुष्ठ रोग निवारण हुआ। इस घटना से श्री ऋषभदेव प्रभु की महिमा प्रतिदिन बढ़ती गई। अधिष्ठायकदेव प्रभु के दरबार में आनेवाले लोगो की मनोकामना पूर्ण करते हैं। अत एव लोगों ने श्रद्धा और भक्ति से धीरे-धीरे केशर चढ़ाना शुरू किया। केशर की मात्रा इतनी बढ़ गई कि प्रभु का नाम एक विशेषण रूप से ख्यात हुआ । अब भगवान ऋषभदेव को जनता 'केशरियाजी' या 'केशरियानाथ' कहने लगी । श्रीपाल - मयणा ने नवपद की आराधना की और महारोग से मुक्ति पाई. इस लिए यह जिनालय श्री सिद्धचक्राराधन केशरियानाथ महातीर्थ' के नाम से प्रसिद्ध हुआ । भौगोलिक परिस्थितियों से बचने के लिए अधिष्ठायक देवों द्वारा प्रतिमाजी मेवाड के बड़ोद गाँव में प्रतिष्ठित हुई । कालक्रमानुसार बडोद से यह प्रतिमा For Private and Personal Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra - www.kobatirth.org श्रुतसागर ३८-३९ २७ धुलेवा नगर में लाई गई। आज भी इस प्रतिमाजी का पूजन-अर्चन होता है। इस सत्य को सत्यापित करता हुआ एक ऐतिहासिक शिलालेख यहाँ आज भी विद्यमान है। ऋषभदेवस्वामी का पुराना नाम 'खेडा' और 'धुलेवा' था। आज धुलेवा गाँव 'केशरियाजी' या 'ऋषभदेव' की संज्ञा से अभिहित है। चंदनपुरमहावीर एवं बाडा - पद्मप्रभु ( जयपुर ) की भाँति ऋषभदेवस्वामी की यह प्रतिमा धुलिया भील द्वारा अपनी गाय के दूध झरने के दृश्य को देखखर उसके स्वप्नानुसार भूगर्भ से प्रगट हुई है । धुलिया भील के नाम से यह गाँव 'धुलेव' कहलाता है, ऐसी जनश्रुति है । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कृष्णवर्ण होने से आदिवासी भील उसे 'कालाजी' या 'केशरिया बाबा' कहते हैं। कुछ लोग 'धुलेवाधणी' या 'केशरियालाल' के नाम से भी जयध्वनि करते हैं। भील, राजपूत और गरासिया ज्ञाति के ये कुलदेवता हैं। आज भी जिनालयों में सुबह शाम की आरती में घुलेवापति का नाम लिया जाता है। केशरिया तीर्थ के मूलनायक भगवान ऋषभदेव हैं। चतुर्थ कालीन श्याम वर्ण की, पद्मासन में, प्रशांतवदन, तीन फुट ऊँची, छत्र और भामंडल सहित वीतराग की प्राचीन प्रतिमा अतीव है । यह प्रतिमाजी एक फुट ऊँचे पावासण पर विराजमान है। उस पर १६ स्वप्न अंकित हैं । रचनाकाल : केशरियाजी चित्ताह्लादकता से एवं सभी दृष्टिकोण से विशेष महत्त्वपूर्ण हैं | जैन एवं जैनेतरों की श्रद्धा और आस्था का यह परम केन्द्र है। उस समय जैनों के प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव - केशरीयाजी की कीर्ति चारों ओर फैली हुई थी । परमात्मा के अतिशय से प्रभावित होकर कवि ऋषभदासजी ने चौदह गाथामय, बारह मासबद्ध, सरल शब्दों में परमात्मा की स्तवना की है । कवि के परम आराध्यदेव रहे होंगे इसलिए उन्होंने ऋषभदेवरास (ढा. - ११८, क. १२७५) लिखा है। प्रत परिचय : प्रस्तुत् हस्तप्रत आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर (कोबा - गांधीनगर ) से प्राप्त हुई है। उसका नं. ५३४९० है । अक्षर सुलेख एवं सुवाच्य हैं। पत्र संख्या ३ है । प्रत की स्थिति मध्यम है । प्रत परिमाण २७ X १३.५ है । पत्र में १९ लाईन में १४ से १६ अक्षर लिखे गये है। प्रस्तुत् बारमासा काव्य के रचनाकाल के विषय में कोई उल्लेख नहीं है । For Private and Personal Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २८ मार्च-अप्रैल - २०१४ कात्य परिचय : धुलेवा बारमासा काव्य १४ गाथा में रचित है। प्रथम और अंतिम गाथा में मंगलाचरण है। मध्य की बारह गाथा में प्रकृति वर्णन के साथ-साथ प्रभु स्तवना द्वारा परमात्मा की अद्वितीय महिमा गायी है। यह भक्त की भक्ति का प्रेरणास्पद व ज्वलंत उदाहरण है। प्रस्तुत् बारमासा में भक्ति के संदर्भ में प्राकृतिक सौंदर्य का नामोल्लेख हुआ है। उदा. फाग खेलवो, वइसाखे फुली वनराई, मेघ घणां गाजे, श्रावणे वरसे अति सारो, बापइ मोर दादुर प्यारो। ऋतुकाव्य के अनुरूप प्रकृति के प्रयोग से काव्य की शोभा में अभिवृद्धि हुई है। यहाँ शृंगाररस ने भक्ति-शृंगार का स्थान लिया है। प्रभुभक्ति का स्नेह भक्तिरस के दृष्टांत को पूर्ण करता है। ऋतु काव्य की परंपरा में यह अभिनव रचना काव्य और भक्ति के समन्वय से आस्वाद्य है। प्रस्तुत् कृति सरलार्थ सहित प्रकाशित की जा रही है। कवि ऋषभदासकृत धुलेवाजी बारमासा श्रीसद्गुरु प्रणमी पायां, माता मरुदेवीनां जाया। ऋषभजी धुलेवा नगररायां, विषय कषाय कपटनें तजीए, जगतगुरु जिनवरने जपीए ||१|| प्रस्तुत गाथा में मंगलाचरण के साथ-साथ धुलेवा नगर के राजा, मरुदेवी माता के पुत्र श्रीऋषभदेवजी का संक्षेप में परिचय दिया गया है। जिनवर की स्तवना करने से अशुभ भावों का निकंदन होता है। यह कहकर कवि ने काव्यप्रयोजन का हेतु भी स्पष्ट किया है। कार्तिके केसरीयो मीलसे, के मारा जनमजरानां दुख हरसे। के मारा मनवंछीत फलसे, जगतगुरु जिनवरने जपीए ।।२।। कविश्री ने बारमासा का प्रारंभ कार्तिक महिने से किया है, क्योंकि कवि ऋषभदासजी गुजराती कवि हैं और गुजराती का नया वर्ष कार्तिक मास से प्रारंभ होता है। प्रभुदर्शन से अजर-अमर स्थान प्राप्त होगा और मन की अभिलाषाएँ पूर्ण होंगी। For Private and Personal Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुतसागर - ३८-३९ प्राचीन काल से आज तक ऋषभदेव-केशरियाजी तीर्थ अपने अतिशय के लिए प्रसिद्ध है और भक्तों के आस्था का केन्द्रबिंदु है। यह भाव कवि द्वारा उजागर किया हैं। मागसरे मन मोयूं मारु, के तरीत दरीसण थयूं ताहरूं। तारी सुरत पर हुं वारुं, जगतगुरु जिनवरनें जपीए 11३।। ___ मृगशीर्ष महिने में केशरीयाजी की श्यामवर्ण सुंदर प्रतिमा का दर्शन करते ही भक्त का हृदय मोहित होता है। प्रभु के अनुपम व अवर्णनीय रूप को देखकर असीम आनंद की लहर उठती है। पोरों प्रीतडली पालो, के तिन भुवू(ब)नमा अजुआलो। के तुमे छो दीन तणां दयालो, जगतगुरु जिनवरने जपीए ।।४।। पौष महिने में भक्त भगवान से प्रीत निभाने की विनती करता है। परमात्मा के आगमन से नरक, स्वर्ग और मृत्युलोक में परमशांति का अनुभव होता है। यहाँ भक्त की उत्कट प्रीति का भाव भी निहित है। साथ में प्रभु की असीम करुणा और दयालुता की प्रतीति होती है। माहा सुद पांचमें दीन आवे, के मोहर लेईनें सह वधावे। गुणीजन राग वसंत गावे, जगतगुरु जिनवरने जपीए ।।५।। माघ महिना याने वसंत का आगमन! उस समय आम्रवृक्ष पर मंजर लगता हैं। प्राचीन काल में समाज में वसंतपंचमी का पर्व धूमधाम से मनाने की प्रथा प्रचलित होगी ऐसा स्पष्ट होता है। परमात्मा की स्तवना के साथ तत्कालीन व्यवहार एवं रीति-रिवाजों का बोध प्राप्त होता है। फागुणे फाग रमूं तसु, केसरीया नही अंतर करसुं। के नाटीक करसुं ने नीत नमसुं, जगतगुरु जिनवरने जपीए ।।६।। फाल्गुन मास में गुलाल, फूल, अत्तर, केशर, कस्तुरी जैसे सुगंधी पदार्थों से और विलेपन से पूजा करके भगवान की आंगी रचाने का भाव प्रस्तुत गाथा में निहित है। ___यहाँ धूलिपर्व के संदर्भ से भक्त परमात्मा के साथ फाग खेलना चाहता है। यहाँ ऋतुवर्णन के साथ-साथ ब्रज परंपरा का अनुसंधान दृश्यमान होता है। पूजा की दृष्टि से धूप से सुवासितकर केशर और पुष्पों से पूजन होता है। चैतरें चित लागो चरणे, फूल गूलाब मूगट भरणे। के सेवा तारणनें तरणे, जगतगुरु जिनवरने जपीए ।७।। For Private and Personal Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ३० मार्च-अप्रैल २०१४ मूलनायक को आंगी करके एकाग्र चित्त से केशर पूजा करके पुष्पों का मुकुट पहनाकर भक्त अपने तरणतारण परमात्मा की भक्ति करना चाहता है । यहाँ सुंदर वर्णानुप्रास से काव्यत्व की पंक्ति सुशोभित बनी है। इसाखे फुली वनराई मोहरी, त्रीजनी आखात्रीज आई। केसरीआसुं साची सगाई, जगतगुरु जिनवरनें जपी ||८|| Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - वैशाख मास में अक्षयतृतीया पर्व महोत्सव और वसंत के वैभव का प्राकृतिक वर्णन का सुमेल कवि ने किया है। भगवान ऋषभदेव के ४०० उपवास का पारणा अक्षयतृतीया के दिन हुआ था। यह पर्व जैन परंपरा में धामधूम से मनाया जाता है। अक्षयतृतीया को सर्वश्रेष्ठ तृतीया तिथि कही है। प्राचीन काल में सालभर में एक अक्षयतृतीया को मंगल मुहूर्त माना जाता था । यहाँ कवि अथवा भक्त भगवान से नाता जोड़कर उसकी प्रीति को अखंड निभाकर अपना संसार पारित करना चाहते है। जेठे जिनवर जो आवे, सीतल जल लेइ नवरावे । के पंखो करतां पुन्य पावे, जगतगुरु जिनवरनें जपीए ।१९।। जेठ मास में ग्रीष्म ऋतु होती है। इस ऋतु में भक्त मूलनायक को शीतल जल से स्नान (अभिषेक) कराना चाहता है। स्नान के बाद अंगपोछन और पंखे से द्रव्यपूजा करने की अभिलाषा है, क्योंकि द्रव्यपूजा भी पुण्य कर्म का कारण है। वैष्णव परंपरा में प्रभु के आगमन पर स्नान, भोजन, शय्या और पंखे से हवा करने की प्रथा है, वैसे ही जैन परंपरा में भी स्नान, अंगपोछण, चंदन विलेपन, पंखा इत्यादि से प्रभु की सेवा की जाती है । आसाढे मेघ घणां गाजे, भेरी भुंगल मृदंग वाजे । जे जिन इन्द्र महोछव छाजे, जगतगुरु जिनवरनें जपीए ||१०|| आषाढ मास में मेघगर्जना करते हैं, तब मानो ढोल, मृदंग, नगारा, दुंदुभि जैसे वाद्य उपकरणों में नाद वातावरण का गुँजता है । कवि ने आरती के समय होनेवाली वाद्यों की ध्वनि से मेघगर्जना की तुलना की है। For Private and Personal Use Only वर्षाऋतु के आगमन की खुशी में इन्द्रमहोत्सव रचाया जाता है। क्योंकि मेघ का मालिक इन्द्रदेव है। ग्रीष्म की गरमी से तप्त वसुंधरा मेघ से शीतलता का अनुभव करती है । धरा छोटे-छोटे पौधों से खिल उठती है । तब इन्द्र का आभार व्यक्त करने के लिए इन्द्रमहोत्सव मनाया जाता है। Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुतसागर - ३८-३९ यहाँ इन्द्र के भी इन्द्र याने जिनेन्द्रदेव हैं। जिन्होंने धर्ममार्ग की प्ररूपणा की है। भव्य जीवों के हृदय में धर्म के बीज बोये हैं। इस लिए भक्त परमात्मा का महोत्सव रचाना चाहता है। श्रावण वरसे अतिसारो, बापई मोर दादुर प्यारो। गुणीयल गाय मीली सारो, जगतगुरु जिनवरने जपीए ।।११।। कवि के शब्दों में श्रावणमास याने धर्म का महिना है। भक्त मल्हार राग में भगवा। के गुणकीर्तन करेगा उस समय मोर अर्थात् प्रकृति के सभी प्राणी प्रभुभक्ति से झूम उठेंगे 1 अर्थात् प्रशुभक्ति से प्राकृतिक तत्त्वों में खुशियाँ फैल जाती हैं। भाद्रवे भविक करे भगति, पर्व पजोसण तणी मुगति। पूजा रचावी भसी जुगती, जगतगुरु जिनवरने जपीए ।।१२।। भाद्रपद में पर्वाधिराज की आराधना करके भक्ति करने की युक्ति है। प्रभु जन्मवाचन, जन्म महोत्सव, भावना, आरती, रंगोली, व्याख्यान, क्षमापना जैसी धार्मिक क्रियाओं से कर्मबंधन का उच्छेद होता है। जैन परंपरा में लोकोत्तर पर्व का अत्यधिक महत्त्व है। पर्युषण पर्व के दिनों में जैन समाज धर्मसाधना करके पुण्य संचय करता है। आसु ए पूरीजो आसी, पर्व दीवाली दीपकथासी। हर्षे ऋषभदास गुण गासी, जगतगुरु जिनवर जपीए 11१३।। भक्त भगवान से प्रार्थना करते हुए कहता है कि आश्विन महिने में मेरी सभी आशाएँ पूर्ण हों। अर्थात् जीव और शिव का मिलन हो, तब सच्ची दीपावली पर्व मनाया जायेगा। वही जीवन की सबसे बड़ी धन्य पल होगी। इस धन्य पल की प्राप्ति हेतु कवि ने केशरियाजी का गुणकीर्तन किया है। यहाँ द्रव्यपूजा से भावपूजा में प्रवेश करने का संकेत है। "बारे मास करु सेवा, ऋषभदेव मागुं मेवा। के देजो दीनतणा देवा' ||१४||* भक्त या कवि भक्ति का फल 'मेवा' याने शाश्वत सुख माँगता है। "बारेमास सेवा' भक्ति के भाव से प्रभु से प्रतिदिन सेवा करूंगा ऐसी इच्छा व्यक्त की है। कवि प्रभु से अंतिम प्रार्थना करते हुए शाश्वत स्थान प्राप्ति की मंगलकामना करते हैं। * आ कडी मूळ प्रतमां प्राप्त थती नथी. संपा. For Private and Personal Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आचार्य श्रीमलयगिरि अने तेनुं शब्दानुशासन' मुनि श्री पुण्यविजयजी आगमदुर्गमपदसंशयादितापो विलीयते विदुषाम्।। यद्वचनचन्दनरसैर्मलयगिरिः स जयति यथार्थः ।। आचार्य श्रीक्षेमकीर्तिसूरिः ।। प्रस्तुत संक्षिप्त लेखमां आगमज्ञमुकुटमणि समर्थ टीकाकार आचार्य श्रीमलयगिरिकृत शब्दानुशासन-व्याकरणनो परिचय कराववामां आवे छे. आ. श्रीमलयगिरिए संख्याबंध, जैन आगमो, प्रकरणो अने ग्रंथो उपर टीकाओनी रचना करी छे; परंतु तेमनी जो स्वतंत्र ग्रंथरचना कोइ होय तो ते मात्र प्रस्तुत स्वोपज्ञवृत्तिसहित शब्दानुशासन ग्रंथ ज छे. श्रीमलयगिरिसूरि, कलिकालसर्वज्ञ भगवान् श्रीहेमचंद्राचार्यना विद्यासाधन समयना सहचर हता. तेमना प्रत्ये तेओश्रीनुं एटलुं बहुमान हतुं के तेमणे पोतानी आवश्यकसूत्र उपरनी वृत्तिमां भगवान् श्रीहेमचंद्रने तथा चाहुः स्तुतिषु गुरवः (आव. वृत्ति पत्र ११) ए शब्दोथी गुरु तरीकेना हार्दिक प्रेमथी संबोध्या छे. ___ आ. श्रीमलयगिरिए मलयगिरिशब्दानुशासननी रचना करवा छतां आपणे तेओश्रीने आ. श्रीहेमचंद्रनी जेम वैयाकरणावार्य तरीके संबोधी के ओळखावी शकीए तेम नथी. ए रीते तो आपणे तेओश्रीने जैन परिभाषा प्रमाणे आगमिक के सैद्धांतिक युगप्रधान आचार्य तरीके ओळखावीए ए ज वधारे गौरवरूप अने घटमान वस्तु छे. सिद्धांतसागरमां रात दिवस झीलनार ए महापुरुषे व्याकरणना जेवा क्लिष्ट अने विषम विषयने हाथमां धर्यो ए हकीकत हर कोईने मुग्ध करी दे तेवी ज छे. समर्थ वैयाकरणाचार्य भगवान् श्रीहेमचंद्रे जे जमानामां सांगोपांग सपादलक्ष शब्दानुशासन व्याकरणग्रंथनी रचना करी होय ए ज जमानामां अने ए समर्थ व्याकरणनी रचना थई गया बाद तरतमां ज आचार्य श्रीमलयगिरि नवीन शब्दानुशासन ग्रंथना निर्माण माटे प्रयत्न करे के हिंमत करे ए वात प्रथम दृष्टिए आपणने संकोचकारक तो जरूर लागे छे; तेम छतां आपणने आथी एक एवं अनुमान करवानुं कारण मळे छे के आ. श्रीमलयगिरिए, भ. हेमचंद्र जेवा पोताना मुरब्बीना सर्वतोमुखी पांडित्यथी मुग्ध थई अने कुतूहलवृत्तिथी प्रेराईने आ शब्दानुशासनग्रंथनी रचना करी हशे; अथवा तेओश्रीना जीवनमां जरूर कोई एवं प्रेरणादायी कारण उत्पन्न थयुं हशे जेथी प्रेराईने * प्रायः करीने आ व्याकरण हजु सुधी अप्रकाशित छे. For Private and Personal Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३३ श्रुतसागर - ३८-३९ तेमणे आ व्याकरणग्रंथनी रचनानुं कार्य हाथ धर्यु हशे. श्रीमलयगिरिए पोतानी व्याकरणरचनामां संज्ञाप्रकरण आदि प्रत्येक वस्तु माटे शाकटायन, चांद्र वगेरे प्राचीन व्याकरणोने जरूर लक्ष्यमा राख्यां ज हशे, तेम छतां तेमणे पोतानी व्याकरण रचनानां मुख्य केन्द्रस्थान तरीके भगवान् श्रीहेमचंद्राचार्यना स्वोपज्ञ बृहद्वृत्तिसहित सिद्धहेमशब्दानुशासनने ज राखेलु छे. जेम भगवान श्रीहेमचंद्रे व्याकरणना प्रारंभमां सिद्धिः स्याद्वादात अने लोकात् ए सूत्रो गूंथ्यां छे ते ज रीते श्रीमलयगिरिए पोताना शब्दानुशासननी शरूआत सिद्धिरनेकान्तात् अने लोकाद् वर्णक्रमः सूत्रोथी ज करी छे. आ सिवाय श्रीहेमचंद्र अने श्रीमलयगिरि ए बन्ने आचार्योनां शब्दानुशासनोमां सूत्रोनुं लगभग एटलुं वधुं साम्य छे जेथी हरकोई विद्वान् प्रथम नजरे भूलो ज पड़ी जाय. अने तेथी ज आज सुधीमां मुद्रित थयेल आचार्य श्रीमलयगिरिना टीकाग्रंथोमां आवतां व्याकरणसूत्रोना अंको आपवा वगेरेमां खूब ज गोटाळो थइ गयो छे. केटलीक वार ए सूत्रोने सिद्धहेगव्याकरणनां सूत्रो समजी अंको आपवामां आव्या छे अने केटलीक वार पाणिनीय व्याकरणनां सूत्रो समजी तेना अंको आपवागां आव्या छे. ज्यारे केटलांक सूत्रो नहि मळवाने लीधे तेना स्थाननो निर्देश पडतो ज मूकवामां आव्यो छे. __ आ प्रमाणे आ बाबतमां खूब ज गोटाळो थवा पाम्यो छे; परंतु श्रीमलयगिरिनुं शब्दानुशासन जोया पछी ए चोक्कस रीते जाणी शकायुं छे के श्रीमलयगिरिए पोताना टीकाग्रंथोगां जे व्याकरणसूत्रो टांक्यां छे ए नथी सिद्धहेमशब्दानुशासनमां के नथी पाणिनीय व्याकरणनां के बीजा कोइ व्याकरणना; परंतु ए सूत्रो तेमणे पोताना मलयगिरिशब्दानुशासनमाथी ज टांक्यां छे. प्रस्तुत मलयगिरिव्याकरणनी स्वोपज्ञवृत्ति, ए आचार्य हेमचंद्रना सिद्धहेमव्याकरणनी बृहद्वृत्तिनुं प्रतिबिंब ज छे. ए बन्नेय वृत्तिओनी तुलना करवाथी जाणी शकायुं छे. अने ए ज कारणसर आजे मळती मलयगिरिशब्दानुशासननी हस्तलिखित प्रतिओ भारो-भार अशुद्ध होवा छतां तेनुं संशोधन जराय अशक्य नथी एम में खात्री करी लीधी छे. प्रस्तुत् व्याकरणनी रचना आ. मलयगिरिए गूर्जरेश्वर परमार्हत राजर्षि श्रीकुमारपालदेवना राज्य अमल दरम्यान करी छे ए आपणे मलयगिरिशब्दानुशासनना 'ख्याते दृश्ये' (कृत्ति तृतीय पाद सूत्र २२) सूत्रनी स्वोपज्ञवृत्तिमां आवता 'अदहदरातीन् कुमारपालः' ए उदाहरण परथी स्पष्ट रीते जाणी शकीए छीए. आनो अर्थ ए थयो के आचार्य श्रीमलयगिरिकृत जे जे ग्रंथोमां प्रस्तुत शब्दानुशासननां सूत्रो मळे छे. ते ग्रंथोनी रचना प्रस्तुत शब्दानुशासननी रचना बादनी तेमज For Private and Personal Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३४ मार्च-अप्रैल - २०१४ महाराजा श्रीकुमारपालदेवना राज्यमां थएली छे. अथवा एम पण बन्युं होय के श्रीमलयगिरिए पोताना शब्दानुशासननी मूल द्वादशाध्यायीनी रचना गूर्जरेश्वर महाराजा श्रीजयसिंहदेवना राज्य दरमियान करी होय ते आधारे पोताना टीकाग्रंथोमां सूत्रो टांकता होय अने शब्दानुशासन उपरना स्वोपज्ञ विवरण, निर्माण तेओश्रीए महाराजा श्रीकुमारपालना राज्यमा कर्यु होय. ए गर्म तेम हो, ते छतां एक बात तो निर्विवाद ज छ के श्रीमलयगिरिए पोताना शब्दानुशासन उपरनी स्वोपज्ञवृत्तिनी रचना तो श्री कुमारपालदेवना राज्य अमल दरमियान ज करेली छे. आचार्य मलयगिरिकृत स्वोपज्ञशब्दानुशासननी प्राचीन हस्तलिखित प्रतिओ आजे त्रण ज्ञानभंडारोमा छ एम जाणवामां आव्यु छे. एक पाटण-वाडीपार्श्वनाथ ज्ञानभंडारमा कागळ उपर लखेली प्रति. बीजी पाटण-संघवीना पाडाना ताडपत्रीय पुस्तक भंडारमा ताडपत्र उपर लखाएल प्रति. अने त्रीजी पूना-डेक्कन कोलेजना भांडारकर इन्स्टीट्युटना हस्तलिखित पुस्तकसंग्रहमां ताडपत्र उपर लखेली प्रति. आ सिवायनी बीजी जे जे हस्तलिखित प्रतिओ जैन मुनिओना ज्ञानभंडारोमां जोवामां तेमज सांभळवामां आवी छे ते बधीए, जो हुं न भूलतो होउं अने नथी ज भूलतो तो, पाटण-वाडीपार्श्वनाथना ग्रंथसंग्रहनी प्रतिनी नकलो ज छे. अने ए प्रतिओ धरावनार पैकी भाग्ये ज कोइने खबर हशे के एमनी ए व्याकरणप्रति संपूर्ण नहि पण अधूरी ज छे. उपर जणावेली त्रणे प्रतिओ पैकीनी एकेय प्रति. संपूर्ण नथी, तेगज त्रणे प्रतिओ एकठी करवामां आवे तो पण आ. श्रीमलयगिरिकृत शब्दानुशासन पूर्ण थाय तेम नथी. १ पाटण-वाडीपार्श्वनाथना भंडारनी प्रति पंचसंधि, नाम, आख्यात अने कृत् सुधीनी छे. अर्थात् आ प्रतिमां चतुष्कवृत्ति, आख्यातवृत्ति अने कृद्धृत्ति एम ऋण वृत्तिनां मळी एकंदर त्रीस पादनो समावेश थाय छे. परंतु तद्धितवृत्ति के जे अढार पाद जेटली छे ते आ प्रतिमां नथी. २ पाटण-संघवीना पाडानी ताडपत्रीय प्रति अति खंडित छ. ए प्रति मारा धारवा प्रमाणे लगभग ५००पानां जेटली होवी जोइए, तेने बदले अत्यारे एनां मात्र ३३० थी ४५६ सुधीनां ज पानां विद्यमान छे अने तेमां पण वचमां वचमांथी संख्याबंध पानां गूम थयां छे. तेम छतां आ त्रुटित प्रति तद्धितवृत्तिनी होइ एर्नु अति घणुं महत्त्व छे. आ प्रतिमां लेखके आखा ग्रंथना पत्रांको अने दरेक वृत्तिना विभाग सूचक पत्रांको एम बे जातना पत्रांको कर्या छे. ए रीते आ प्रतिना ३३०मां पानामां For Private and Personal Use Only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३५ श्रुतसागर - ३८-३९ तद्धितवृत्तिना पानां तरीके ३५मो अंक आच्यो छे. एटले तद्धितवृत्तिनो प्रारंभनो ३४ पानां जेटलो भाग आ प्रतिमां नथी. ए चोत्रीस पानामां तद्धितनो लगभग दोढ अध्याय गूग थयो छे. आ प्रतिनां अत्यारे जे खंडित पानां हयात छे तेमां तद्धितना द्वितीयाध्याय द्वितीयपादना अपूर्ण अंशथी शरूआत थाय छे अने लगभग ४०० मा पाना दरमियानमां दशमा पादनी समाप्ति थाय छे. आ पछी थोकबंध पानां गूम थयां छे. मात्र पांचदश ज छुट्टक पानां छे. आ रीते संघवीना पाडानी प्रति अतिखंडित होई पाछळनां आठ पाद एमां छ ज नहि. ३ डेक्कन कॉलेजमांथी प्रतिनी तपास कराववा छतां हजु ए अंगेनी चोक्कस माहिती मळी शकी नथी के ए प्रति केटली अने क्यां सुधीनी छे. ए माहिती मेळववा माटे प्रयत्न चालु ज छे. तेम छतां अधूरी तपास परथी एम तो चोक्कस जाणवा मळ्युं छे के ए प्रति द्वारा पण प्रस्तुत शब्दानुशासननी पूर्णता थाय तेम नथी. डेक्कन कॉलेजनी आ प्रति ताडपत्र उपर लखाएली अने खंडित छे. प्रस्तुत् व्याकरण पूर्ण न मळे त्यां सुधी आपणे एनी सूत्रसंख्या तेमज स्वोपज्ञवृत्तिनुं चोक्कस प्रमाण जाणी शकीए तेम नथी. परंतु एनी अपूर्ण दशामां पण तेना अध्याय अने पादसंख्या प्रमाण चोक्कस रीते जाणी शकाय तेम छे. खुद आ. श्रीमलयगिरिए तद्धितना नवमा पादना संख्यायाः पाठसूत्रसधो वा ए सूत्रनी स्वोपज्ञवृत्तिमां अष्टावध्यायाः परिमाणस्य अष्टकं पाणिनीयं सूत्रम्। द्वादशकं मलयगिरीयम् ए प्रमाणे जणाव्युं छे एने आधारे जाणी शकाय छे के मलयगिरिशब्दानुशासननी बार अध्याय अने अडतालीस पादमां समाप्ति थाय छे. जो के श्रीमलयगिरिए आ. श्रीहेमचंद्रनी माफक पुष्पिकामां अध्याय अने पादनी नांध विभागवार करी नथी, तेम छतां तेमने एक अध्यायनां चार पाद ज अभीष्ट छे. तद्धितवृत्तिमां आवती इति श्रीमलयगिरिविरचिते शब्दानुशासने तद्धिते द्वितीयाध्याये द्वितीयः पादः समाप्तः आ मुजबनी पुष्पिका अने ते पछी सप्तमअष्टम आदि पादोनी समाप्तिने लगती पुष्पिकाओ आवे छे तेने आधारे नक्की करी शकाय छे. वाडी पार्श्वनाथना भंडारनी प्रति के जे कृद्धृत्ति सुधी समाप्त छे, तेमां पादसंख्या आ प्रमाणे छे :-- पंचसंधिनां पांच पाद, नामनां नव पाद, आख्यातनां दश पाद अने कृत नां छ पाद. आ रीते पंचसंधि अने त्रण वृत्तिनां मळी एकंदर ३० पाद थाय छे. अर्थात् वाडीपार्श्वनाथनी प्रति अध्यायना हिसाबे अष्टमाध्याय द्वितीयपाद पर्यन्तनी छे एम कही शकाय. आमां बीजो अढारपाद जेटलो विभाग उमेरीए त्यारे For Private and Personal Use Only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३६ बार अध्याय प्रमाण मलयगिरिशब्दानुशासन व्याकरण संपूर्ण बने. संघवीना पाडानी खंडित ताडपत्रीय प्रतिना लगभग ४००मा पानामां इति श्रीमलयगिरिविरचिते शब्दानुशासने तद्धिते दशमः पादः समाप्तः ए प्रमाणे आव्युं छे एटले ते पछीनां पानामां बीजां आठ पाद होवा माटे जराय शंकाने स्थान नथी. अने ए मुजब आचार्य श्रीमलयगिरिकृत शब्दानुशासन बार अध्याय अने अडतालीस पादमां समाप्त थवा विषे पण शंका जेवुं कशुं ज नथी. मार्च-अप्रैल २०१४ - आ. श्रीमलयगिरिए पोताना शब्दानुशासन साथे संबंध धरावता स्वतंत्र धातुपाठ, उणादिगण आदिनी रचना करी होय तेम जणातुं नथी. एमना शब्दानुशासनना अभ्यासीओने ए माटे तो अन्य आचार्यकृत धातुपाठ आदि तरफ ज नजर करवी पडे तेवुं छे. श्रीमलयगिरिसूरिना शब्दानुशासननो पठन-पाठन माटे खास उपयोग थयो होय तेवुं देखातुं नथी. ए ज कारण छे के एनी नकलो सिद्धहेमव्याकरणनी माफक विपुल प्रमाणमां प्राप्त थती नथी. आम छतां आचार्य श्रीक्षेमकीर्त्तिए बृहत्कल्पसूत्रनी टीकाना अनुसंधाननी उत्थानिकामां शब्दानुशासनादिविश्वविद्यामयज्योतिः पुञ्जपरमाणुघटितमूर्तिभिः श्रीमलयगिरिमुनीन्द्रर्षिपादैर्विवरणकरणमुपचक्रमे आ प्रमाणे श्रीमलयगिरिना शब्दानुशासननी खास नोंध लीधी छे. ए उपरथी एमना व्याकरणनो विद्वानोमां अमुक प्रकारनो विशिष्ट प्रभाव तो जरूर ज हतो एमां जराय शक नथी. प्रस्तुत् व्याकरणग्रंथ अपूर्ण होई एना अंतनी प्रशस्तिमां श्रीमलयगिरिए कई कई खास वस्तुनी नोध करी हशे ए कही शकाय एम नथी. तेम छतां एनी शरूआतमां आवता एवं कृतमङ्गलविधानः परिपूर्णमल्पग्रन्थं लघूपाय आचार्यो मलयगिरिः शब्दानुशासनमारभते आ उल्लेखमां तेमणे पोताने आचार्य तरीके ओळखाव्या छे ए वस्तु तद्दन ज नवी छे के जे, तेमना बीजा कोइ ग्रंथमाय नोधाल नथी. For Private and Personal Use Only आचार्य श्रीमलयगिरिसूरिवरना शब्दानुशासनने लगती आटली संक्षिप्त नोंध लखी आ लेखने अहीं ज समाप्त करवामां आवे छे. आ. श्रीमलयगिरिना जीवननो संक्षिप्त छतां अतिविशिष्ट परिचय मेळववा इच्छनारने श्रीजैन आत्मानंद सभाभावनगर तरफथी प्रसिद्ध थयेल सटीको शतक-सप्ततिकाख्यौ पञ्चम-षष्ठौ कर्मग्रन्थौनी मारी लखेली गुजराती प्रस्तावना जोवा भलामण छे. ( जैन सत्य प्रकाश, वर्ष - ७, अंक नं. १,२,३ ) १. नामनां नव पादमां षड्लिंग, स्त्रीप्रत्यय, कारक अने समासप्रकरणनो समावेश करवामां आव्यो छे. Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ब्राह्मी लिपि : एक अध्ययन डॉ. उत्तमसिंह ब्राह्मी लिपि भारतवर्ष की सबसे प्राचीनतम लिपि है जो पूर्णतः पढी जा सकी है। हिन्दुस्तान की अधिकांश लिपियों की जननी यह लिपि हमें सर्वप्रथम मौर्यकालीन अभिलेखों में बायें से दायें लिखी हुई देखने को मिलती है। ये अभिलेख पहाड़ियों की चट्टानों, शिलास्तम्भों और शिलाफलकों पर उत्कीर्ण हैं। हिन्दुस्तान में पूरव से पश्चिम, उत्तर से दक्षिण तक इस लिप में लिखे हुए लेख आज भी विद्यमान हैं, जो इसकी सर्वदेश व्यापकता के परिचायक हैं। जबसे इस लिपि का उद्वाचन हुआ है, यह सिद्ध हो गया की भारतीय उपमहाद्वीप सहित दक्षिण-पूर्व एशिया, श्रीलंका तथा तिब्बत आदि देशों की लिपियाँ भी देवानां प्रिय, जनानां प्रिय, प्रियदर्शी, सम्राट अशोक के शिलालेखों में प्रयुक्त ब्राह्मी लिपि से ही उद्भूत हुई हैं। हालाँकि अशोक के लेखों में कहीं भी इस लिपि का ब्राह्मी के रूप में नामोल्लेख नहीं हुआ है लेकिन जार्ज ब्यूलर, डॉ. राजवली पाण्डेय आदि प्रसिद्ध पुरातत्वविदों का मानना है कि इस लिपि को ब्राह्मी नाम दिया जा सकता है क्योंकि अधिकांश भारतीय साहित्य में उद्धृत लिपियों की सूचि में ब्राह्मी को ही प्रथम स्थान दिया गया है। समय के साथ-साथ इस लिपि में काफी परिवर्तन भी हुए। एक समय ऐसा भी आया जब इस लिपि को पढने-लिखने वाले ही नहीं रहे और यह सिर्फ शिलाओं, ताम्रपत्रों, लोहस्तम्भों, मृद्पात्रों अथवा सिक्कों पर ही लिखी रह गई। बड़े से बड़े विद्वान भी ७वीं-८वीं शताब्दी तक की लिपियाँ ही पढ़ पाते थे। लेकिन इससे पूर्व-काल की लिपि को पढ-पाना उनके लिए असंभव था। कहा जाता है कि ई.सन् १३५६ में फिरोजशाह तुगलक ने जब मेरठ और दिल्ली-टोपरा के अशोक स्तंभों को दिल्ली मँगवाकर उन्हें पढने के लिए विद्वानों की सभा में रखवाया तो कोई भी विद्वान उन्हें पढ़ नहीं पाया। मुगल सम्राट अकबर को भी इन लेखों का अर्थ जानने की जिज्ञासा थी। वह इन लेखों में उत्कीर्ण प्राचीन भारतीय इतिहास एवं संस्कृति विषयक गूढ रहस्य को जानना चाहता था, परन्तु उसे भी ऐसा कोई विद्वान नहीं मिला जो उन लेखों को पढकर अर्थ समझा सके। ई.सन् १७८४ में जब ‘एशियाटिक सोसायटी ऑफ बंगाल' की स्थापना हुई तब भारतीय प्राचीन इतिहास, शिल्प एवं लिपि-विज्ञान में रुचि रखनेवाले विद्वानों For Private and Personal Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मार्च-अप्रैल - २०१४ को प्रोत्साहन और पुनर्बलन मिला, उन्होंने इन प्राचीन लिपिवद्ध लेखों को पुनः पढने का प्रयास शुरू किया। लेकिन ई.सन् १८३५-३७ में इस लिपि को सर्वप्रथम पढने का श्रेय पाश्चात्य पुरातत्वविद सर-जॉन-प्रिंसेप को जाता है, जिसने दस वर्ष तक अथक प्रयास कर आखिरकार इस लिपि के सभी अक्षरों को पढने में सफलता हाँसिल की और एक सर्वमान्य वर्णमाला का निर्माण हुआ। इसके बाद तो ब्राह्मी लिपिबद्ध लेखों को एक के बाद एक कर आसानी से पढा जाने लगा। गुजरात में ब्राह्मी लिपि का सबसे प्राचीन नमूना मौर्य सम्राट अशोक के गिरनार शिलालेखों में प्राप्त होता है जो ईसा पूर्व द्वितीय शताब्दी का है। इन शिलालेखों की प्रचुरता से सिद्ध होता है कि मौर्यकाल में इस लिपि का उत्तरी भारत तथा लंका में खूब प्रचार था। सम्राट अशोक ने इन लेखों में तत्कालीन राजाज्ञा, धर्म संबंधी नीति-नियम तथा अहिंसा प्रचारक उद्घोषों को उत्कीर्ण कराया और इस लिपि को 'धम्म लिपि' की संज्ञा दी। जैन ग्रन्थ 'पन्नवणासूत्र' तथा 'समवायांगसूत्र' में अठारह लिपियों का उल्लेख मिलता है, जहाँ इस लिपि का 'बंभी लिवी' के रूप में नामोल्लेख हुआ है। विदित् हो कि इस अठारह लिपियों की नामावली में ब्राह्मी लिपि का नाम सबसे पहले है। बौद्ध ग्रन्थ 'ललितविस्तर में ६४ लिपियों का नामोल्लेख मिलता है, जिनमें 'ब्राह्मी' तथा 'खरोष्ठी' लिपियों का नाम सर्वप्रथम है। 'भगवतीसूत्र' में भी प्रारंभ में ही 'नमो बंभीए लिवीए' कहकर इस लिपि की वंदना की गई है। अतः कहा जा सकता है कि इसका प्रीचीन नाम 'बंभी' लिपि था और उस समय इसका बहुत आदर था। ___ विदित् हो कि खरोष्ठी लिपि के अक्षर चित्रात्मक होने के कारण इन्हें सहीसही पढ-पाना अति कठिन और भ्रामक रहा होगा, अतः इसका चलन अधिक नहीं हो सका । दूसरा एक और प्रमुख कारण यह भी रहा कि यह लिपि अर्बीपर्सियन लिपियों की तरह दायें से बायें लिखी जाती थी, जिसका अनुकरण संभवतः भारतीय पण्डितों के लिए कठिन रहा होगा। आज भी इस लिपि में उत्कीर्ण प्राप्य लेखों को पढने में पुरातत्त्वविद प्रयासरत हैं लेकिन ब्राह्मी जैसी सफलता प्राप्त नहीं हो सकी है। हिंदुस्तान में आज सबसे प्राचीन प्राप्य लिपि अशोक-कालीन ब्राह्मी लगभग ३०० ई.पू. की है। यद्यपि पिपरावा का मटके पर लिखा हुआ लेख तथा बडली का खण्ड लेख ४००-५०० ई.पू. के. हडप्पा तथा मोहनजोदडो की मुद्राएँ १००० ई.पू. की तथा हैदराबाद संग्रहालय के बर्तनों पर उत्कीर्ण ५ चिह्न संभवतः For Private and Personal Use Only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org - श्रुतसागर ३८-३९ ३९ २००० ई.पू. के भी पाए गए हैं, जिनमें मात्राएँ स्पष्ट हैं और अशोकन लिपि के सदृश हैं, परन्तु बोधगम्य न होने के कारण इनसे अभी तक कोई महत्त्वपूर्ण परिणाम नहीं निकल सका है। Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ब्राह्मी लिपि का उद्भव संबन्धी अवधारणा : ब्राह्मी लिप के उद्भव की जब चर्चा करते हैं तो हमें प्रमुखरूप से दो विचारधाराएँ दिखाई पडती हैं- (१) वैदिक और (२) जैन । (१) वैदिक परंपरानुसार इस लिपि के सर्जक परम पिता परमेश्वर देवादिदेव ब्रह्मा जी हैं। जिन्होंने सृष्टि रचना के समय इस लिपि की रचना की । और उनके नाम पर ही इस लिपि का ब्राह्मी नाम पडा । एक मान्यता ऐसी भी है कि प्राचीनकाल में लिखने-पढ़ने का काम ब्राह्मण करते थे, अतः ब्राह्मण शब्द पर से इस लिपि का नाम ब्राह्मी पडा हो ऐसी संभावना है। (२) जैन परंपरा के अनुसार प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेवजी की दो पुत्रीयाँ थीं- ब्राह्मी और सुन्दरी । ऋषभदेवजी ने ही असि - मषि - कृषि का सिद्धान्त दिया। जिसके तहत अपनी बड़ी बेटी ब्राह्मी को यह लिपि सिखाई । अतः इस लिपि का नाम ब्राह्मी पडा । अस्तु यह गंभीर चिन्तन और शोध का विषय है जो आज तक गवेशकों के लिए एक पहेली बना हुआ है। ब्राह्मी लिपि की विशेषताएँ : : ब्राह्मी लिपि हिन्दुस्तान की सबसे प्राचीन लिपि है । • अधिकांश लिपियाँ इसी लिपि से उद्भूत हुई हैं । अतः ब्राह्मी को समस्त लिपियों की जननी कहा जाता है। इस लिपि का ज्ञान हिन्दुस्तान में प्रचलित अन्य प्राचीन लिपियों को सरलता पूर्वक सीखने - पढने एवं ऐतिहासिक तथ्यों को समझने में अतीव सहायक सिद्ध होता है। * यह लिपि अपने समय की सर्वमान्य लिपि होने के कारण इसे राजाश्रय प्राप्त था ! • वैदिक-जैन-बौद्ध आदि धर्मग्रन्थों की रचना सर्व प्रथम इसी लिपि में हुई और इसे अन्य लिपियों की तुलना में अग्रक्रम में रखा गया । * यह लिपि शिलापट्टों अथवा ताम्रपत्र- लोहपत्र आदि पर नुकीली कील द्वारा For Private and Personal Use Only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ४० www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मार्च-अप्रैल २०१४ - खोदकर बायें से दायें लिखी जाती थी । विदित हो कि ब्राह्मी से निःस्रित शारदा, नागरी, मैथिल, ग्रंथ आदि समस्त लिपयाँ भी बायें से दायें ही लिखी जाती हैं, जो ब्राह्मी की परंपरा का ही अनुसरण करती हैं। संभवतः उस समय कागज, ताडपत्र, भूर्जपत्र, स्याही आदि लेखन-सामग्री का आविस्कार नहीं हुआ होगा, या हुआ भी होगा तो आज उसके साक्ष्य उपलब्ध नहीं हैं । अथवा दीर्घकाल पर्यन्त इन लेखों को चिरस्थाई बनाए रखने की दृष्टि से शिलाखण्ड ही सबसे उपयुक्त साधन रहे होंगे । अतः तत्कालीन बुद्धिजीवियों ने अन्य साधनों की अपेक्षा इन शिलाखण्डों, ताम्रपत्र- लोहपत्र आदि पर लिखने का निर्णय लिया होगा ! * ब्राह्मी लिपि में शिरो रेखा नहीं होती है, जो इसकी अपनी विशेषता है। विदित हो कि ग्रंथ एवं गुजराती आदि लिपियाँ भी शिरोरेखा के बिना ही लिखी जाती हैं। लेकिन शारदा, नागरी आदि लिपियों में शिरोरेखा का चलन है । • इस लिपि में अधिकांशतः समस्त उच्चारित ध्वनियों हेतु स्वतन्त्र एवं असन्दिग्ध चिह्न विद्यमन हैं । अतः इसे पूर्णतः वैज्ञानिक लिपि कहा जा सकता है। * अनुस्वार, अनुनासिक व विसर्ग हेतु स्वतन्त्र चिह्न प्रयुक्त हुए हैं जो आधुनिक लिपियों में भी यथावत स्वीकृत हैं । * व्याकरण-सम्मत उच्चारण स्थान के अनुसार वर्णों का ध्वन्यात्मक विभाजन है । * इस लिपि का प्रत्येक अक्षर एक ही ध्वनी का उच्चारण प्रकट करत है, जो समझने में सरल और पूर्णरूप से वैज्ञानिक है। * अक्षरों का आकार समान व श्लाका प्रविधि से अंकित करने का विधान मिलता है । For Private and Personal Use Only : अक्षरों की बनावट अत्यन्त सरल है । समस्त अक्षर सरल ज्यामितिक चिह्नों द्वारा निर्मित हैं। * मात्राओं के लिए अलग-अलग चिह्न प्रयुक्त हुए हैं, जो अक्षर के ऊपर या नीचे बायें अथवा दायें लगे हुए मिलते हैं। * दीर्घ मात्राओं का प्रयोग अत्यन्त अल्प हुआ है । इस लिपि में संयुक्त अक्षरों का प्रयोग बहुत कम हुआ है। Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुतसागर - ३८-३९ ४१ *विशेषतः संयुक्ताक्षर लिखते समय जिस अक्षर को पहले बोला जाये उसे ऊपर और बाद में बोले जाने वाले अक्षर को उसके नीचे लिखा जाता था । अर्थात् ब्राह्मी लिपि में संयुक्त अक्षर एक-दूसरे के नीचे लिखे जाते थे। ग्रंथ लिपि में भी इसी पद्धती का अनुसरण किया गया है। प्राचीन-नागरी-लिपिबद्ध पाण्डुलिपियों में भी कुछ संयुक्ताक्षर इसी प्रकार ऊपर से नीचे की ओर लिखे हुए मिलते हैं। * भारतीय प्राचीन इतिहास और संस्कृति का अध्ययन करने वाले शोधार्थीयों के ___ लिए यह लिपि सर्वश्रेष्ठ मार्गदर्शक की भूमिका अदा करती है। ब्राह्मी लिपि की वर्णमाला : ___मौर्य-वंशी सम्राट अशोक के शिलालेखों में उत्कीर्ण इस लिपि में प्रयुक्त स्वर एवं व्यंजन वर्ण निम्नवत हैं स्वर वर्ण लेखन प्रक्रिया उ (ऊ ऋ लु)! ए (ऐ) ओ (औ अं अः विदित हो कि ब्राह्मी लिपिबद्ध शिलालेखों में 'ऊ, ऋ, ऐ, औ' आदि दीर्घ स्वर वर्णों का प्रयोग नहीं हुआ है। अतः इन वर्गों के लिखित साक्ष्य नहीं मिलते हैं। लेकिन इन वर्गों के ह्रस्व स्वरूप का प्रयोग हुआ है । अतः इन ह्रस्व वर्गों के आधार पर दीर्घ वर्गों को निम्नवत् लिखा जा सकता है त्र औ . . . त्यंजन वर्ण लेखन प्रक्रिया क For Private and Personal Use Only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४२ मार्च-अप्रैल - २०१४ त CO2,IMO ल । व UDAI JI ष । स P. [3 संयुक्ताक्षर लेखन प्रक्रिया ब्राह्मी लिपिबद्ध लेखों में 'क्ष, त्र, ज्ञ' आदि संयुक्ताक्षरों तथा 'अ' वर्ण का प्रयोग भी देखने को नहीं मिलता है। लेकिन जैसा कि हमने ऊपर कहा है कि ब्राह्मी लिपि में संयुक्ताक्षर लिखने हेतु ऊपर से नीचे की ओर लिखा जाता था। अर्थात जिस अक्षर को आधा लिखना हो उसे ऊपर लिखकर दूसरे अक्षर को उसके नीचे लिख दिया जाता था । अतः इस प्रक्रिया के तहत इन संयुक्त वर्णों को निम्नवत लिखा जा सकता है __ क् + ए = क्ष । त् + र् = त्र ज् + ञ् = ज्ञ ++L- + १ = RE+hE मात्रा लेखन प्रक्रिया ब्राह्मी लिपि में मात्रा लेखन हेतु विशेषतः (-), (D) इन दो चिह्नों का प्रयोग हुआ है। ये चिह्न अक्षर के ऊपरी अथवा निचले हिस्से में दायें या बायें लगाये जाते थे, जो अलग-अलग मात्राओं का बोध कराते हैं। यथा . क | का | कि । की । कु कू के । कै । को को | कं । कः । +FFFFFFF++ + For Private and Personal Use Only Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रुतसागर - ३८-३९ www.kobatirth.org ब्राह्मी लिपि की बारहखड़ी Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४३ क का कि की कु कू के कै को कौ कं + f f † ± ≠ 7 7 ≠ f +· f t f ख खा खि खी खि खी खु खू खे खै खो खौ खं 1 7 7 † 2 2 1 1 7 7 7 ग गा गि गी गु गू गे गै गो गौ गं лак Клела пал घ घा घि घी घु घू घे घै घो घौ घं ७६ ढढ ५ ५ " छ छ छ tu w च चा चि ची चु चू चे चै चो चौ चं df d ď ď ď ď ddaa jad For Private and Personal Use Only 4 6 6 6 ♠♠ 1 1 6 ð d. छ छा छि छी छु छू छे छै छो छौ छं Ф Б Б Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४४ मार्च-अप्रैल - २०१४ ब्राह्मी लिपि की बारहखडी 0 ज जा जि जी जु जू जे जे जो जो जं E E É É Ę Ę E EEEE झ झा झि झी झु झू झे झै झो झौ झं PPPPFP ट टा टि टी टु टू टे टै टो टौ टं c६ ८८८८८६ ठ ठा ठिठी तु ठू ठे ठे ठो ठी ठं 0 0.0 0000-00-00' उ डा डि डी डु डू डे डै डो डौ डं P/27 ढ ढा ढि ढी दु दू ढे ढे ढो ढौ ढं ८ ८ ८दद है ह ४ For Private and Personal Use Only Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४५ श्रुतसागर - ३८-३९ बाली लिपि की बारहखडी ण णा णि णी णु णू णे णै णो णौ णं । I E I I II I II F I' त ता ति ती तु तू ते ते तो तो तं। > थ था थि थी थु थू थे थे थो यो थं ० ० ४ १२0 0 0 0 0 द दा दि दी दु दू दे = दो दौ दं 2 ईर न ना नि नी नु नू ने नै नो नौ नं। - ELE 1, 4, 11111 प पा पि पी पु पू पे पै पो पो पं et e ty kitttt For Private and Personal Use Only Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मार्च-अप्रैल - २०१४ ब्राह्मी लिपि की बारहखडी फ फा फि फी फु फू के फै फो फौ फं ७६८१ ७. ब बा बि बी बु वू दे बै बो बौ वं 0 rd Uppa P. भ भा भि भी भु भू भे भै भो भो भं तततात. म मा मि मी मु मू मे मै मो मो में ४ ४ ४ ४ ४४४४४४४. य या यि यी यु यू ये यै यो यो यं httti aa. I.I. र रा रि री रु रू ३ ३ रो रो रं । । [PPLE 11 . For Private and Personal Use Only Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रुतसागर - ३८-३९ ब्राह्मी लिपि की बारहखडी ल ला लि ली लु लू ले लै लो लौ लं चचचचचे च च चच चच ष षा षि षी ४६ व वा वि वी वु वे वै वो वौ वं 1 5 5 5 2 6 3 3 5 5 ő श शा शि शी ↑ T ট * कृ छट स सा १) सि सी क् ट یر تکه نام www.kobatirth.org है षु 6.2 ford वू शु शू शे शै शो शौ शं 1 ET नत्र त्र n. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir عر ४७ षे षै षो षौ षं t For Private and Personal Use Only ど सु सू से सै सो सौ सं dd zzzz di ह हा हि ही हि ही हु हू हे है हो हो हं 66 ৮ttttt Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ४८ तीर्थंकर अरिहन्त सिद्ध 1 ट प्रवहु आचार्य ब्राह्मी घ सुन्दरी तईई कनिष्क मुग्ध ४० चर्चा ह 1 अर्चना ४}[ अर्जुन ४६ लज्जा च है निरञ्जन [ {हा उह खड्ग www.kobatirth.org ब्राह्मी लिपि में संयुक्त्तत्रक्षर लेखन अभ्यास 18+8 वित्त प्रहस्त १ २ = २२ ३ ३३ ३ ४ +** ५ ४४ np५५५ ५ १२१ भक्त प्रहलाद पश्चिम सरस्वती भविष्य क्षत्रप ८ ह पद्म प्रतिष्यनि ५5 8. D© { धीरेन्द्र Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कैवल्य † ठर्चु ज्ञानबिन्दु हुम्बई ४४८d } मम्मटाचार्य हर मार्च-अप्रैल २०१४ st ब्राह्मी अंकों का विकासक्रम ८ ९ चन्द्रप्रभ d उज्ज्वल L لام For Private and Personal Use Only ५5 128 dr ge पु the ६ ६६६६६ ७ गुदन छुच 06666 4735८८८८ १२१२९९टटहरी Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुतसागर - ३८-३९ ब्राह्मी लिपि में नमस्कार महामंत्र लेखन अभ्यास THEFXT IY & SI IB HuffI 18 LÓ FI 18 JudgdI. AT UD IX FT do CotIdI ४.JTdget ८८४.७४:: ४ ब्राही लिपिबद्ध अशोक-कालीन गिरनार शिलालेख VA For Private and Personal Use Only Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५० मार्च-अप्रैल - २०१४ Spigm १२ETHNITERAFFENNNN INTERNEERISMENT HTTERTAI __MAHARRERALAKMENTERNET .. R, Assive ALANI ACADEMANDU प्राचीन भारतीय इतिहास के पुनर्निर्माण में ब्राह्मी-लिपि-बद्ध इन अभिलेखों की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। इनमें सिक्कों और मुहरों पर प्राप्त लेख भी सम्मिलित हैं। भारत के अनेक राजवंशों का इतिहास इन पुरालेखों के आधार पर ही रचा गया है। अतः स्पष्ट है कि ये लेख न केवल प्राचीन शासन व्यवस्था पर बल्कि संस्कृति के विविध पहलुओं पर भी प्रकाश डालते हैं। जैसा कि पूर्व में उल्लेख किया जा चुका है- यह लिपि सर्वदेश व्यापी लिपि के रूप में देखने को मिलती है। लेकिन देश-काल-परिस्थिति अनुसार इस लिपि के अक्षरों की संरचना में परिवर्तन भी हुआ, जो स्वाभाविक है। कालान्तर में शैली की दृष्टि से इसके उत्तरी तथा दक्षिणी लिपि के रूप में दो भेद हुए। दक्षिणी ब्राह्मी से दक्षिण भारत की मध्यकालीन तथा आधुनिक कालीन लिपियाँ अर्थात् तामिल, तेलुगु, मलयालम, ग्रंथ, कन्नडी, कलिंग, नंदीनागरी, पश्चिमी तथा मध्यप्रदेशी आदि लिपियों का जन्म हुआ। जबकि उत्तरी ब्राह्मी से शारदा, गुरुमुखी, प्राचीन नागरी, मैथिल, बंगला, उडिया, कैथी, गुजराती आदि विविध लिपियों का विकास हुआ। ई.सन की चौथी शताब्दी में उत्तरी ब्राह्मी लिपि के वर्षों में शिरोरेखा सदृश आकृति बनने लगी, कुछ वर्षों की आकृतियाँ नागरी सदृश तथा कुछ मामाओं के For Private and Personal Use Only Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुतसागर । ३८-३९ ५१ चिह्न परिवर्तित होने लगे। गुप्त राजाओं के प्रभाव से ब्राह्मी का यह रूप गुप्त लिपि कहलाने लगा। लगभग चौथी-पाँचवीं शताब्दी में इसका प्रचार समस्त उत्तरी भारत में था। छठी शताब्दी में गुप्त-लिपि के वर्गों की आकृति कुछ कुटिल हो गई। अतः ये वर्ण कुटिलाक्षर और लिपि कुटिल कहलाने लगी। इस लिपि का उत्तरी भारत में खूब प्रचार था। तत्कालीन शिलालेख तथा दानपत्र इसी लिपि में लिखे जाते थे। कुटिल लिपि से ही संभवतः आठवीं-नौवीं शताब्दी में शारदा एवं प्राचीन नागरी लिपयों का विकास हुआ। आधुनिक काशमीरी, टाकरी तथा गुरुमुखी लिपयों का निर्माण भी शारदा के आधार पर ही हुआ है। अस्तु आज ब्राह्मी लिपि के साथ-साथ शारदा, ग्रंथ, प्राचीन नागरी, नदीनागरी, नेवारी, कैथी आदि प्राचीन लिपियों का लेखन एवं पठन-पाठन कार्य पूर्णतः लुप्त हो चुका है। और इन लिपियों को जानने वाले भी गिने-चुने ही रह गये हैं। जबकि इन लिपियों में संरक्षित साहित्य हमें शिलालेखों, ताम्रपत्रों, ताडपत्रों, भूर्जपत्रों, हस्तनिर्मित कागजों, कपड़ों आदि पर प्रचुर मात्रा में लिखा हुआ मिलता है, जो न केवल भारत के ही ग्रन्थागारों में बल्कि विदेशों में स्थित विविध संग्रहालयों में संगृहीत है। एक समय इसी ज्ञान संपदारूपी धरोहर के कारण हिन्दुस्तान को जगद्गुरु का खिताव हाँसिल था। यद्यपि भारत सरकार के मानव संसाधन एवं विकास मंत्रालय ने इन प्राचीन लिपयों के अध्ययन, संरक्षण एवं पठन-पाठन हेतु लगभग दस वर्ष पूर्व इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय कला केन्द्र-दिल्ली के प्रांगण में राष्ट्रीय पाण्डुलिपि मिशन की स्थापना की है, जो समय-समय पर संपूर्ण देश में पाण्डुलिपि एवं पुरालिपिविज्ञान अध्ययन कार्यशालाओं का आयोजन कर इन प्राचीन लिपियों को जीवित रखने का प्रयास कर रहा है। कुछ विश्वविद्यालय एवं संग्रहालय भी इन लिपियों के पठन-पाठन हेतु प्रयासरत हैं। गुजरात के अहमदाबाद एवं गांधीनगर के मध्य स्थित आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर-कोबा में भी प्राचीन लिपियों के पठन-पाठन, हस्तप्रत संरक्षण, सूचिकरण एवं पुरातात्विक सामग्री संरक्षण तथा प्रशिक्षण का कार्य बड़े पैमाने पर किया जा रहा है, जो सराहनीय है। अस्तु हमने यहाँ ब्राह्मी लिपि का किंचित परिचय प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। आशा है गवेषक इस प्राचीन भारतीय धरोहर को युग-युगान्तरों तक जीवित रखते हुए आगे आनेवाली पीढियों को सुरक्षित पहुँचाते रहेंगे। For Private and Personal Use Only Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मार्च-अप्रैल - २०१४ संदर्भ ग्रन्थ १. अशोक कालीन धार्मिक अभिलेख, संपा. - गौरीशंकर हीराचंद ओझा एवं श्यामसुन्दरदास २. प्राचीन भारतीय लिपिशास्त्र एवं मुद्राशास्त्र, लेखक - एम.पी.त्यागी एवं आर.के.रस्तौगी ३. अशोक अने एना अभिलेख, लेखक - गंगाशंकर शास्त्री ४. अशोकना शिलालेखो, लेखक - भरतराम भानुसुखराम महेता ५. भारतीय पुरालिपि विद्या, लेखक - दिनेशचंद्र सरकार ६. लिपि विकास, लेखक - राममूर्ति मेहरोत्रा एम.ए. ७. भारतीय पुरालिपि विद्या, लेखक - दिनेशचंद्र सरकार ८. ब्राह्मीलिपि का उद्भव और विकास, संपा. डॉ. ठाकुरप्रसाद वर्मा ९. अशोक की धर्मलिपियाँ (भाग-१) - काशी नागरीप्रचारिणी सभा १०. अशोकना शिलालेखो ऊपर दृष्टिपात, लेखक - श्री विजयेन्द्ररूरि ११. भारतीय पुरालिपि शास्त्र, लेखक - जार्ज ब्यूलर १२. वातायन (भारतीय लिपिशास्त्र एवं इतिहास के कुछ नवीन संदर्भ), लेखक ___ - डॉ. विन्ध्येश्वरी प्रसाद मिश्र 'विनय' १३. प्राचीन भारतीय लिपि एवं अभिलेख, लेखक - डॉ. गोपाल यादव १४. ब्राह्मी सिक्के कैसे पढ़ें, लेखक - श्री प्रदीप दत्तुजी वनकर १५. भारतीय प्राचीन लिपिमाला, संपा. गौरीशंकर हीराचंद ओझा १६. भारतीय जैन श्रमण संस्कृति अने लेखन कला, लेखक - मुनिश्री पुण्यविजयजी म. सा. १७. पन्नवणासूत्र, - अक्षयचंद्रसागरजी म. सा. - आनन्द प्रकाशन अहमदाबाद से प्रकाशित १८. समवायांगसूत्र, संपा. जंबविजयजी म. सा.. जिनशासन आराधना ट्रस्ट, मुंबई से प्रकाशित १९. ललितविस्तर, उत्तरप्रदेश हिंदी संस्थान लखनऊ से प्रकाशित २०. पाण्डुलिपि विज्ञान, लेखक - डॉ. सत्येन्द्रजी, राजस्थान हिंदी ग्रंथ अकादमी जयपुर से प्रकाशित २१. शारदा मंजूषा, संपा. डॉ. अनिर्वाण दास, वाराणसी से प्रकाशित For Private and Personal Use Only Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सम्राट् संप्रति संग्रहालयना प्रतिमा लेखो संकलन - हिरेन के. दोशी आजे आपणी पासे परंपरा अने श्रमण संस्कृतिनो क्रमबद्ध इतिहास प्राप्त नथी, इतिहासना अप्रकाशित केटलाय तत्त्वो ग्रंथ भंडारो, ताम्रपत्रो, शिलालेखो, अने प्रतिमालेखोभा धरबायेला छे. प्रतिलेखन पुष्पिकाओ, ताम्रपत्रो, शिलालेखो, अने प्रतिमालेखो आवी केटलीय ऐतिहासिक सामग्रीओथी ऐतिहासिक तत्त्वमुं अनुसंधान करी शकाय छे. आवी ऐतिहासिक साधन सामग्रीओमां प्रतिमालेखो अग्रता क्रमे छे. प्रतिमा लेखोमा सामान्यथी बे प्रकार मळे छे. १ पाषाण प्रतिमा लेखो, २ धातु प्रतिमा लेखो धातु प्रतिमानी अपेक्षाए पाषाण प्रतिमामा लेखो बहु ओछा प्राप्त थाय छे. प्रतिमा लेखोमां श्रमण परंपरा अने तत्कालीन श्राद्ध परंपरा अखंड रूपे प्राप्त थाय छे. __ श्रमण परंपराना ईतिहासमां खूटती कडीओनुं अनुसंधान करवामां प्रतिमा लेखो बहु महत्त्वनो भाग भजवे छे. पूज्यपाद् गुरुदेव श्रीमद् आचार्य श्रीपद्मसागरसूरीश्वरजी महाराज प्रभु शासनना आवा ऐतिहासिक मूल्योनी काळजी अने जतन माटे सतत उद्यमशील अने कांईक करी छूटवानी भावना धरावी, प्रभु शासननी शान अने गरिमाने हृष्ट पुष्ट करता रहे छे. पूज्य गुरुमहाराजना अथाग प्रयत्नथी निर्मित आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर अने सम्राट् संप्रति संग्रहालयमां आवी केटलीय ऐतिहासिक सामग्रीओ संकलित, संग्रहीत अने सुरक्षित छे. संग्रहालयमा रहेला धातु अने पाषाण प्रतिमाना लेखो अहीं प्रस्तुत छे. आ लेखोने उतारी आपवानुं पुण्यकार्य परम पूज्य शासनसम्राटश्री नेमिसूरिजी म.सा.ना समुदायना आचार्य भगवंत श्रीसोमचंद्रसूरीश्वरजी महाराज साहेब अने एमना शिष्य परिवारे करी आप्युं छे. संग्रहालयमा जे क्रमांके धातु-प्रतिमाओ नोंधायेल छे. ते क्रमानुसार ज प्रतिगाना लेखो प्रकाशित करीए छीए. विभागीय नं. ७१, संभवनाथ भगवान, पंचतीर्थी ।। संवत १५८४ वर्षे वैशाख शुदि पंचमी दिने प्रा. लघुशाखायां दो. कडूआ भा. दानू पुत्र दो. वलाकेन भा. वहिजलदे पुत्र दो. आसायुतेन श्री शंभवनाथबिंब कारितं प्रतिष्ठित श्रीसूरिभिः ।। श्रीकल्पवल्लीग्रामे ।। For Private and Personal Use Only Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ............... मार्च अप्रैल - २०१४ विभागीय नं. ७६, शीतलनाथ भगवान, पंचतीर्थी सं. १५३० वर्षे माघ शुदि ५ रवौ बरड वा. ओसवंशे गो. गांधी सा. हासापासा पाल्हा सधारण दा. भा, हासूप्रमुखयुतेन स्वश्रेयसे श्रीसीतलनाथविंबं कारितं प्रतिष्ठितं श्रीअंचलगच्छे श्रीसद्धांतसागरसूरिभिः ।।१।। विभागीय नं. ७७, पार्श्वनाथ भगवान, एकलतीर्थी सं. १३५० व. वै. सु. १३.............. श्रीपार्श्वबिंब कारित प्र... श्रीश्रीसींहसूरिभिः प्रतिष्ठितं विभागीय नं. ७८,सुविधिनाथ भगवान, पंचतीर्थी सं. १५०७ वर्षे माघ सुदि ११ श्रीश्रीमा. महं. हरीया भा. हीरादे सुत तेजाकेन पित्रोः श्रेयसे श्रीसुविधिनाथबिंब कारितं प्रतिष्ठितं भावडारगच्छे श्रीवीरसूरिभिः ।। विभागीय नं. ७९*, आदिनाथ भगवान, एकलतीर्थी ...आषाढ वदि २ बुधौ श्रीमूलसंघे श्रीदेवनंदि...........? नंदनवत्यर्थं बि. का. प्रतिष्ठापि प्रणमति मीतण ? गोत्रः सा. सौराजसा आबू सा. खीसीह प्रणमति. विभागीय नं. ८०, संभवनाथ भगवान, पंचतीर्थी ................. श्रीधर्मसिंहसूरिभिः ............. विभागीय नं. ८१,पार्श्वनाथ भगवान,त्रितीर्थी ढाढा सुत संतिकेन कारिता विभागीय नं. ८७, कुंथुनाथ भगवान, पंचतीर्थी सं. १४९१ .......................... ताभ्यां मातृपितृश्रेयोर्थं श्रीकुंथनाथ बिं. का. प्र. श्रीधर्मघोषगच्छे भ. श्रीविजयचंद्रसूरिभिः विभागीय नं. ९०, जिनप्रतिमा, रितीर्था सं. १३८३ पोस वदि .... प्रा. श्रे. अज भार्याश्रेयसे सुत वीसलेन श्रीशांतिनाथबिंबं कारितं प्रतिष्ठितं कू. श्रीमहेंद्रसूरिभिः विभागीय नं. ९१, आदिनाथ भगवान, एकतीर्थी सं. १३९१ वर्षे प्रा. ज्ञा. श्रे. केलण..........भा, लपु............. केन... * आ प्रतिमानो घणो माग नष्ट थयेल छे. For Private and Personal Use Only Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुतसागर - ३८-३९ पित्रो श्रेयसे श्रीआदिदेव का. प्र. श्रीसर्वदेवसूरिभिः विभागीय नं. ९४,शीतलनाथ भगवान, पंचतीर्थी संवत १६४६ वर्षे श्रीमालीज्ञातीय सं. मेघा श्री पार्श्वनाथबिंब श्रीहीरविजयसूरिभिः प्रतिष्ठित । विभागीय नं. ९८, वासुपूज्यस्वागी भगवान, एकलतीर्थी सं. १६७८ वै. शु. ३ उ. ज्ञा. मंगाईकया वासुपूज्यबिं का. प्र. त. त. विभागीय नं. १००, धर्मनाथ भगवान, पंचतीर्थी सं. १४९५ वर्षे फा. व. ९ प्राग्वाटज्ञातीय सा. पाल्हा भा. खेतू सुत जेसाकेन भार्या जसमादेयुतेन पितृ श्रेयसे श्रीधर्मनाथबिंब कारितं प्रतिष्ठितं तपागच्छे श्रीदेवसुंदरसूरिपट्टालंकारश्रीसोमसुंदरसूरिभिः ।।श्रीः।। विभागीय नं. १०१, पार्श्वनाथ भगवान, एकलतीर्थी श्री अंचलगेछे सा. जीवण पुण्यार्थं पूतली का. विभागीय नं. १०१, पार्श्वनाथ भगवान, एकलतीर्थी पार्श्व. पंच. ठाकर सीरण विभागीय नं. १०३,पार्श्वनाथ भगवान, एकलतीर्थी श्रीमूलसंधे श्रीभुवनकीयादेशात् १२३५ संकेतसूचि का, कारितं भा. भार्या म. महत्तम, मंत्री बि. बिंब श्रीमा, श्रीमाल पार्श्व. पार्श्वनाथ कू. कुकुदाचार्यगच्छे(?) दो. दोशी प्र. प्रतिष्ठित पंच. पंचतीर्थी सा. साह सं. संधवी, संवत मं. मंत्री पु. पुत्र श्रे, श्रेष्ठी For Private and Personal Use Only Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्वाध्याय तप : एक परिचय कनुभाई एल. शाह सारा साहित्यना स्वाध्यायनुं जीवनमां प्राचीन काळथी महत्त्व अंकायुं छे. उपनिषद काळमां ज्यारे विद्यार्थी आश्रममाथी पोतानुं शिक्षण पूरुं करीने विदाय ले त्यारे तेने गुरु तरफथी केटलीक शिक्षाओ / शिखामणो आपवामां आवती हती. तेमांनी एक महत्त्वनी शिखामण छे स्वाध्याय 'स्वाध्याय मा प्रमदः' एटले के स्वाध्ययमां प्रमाद करवो नहि. स्वाध्याय एक एवी किंमती वस्तु छे के गुरुनी राजमां पण गुरुनुं कार्य करे छे. शरीर माटे पौष्टिक खोराक जेटलो जरूरी छे एटलो ज आत्मा माटे स्वाध्यायरूपी खोराक जरूरी छे. स्वाध्याय द्वारा मानवी एक नवी ऊर्जा प्राप्त करे छे. स्वाध्यायनी गेरहाजरीमां मनुष्यनुं मगज जडवत् बने छे, चिंतन शक्ति नाश पामे छे. मानवी पोताना जीवन दरमियान अनेक प्रवृत्तिओ करे छे तेमां आत्मा माटे स्वाध्यायरूपी प्रवृत्तिथी मानवी सुसंस्कृत बने छे, चिंतनशील बने छे, पोताना सुख / दुःखनी साथे अन्यनां सुख दुःखनो पण विचार करतो थाय छे. - स्वाध्यायथी प्राप्त थतो आनंद संसारमाथी प्राप्त थता आनंदोमां सौथी चढियातो छे, श्रेष्ठ छे. स्वाध्याय द्वारा जीवनमां आत्मबोध, आत्मज्ञान अथवा कही शकाय के जीवन सुखमय बनाववानो जीवनमंत्र मळे छे. संसारना सुख दुःखो करतां आत्माना सुख प्रदेशना विचारमंत्रनी प्राप्ति सहज बने छे. आ प्रकारनुं मळतुं शिक्षण क्यांयथी पण मळी शके एम नथी. स्वाध्यायनुं महत्त्व जैन परम्परामां सविशेष छे. स्वाध्यायनो सरळ अर्थ थाय छे, स्व + अध्ययन, पोतानुं अध्ययन. 'स्वाध्याय' शब्दनी संधि छूटी पाडीए तो - स्व + अधि + आय पण थाय छे एटले के पोताना द्वारा पोताना आत्मानुं अध्ययन अथवा आत्मबोध. स्वाध्याय शब्दमां सु + आ + अध्याय एम त्रण शब्दो छे. सु सारी रीते, आ = मर्यादा, काळवेळानो त्याग करीने, अध्याय = भणवुं ते स्वाध्याय. तपना प्रकारो तपना प्रकारो जाणतां पहेलां तप कोने कहेवाय अने ते करवानो हेतु स्पष्टपणे जाणी लेवानी जरूर छे. महर्षिओए तपनी व्याख्या घणी व्यापक रीते करी छे - For Private and Personal Use Only = Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५७ श्रुतसागर - ३८-३९ 'रसरुधिर मांस मेदोस्थिमज्जा शुक्राण्यनेन तप्यन्ते । कर्माणि चाशुभानीत्यस्तपो नाम नैरुक्तम् ।।" एटले के 'जे क्रियावडे शरीरना रस, रुधिर, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा अने शुक्र सात धातुओ अथवा अशुभ कर्मनो समूह ताप पामे - शोषण पामे तेने तप कहेवाय. आ तपश्चर्या करवामां शरीरनी शक्तिनो पण ख्याल अनिवार्यपणे राखवो जोईए - एवी तपश्चर्या न थवी जोइए के जे आर्तध्यानादिनु कारण बने. जैन शास्त्रोमां तपना बे प्रकार कह्या छे : (१) बाह्यतप (२) अभ्यंतर तप. बाह्यतप : बाह्यतप छ प्रकारनो छे. (१) अनशन (२) ऊनोदरिका (३) वृत्तिसंक्षेप (४) रसत्याग (५) कायक्लेश (६) संलीनता. अभ्यंतर तप : अभ्यंतर तप पण छ प्रकारनो छे. (१) प्रायश्चित (२) विनय (३) वैयावृत्य (४) स्वाध्याय (५) ध्यान अने (६) कायोत्सर्ग. उपरोक्त जणावेलां बाह्य अने अभ्यंतर तपने विशे विस्तारथी न जोतां फक्त अभ्यंतर तपमां चोथा प्रकारना स्वाध्याय तप विशे जोईए. स्व एटले पोतानो आत्मा. तेना उद्धार अर्थे कल्याणकारी शास्त्रोनुं अध्ययन करघु तेने स्वाध्याय कहेवाय छे. स्वाध्यायमां रत रहेनार अनेक प्रकारनी अप्रशस्त प्रवृत्तिओने रोकी पोताना आत्माने शुभ अध्यवसायवाळो करी शके छे, तेथी तेनो समावेश अभ्यंतर तपमां करेलो छे. शास्त्रकारो रवाध्यायना पांच प्रकार आपे छे. वाचना : शास्त्रनो मूल पाठ तथा अर्थो ग्रहण करवा ते. पृच्छना : जे भण्यु होय तेमां शंका पडतां सूत्र अर्थ संबंधी पृच्छा करवी ते. परावर्तना : ग्रहण करेला पाठ तथा अर्थोनुं पुनरावर्तन करवू ते. अनुप्रेक्षा : भणेला श्रुतर्नु मनमां चिंतन करवू. धर्मकथा : परस्परनी उपकार बुद्धिथी करातो वचनयोगनो व्यापार. आ पांच प्रकारना स्वाध्यायथी आत्मानुं ध्यान थाय छे माटे ए पांचने स्वाध्याय कहेवामां आवे छे. साधके दररोज स्वाध्याय करवो जोइए. श्रेष्ठ पुस्तकोना वाचनमनन परिशीलननी जीवन पर ऊंडी असर पडे छे. अंतरशुद्धि इच्छनार मनुष्योए हमेशा अमुक समय सुधी उत्तम पुस्तकोनुं वाचन-मनन तथा परिशीलन करीने १. तप अने तपस्वी : पृ. ५ For Private and Personal Use Only Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५८ मार्च-अप्रैल - २०१४ स्वाध्याय-तप करवू जोईए. स्वाध्यायना लाभो : स्वाध्याय शब्दथी गोखेलानो पोपटनी जेम पाठ करी जवो एम नथी, परंतु चिंतन-मननपूर्वक वाचवू, सांभळवू, पूछ, वगेरे समजवू. आवा स्वाध्यायथी आत्महितज्ञान, भावसंवर, नवीन संवेग, स्थिरता, तप, निर्जरा अने परबोध ए सात महान लाभो प्राप्त थाय छे. __ आत्महितज्ञान : स्वाध्यायथी आत्महितनुं ज्ञान थाय छे. आत्मानुं मूळ स्वरूप के, छे, वर्तमानमा आत्मानुं स्वरूप केबुं छे अने कया कारणथी छे? आत्माने वर्तमान स्वरूपमाथी छोडावी मूळ स्वरूपमां केवी रीते लावी शकाय वगेरे ज्ञान स्वाध्यायथी थाय छे. भावसंवर : स्वाध्याय करवाथी भावसंवर थाय छे. संवर एटले कर्मबंधनो अभाव. परंतु अहीं सर्वथा कर्मबंधनो अभाव न समजवो, अशुभकर्मना बंधनो अभाव समजवो. अशुभ कर्मोनुं मुख्य साधन मन छे. स्वाध्याय करती वखते मन स्वाध्यायमां ज केंद्रित बनी जाय छे. स्वाध्याय शुभभाव छे, आथी ते वखते मन पापना विचारोथी रहित बनी जतुं होवाथी अशुभ कर्मनो बंध थतो नथी, शुभभाववाळू होवाथी शुभकर्मनो = पुण्यानुबंधी पुण्यनो बंध थाय छे. ___ नवीन संवेग : स्वाध्यायथी नवो नवो संवेग उत्पन्न थाय छे. रांवेग एटले सुदेव, सुगुरु, सुधर्म प्रत्ये अखंड राग = श्रद्धा. जेम जेम रवाध्याय थतो जाय तेम तेम श्रुतज्ञान वधतुं जाय. जेम जेम श्रुतज्ञान वधतुं जाय तेम तेम देव-गुरु, धर्म प्रत्येना रागमां-श्रद्धामां वृद्धि थती जाय छे. कारण के श्रुतज्ञानथी देव-गुरु धर्मनी महत्ता विशेष समजाय छे. स्थिरता : स्वाध्यायथी श्रद्धामां अने संयममां (= व्रत-नियमोमां) स्थिरता थाय छे. श्रद्धा अने संयम विना मोक्ष न थाय. श्रद्धा अत्यंत दुर्लभ छे. श्रद्धा थया पछी संयम अति दुर्लभ छे. संयमथी मोक्ष थाय, संयमथी मोक्ष तो ज थाय जो संयम श्रद्धायुक्त होय तो, श्रद्धायुक्त संयम बहु ज दुर्लभ छे. जेम श्रद्धायुक्त संयम दुर्लभ छे, तेम श्रद्धा अने श्रद्धायुक्त संयम मळ्या पछी तेमां स्थिर बनवु ए घणुं कठीन छे. श्रद्धा अने संयममां स्थिर रहेवाना अनेक उपायोमा स्वाध्याय उत्तम साधन छे. स्वाध्यायथी श्रद्धा अने संयमनी प्राप्ति थाय छे, अने तेमां स्थिरता थाय छे. तप : स्वाध्यायथी तपनी आराधना थाय छे. कारण के स्वाध्याय एक प्रकारनो तप छे, स्वाध्याय ए अभ्यंतर तप छे. जैनशासनमां बाह्य तप करतां अभ्यंतर तपनी महत्ता विशेष दर्शावी छे. आ अंगे महा महोपाध्याय श्री यशोविजयजी For Private and Personal Use Only Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुतसागर - ३८-३९ महाराजे कर्तुं छे के : ज्ञानमेव बुधा-प्राहुः कर्मणां तपनात् तपः । तदाऽभ्यन्तरमेवेष्टं, बाह्यं तदुपबृंहकम् ।।' कर्मने तपावे-बाळे ते तप. मुख्यपणे ज्ञान ज कर्मने बाळतुं होई पंडितो ज्ञानने ज तप कहे छे. बाह्य अने अभ्यंतर ए बेमां मुख्यतया अभ्यंतर तप ज तपरूपे इष्ट छे. बाह्य तप तो अभ्यंतर तपनी पुष्टि-वृद्धि करनार होवाथी तप रूपे इष्ट छे. छ प्रकारना अभ्यंतर तपमां पण स्वाध्यायनी महत्ता अधिक बतावी छे. आथी ज कह्यु छे के : वारसविहम्मि वि तवे, सब्भिंतरबाहिरे कुशलदिढे । नवि किंचि अस्थि होही, सज्झायसमं तवो कम्म ! IP 'जिनेश्वरोए बतावेला बाह्य अने अभ्यंतर तपना बार भेदोमां स्वाध्याय समान कोइ तप नथी, अर्थात् बारे प्रकारना तपमा स्वाध्याय रूप तप सर्वश्रेष्ठ छे.' । निर्जरा : स्वाध्यायथी पूर्वे बंधायेला अशुभकर्मोनी निर्जरा थाय छे. जो के जैनशासनमां उपयोगपूर्वक करेला कोइ पण अनुष्ठानथी निर्जरा थाय छे. तेम छतां तपथी विशेष निर्जरा थाय छे अने तपमां पण स्वाध्यायथी विशेष निर्जरा थाय छे. कारण के स्वाध्यायथी त्रणे योगनी शुद्धि थाय छे. स्वाध्याय रूप योगमां विशेष कर्मो खपावे छे. स्वाध्यायमां वर्ततो जीव मनोगुप्ति, वचनगुप्ति अने कायगुप्ति ए त्रण गुप्तिओथी युक्त थतो होवाथी प्रत्येक समये ज्ञानावरणीय कर्मने खपावे छे, अने क्षणे क्षणे वैराग्यने पामे छे. परबोध : स्वाध्यायथी बीजा जीवोने बोध पमाडी शकाय छे. स्वाध्याय करीने ज्ञानी बनेलो जीव बीजा जीवोने धर्मोपदेशथी धर्म पमाडी शके. सर्व धर्मोमां परोपकार धर्म उत्तम छे. सर्व परोपकारोमां धर्मोपदेश रूप परोपकार श्रेष्ठ छे. स्वाध्यायथी धर्मोपदेशरूप परोपकार करवानो अमूल्य लाभ प्राप्त थाय छे शास्त्रमा बतावेला परबोधथी (बीजाने ज्ञान आपवाथी) अनेक लाभो प्राप्त थाय छे. तपश्चर्याना प्रभावथी अनेक प्रकारनी सिद्धिओ प्राप्त थाय छे. के जेने शास्त्रीय परिभाषामां लब्धि कहेवामां आवे छे. विष्णुकुमार मुनिने आकरी तपश्चर्याना प्रभावथी अनेक प्रकारनी लब्धिओ प्राप्त थई हती. आ प्रमाणे स्वाध्याय तपथी १. तप करीए भवजल तरीए : पृ. २८१, २. १. तप करीए भवजल तरीए : पृ. २८२ For Private and Personal Use Only Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६० मार्च-अप्रैल - २०१४ अनेक लाभो थता होइ बधा साधको ए सदा स्वाध्याय करवो जोईए. रोजे रोज नवं ज्ञान प्राप्त कर जोईए. सहना जीवननी एक एक क्षण महत्त्वनी छे. तेथी ज प्रभु महावीर परमात्माए श्री गौतमस्वामीने कह्यु के. हे गौतम, एक समय पण प्रमाद न कर. गौतमस्वामी जरा पण प्रमाद करता न हता. सदा अप्रमत्त रहेता हता, छतां आवो उपदेश आपवानुं कारण एटलुं ज के बीजा साधुओ वगेरेने समयनी महत्ता समजाय. साधुओ ए सदा संयममां, संयमना अनुष्ठानोमां रत रहेवू जोईए एटले के जे वखते प्रतिलेखनादि जे क्रिया करवानी होय, ते वखते ते क्रिया करवी जोईए. बाकीना समयमा स्वाध्याय करवो जोईए. आथी ज भुवनदेवीनी स्तुतिमा साधुओ माटे विशेषण वापर्यु छ : नित्यं स्वाध्याय संयमरतानां । घरनी सफाई दररोज करवी पड़े छे, कपडां रोज धोवां पडे छे, शरीरनी सफाई पण दररोज करवी पडे छे. तेवी रीते अंतःकरणनी सफाई माटे ‘स्वाध्याय' अनिवार्य छे. आवा प्रकारनो विशिष्ट कर्म निर्जराकारक स्वाध्याय आपणा सहुना जीवनमा प्रतिदिन मळो. संदर्भ साहित्य १. कापडिया बिपिनचंद्र हीरालाल जैनधर्मनां स्वाध्याय-सुमन मुंबई, जैन युवक संघ, ई.स. २०००, किं. रू. १००, पृ. २५६ २. दोशी, सरयु विनोद (संकलनकर्ता) जैन व्रत तप, मुंबई, नवभारत साहित्य मंदिर, ई. स. २००२, किं. रू. १५०, पृ. ३१२ ३. आ. राजशेखररारि म. साहेब तप करीए भवजल तरीए, भिवंडी, वि अरिहंत आराधक ट्रस्ट इ. स. २००२, किं. पठन-पाठन, पृ. ३८४ ४. शाह धीरजलाल टोकरशी तपनां तेज, वडोदरा, मुक्तिमल जैन मोहनग्रन्थमाळा, वि. सं. २००८. किं. १.०० पृ. ७२ ५. तप अने तपस्वी अमदावाद, दिव्य दर्शन कार्यालय, वि. सं. २०१३, पृ. ३२ For Private and Personal Use Only Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir फागुबंध काव्यनुं स्वरूप अने नारीनिरास फागना कर्ता' पं. अंबालाल प्रेमचंद शाह गुजरातनी साहित्य संपत्ति वधारवामां जैन कविओनो फाळो मुख्य छे. तेमनुं ऋण गूजरात कदी भूली शके एम नथी. ते साहित्य-रत्नोने संग्रही राखता जैन भंडारोमा प्राचीन गूजराती भाषामां रचायेला विविध प्रकारनां काव्यो तो थोकबंध मळी आवे छे. तेमां रासा, फागु, विवाहलो, बारमासा, संधि, हरियाली, स्वाध्याय अने स्तुति-स्तोत्रो जेवां नाना प्रकारनां गीतो पण होय छे.छता हरेकमां भिन्न भिन्न स्वरूपनी एक शैली अवश्य होय छे. अहीं हुं प्रस्तुत फागु काव्यना संशोधन अंगे, फागुबंध काव्यना स्वरूप संबंधे, कंईक आलेखवा धारुं छु. 'जैन सत्य प्रकाश'ना वर्ष ११ना छठ्ठा अंकमां 'आपणां 'फागु' काव्यो' अने वर्ष ११ना ७मा अंकमां 'आपणां 'फागु' काव्यो संबंधमां थोडी सूचना' ए शीर्षक हेठळ प्रो. हीरालाल कापडिया अने पं. लालचंद भ. गांधीए क्रमशः विवेचनो आपेलां छे, पण तेगांथी के बीजेथी पण 'फागु' काव्यना स्वरूप संबंधे कशुं जाणवा मळतुं नथी. "फागु काव्यो'नां जेटलां प्रसिद्ध-अप्रसिद्ध नामो मळी आवे छे तेनी एक लांबी यादी श्री कापडियाए आपी छे. तेनी अनुपूर्ति रूपे पं. लालचंदभाई ए तेम ज श्री अगरचंदजी नाहटाए पण तेमां केटलांक नामो उमेर्यां छे. प्रकाशित थयेलां 'फागुकाव्यो' उपर दृष्टि नांखतां तेमां एक शैली विशेष तरत जणाई आवे छे. ए जोतां एना स्वरूप संबंधे एवो निर्णय करी शकाय के 'फागु' ए गीत, छंद के काव्यनुं नाम नथी, पण फागु शब्दालंकारवाची अनुप्रासात्मक होय एम जणाय छे. संस्कृतमा जेम यमकबंध अनुप्रासगय काव्य होय छे तेने ज भाषामा 'फागबंध' कही शकाय. फागमा ४८ मात्रानो दोहा छंद ज होय छे. एटले प्रथम अने त्रीजा * श्रुतसागर अं. नं. ३५मां पं. नंदिरत्नगणिना शिष्य पंडित रत्नमंडन गणि कृत दान विषयक मेघवाहननृप कथा प्रकाशित थई हती. विद्वानोने माहिती प्राप्त थाय ए हेतुसर एनी प्रस्तावना विगेरेमा मेघवाहन राजानी कथाना कर्ता विशे विचार विमर्श रजु करायेल. ए बावते वधु प्रकाश पाडता वे लेखो ई. स. १९४७ना वर्षमां जैन सत्यप्रकाशना माध्यमे प्रकाशित थयेला. आम तो आ लेखो अमारे ते कथानी साथे ज प्रकाशित करवानी भावना हती. परंतु स्थानाभावे आ विमर्शने प्रकाशित करवू शक्य न बन्यु. अत्रे यथावत् प्रकाशित करेल पं. रत्नमंडन गणि विशे पंडितवर्य श्री अंबालालमाई अने पंडितवर्य श्री लालचंदजी बच्चे थयेला विचार विमर्श वाचकोने अवश्यमेव उपयोगी बनशे. ए आशा अस्थाने नथी. For Private and Personal Use Only Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मार्च-अप्रैल - २०१४ पादनी अंते अने बीजा तथा चोथा पादनी आदिमां यमक अनुप्रास गोठवेला होय तेने 'फागुबंध' कही शकाय. गीतनी लढणमा पण आवो यमक प्रास कानने मधुर लागे छे. उदा. तरीके जुओ. "अणहिलवाडउं पाटण, पटणनयर जे राउ। दीसई जिहां श्री अरिणहर, मणोहर संपद ठाउ." ||८|| - जैन ऐतिहासिक गूर्जर काव्यसंचय. 'देवरत्नसूरि फाग' पृ. १५१. "अहे पंच वरिस लगइ लालीअ, पालीअ अति सुकुमार। तातइ उच्छच बहु कीउ, मुंकीउ सुत नेसाल." ||१४|| - एजन. 'हेमविमलसूरिफाग' पृ. १८७ "पहिलूं सरसति अरचीसू, रचीसू वसन्तविलास। वीण धरइ करि दाहिण, वाहण हंसलु जास." ||१|| पहुतीय तिउणी हिव रति, वरति पहुती वसंत । दह दिसि पसरइ परिमल, निरमल थ्या नभ अंत." ||२|| - प्राचीन गूर्जर काव्य 'वसंतविलास' पृ. १५ "वारिउ मोह मतंगज, गजगति जग अवतंस। जसु जस त्रिभुवनि धवलिय, विमलिय यादववंस."]| ___- श्री आत्मानंद जन्म शताब्दि स्मारक अंक - 'नेमीश्वर चरित' ___ फागबंध पृ. ४७. (२) आविय मास वसंतक, संत करई उत्साह । मलयानिल महि वायउ, आयउ काम गिदाह, ।।१७।। - ‘फागुकाव्य' नतर्षि. समरवि त्रिभुवनसामणि, कामणि सिर सणगारु। कवियण वयणि जा वरसइ, सरस अमिउ अपारु. ।।१।। - पावागढथी वडोदरामां प्रगट थयेला जीरावला पार्श्वनाथ - 'जीरापल्ली पार्श्वनाथ फागु' पृ. ६७ आ अवतरणो उपरथी आपणे उपर्युक्त निर्णय पर सहेलाईथी आवी शकीए. आ पद्धतिए ‘फागुबंध' काव्यने चकासीए तो "ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह" ना पृ. २१५मां आपेला "गुर्वावलि फाग'ने 'फागबंध' नाम आप, ए भूल गणाय. For Private and Personal Use Only Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुतसागर · ३८-३९ श्रीनाहटाजीए "जैन सत्य प्रकाश'' ना वर्ष ११ना १२मा अंकमां जणावेल ‘पाँच पांडव फागु' अने 'जिनचंद्र सूरि फांगु’ मां जो उपर्युक्त रचनाशैली आलेखायेली न होय तो ‘फाग' नाम आपी शकाय नहि, एवं मारुं मंतव्य छे. ___ 'फागवंध' काव्योमां शंगारिक के फटाणा जेवं वर्णन होवं जोईए एवं नथी होतुं, पण मोटे भागे वसंतवर्णनमां एनो उपयोग थयेलो जोवाय छे. एटले एमां कोई व्यक्तिनुं चरित होय के ऋतुकाव्य होय पण उपर्युक्त पद्धति ज तेमा मुख्य होय छे. श्री कापडियाए आपेली यादीमां, मारी पासे पण एक 'वसंतशंगार फाग' नामे फागबंध काव्य छे, ते पण उमेरी शकाय. एमां एना कर्तानुं नाम नथी. पण एमां विशिष्ट प्रकारनी कवित्वनी चमक छे; एटलं अहीं जणावी दउं छु.थोडा समयमां हुं तेने प्रसिद्ध करवा धारुं छु. जैन मुनिओए जीवनमा उल्लास प्रेरतां काव्यो नथी रच्यां एयूँ कहेनाराओ सामे आवां फागुबंध, बारमासा, विवाहला अने एवा बीजा नामनां विरह काव्यो जवाबरूप छे, एम कहेवू अनुचित नथी. बेशक, जैन मुनिओए उल्लास प्रधान काव्योमां पण संयमनी सीमा तो आंकी ज छे. (२) 'नारीनिरास फाग' अपरनाम 'नेमिनाथ फाग' पण आवा ज प्रकार, सुंदर काव्य छे. मारी पासेनी तेनी एक त्रण पत्रनी प्रति उपरथी में संशोधीने अहीं प्रकाशमां मूक्युं छे. आ काव्यनी खास विशेषता ए छे के 'फागबंध' आ काव्य ते ज कविए रचेला संस्कृत श्लोकोना छायानुवादरूपे आपेलुं छे. आ कलाकार कविए स्त्रीनां ललित अंगो प्रतिनी मानवीय शृंगारभावनाने ख्यालमा राखी तेना प्रति विरागभाव दाखववानो सोमप्रभसूरिनी 'शृंगारवैराग्य तरंगिणी' नी जेम उपदेश आपेलो छे. आ समय काव्यमां भ. नेमिनाथ के राजुल संबंधे प्रथम अने छेल्ला श्लोकमां आपेला नामो सिवाय कशुं वर्णन नथी. आमां नारीना निरासनुं वर्णन ज मुख्य छे, एटले 'नारीनिरास' ए नाम काव्यने उपयुक्त छे. छतां नारीनो निरास करवामां भ. नेमनाथ प्रमुख छे एम सूचवी बीजा नामने पण आमां घटावी सार्थक कर्यु छे. भाषानी दृष्टिए आ काव्यमां पोताना समय करता कंईक प्राचीनतानी छांट छे. जेहं. वनिताहं, कमलाहं जेवा अपभ्रंशना प्रत्ययोनो पण प्रयोग आमां जोवाय छे. शार्दूलविक्रिडित, स्रग्धरा, हरिणी, उपजाति जेवा मोटा संस्कृत 'वृत्तबंध वाळा श्लोकना For Private and Personal Use Only Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६४ मार्च-अप्रैल · २०१४ भावने एक नाना 'देशीबंध' दूहा छंदमां समाववो अने तेमाये यमकबंधनो ख्याल राखवो ए ऊंचा प्रकारना कवित्वनुं भान करावे छे. पं. रत्नमंडनगणि तेमना समयना प्रतिष्ठित प्रौढ विद्वान हता ए तेगनी बीजी रचनाओथी पण जाणी शकाय छे. आ ज कवि- एक बीजु काव्य "नेमिनाथ नवरस फाग (रंगसागर फाग)" नामर्नु मळे छे. तेमांथी श्री. मोहनलाल देसाई ए "जैनयुग पु. २ ना ७-८मां अंक''मां 'प्राचीन जैन कविओनां वसंतवर्णन' ए शीर्षक हेटळ अवतरण आपेलुं छे. एमाथी रचनाशैली तेमना प्रौढ कवित्वनो ख्याल आपती गमे तेने मुग्ध बनावे तेवी छे. तेमां पण तेमणे मानवशृंगारनी भावनाने बहेती मूकी संयमनो सीमाबंध बांधी पोतानी कवित्वकळानो परिचय आप्यो छे. आ सिवाय तेमनी सुकृतसागर (पेथङ-झांझण प्रबंध), मुग्धमेधालंकार, जल्पकल्पलता, संवादसुंदर वगेरे कृतिओ पण मळी आवे छे. (३) सं. १५२४मां श्रीप्रतिष्ठासोमे रचेला "सोमसौभाग्यकाव्य" ना छेल्ला सर्ग १०ना श्लोक ४४-४५मां तेमनी प्रतिभानुं वर्णन मळे छे - श्रीमान् राजति रत्नमण्डनगुरुबुद्ध्या गुरुश्चातुरों भ्राजिष्णुः स्मरजिष्णुरुष्णकिरणप्रोनिद्रभाभास्वरः । यद्वक्तृत्व-कवित्वकाम्यकलया ते रञ्जिता वादिनो विद्वांसश्च न धूनयन्ति तरसा स्वीयं शिरः के भुवि? ||४४।। गम्भीरैर्मधुरैर्महार्थरुचिरैः स्फारैरुदारैः परैः पद्यैर्हृद्यतमैश्च गद्यपटलैर्जल्पन्नविश्रान्तगीः । विद्वत्संसदि रत्लमण्डनमिवाभाति स्म यः स्मेरभा स्तल्लेभे भुवि रत्नमण्डन इति ख्याताभिधां सूरिराट् ।।४५।। वळी सं. १५४१मां श्रीसोमचारित्रगणिए रचेला "गुरुगुणरत्नाकरकाव्य 'ना सर्ग २ना श्लो. ११मां पण नीचे मुजब तेमनुं वर्णन मळे छ - "वाग्देवतादत्तवरा व्रतीश्वरा दीव्यद्वपूरूपपराजितस्मराः । चकाशिरे ये कविमौलिमण्डनाऽनुकारकाः श्रीगुरुरत्नमण्डनाः ।।११।।" आ अवतरणो उपरथी श्रीरत्नमंडनसूरि अने रत्नमंदिरगणिने एक गणी आलेखता श्री देसाईनी अने तेनी नकल करता श्री. कापडियानी भूल तेम ज पं. लालचंदभाइनी For Private and Personal Use Only Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुतसागर - ३८-३९ कंईक सुधारावाळी छतां बीजी रीतनी भूलनी परंपरानो ख्याल आपे छे. श्रीरलमंडनसूरि अने श्रीरत्नमंदिरगणि बंने भिन्न व्यक्तिओ छे एवू पं. लालचंदभाईनुं कथन साचुं छे, पण बंने नंदिरत्नना शिष्यो नथी. श्रीरत्नमंडनसरि श्रीसोमसुंदरसूरिना के तेमना शिष्य सोमदेवसूरिना शिष्य छे अने रत्नमंदिरगणि सोमसुंदरसूरिना रत्नशेखरसूरि, तेना नंदिरत्नना शिष्य छे. आ हकीकत बीजी रीते पण पुरवार थई शके तेवी छे. "सोमसौभाग्यकाव्य" नी रचना सं. १५२४मां थयेली छे. तेमां तेमने 'सूरिराट' जणाव्या छे. तेमने लगभग ए अरसामां सूरिपद मळ्युं होय तो तेमनी वधुमां वधु ५० वर्षनी वय धारीए तो तेमनी विद्यमानतानो समय सं. १४७४-७५ लगभगनो गणाय. प्रस्तुत प्रतिना मथाळे 'श्रीसोमदेवसूरिगुरुभ्यो नमः"ने मूळ प्रतिनी नकल मानीए तो तेओ निश्चितरूपे श्रीसोमदेवसूरिना शिष्य होवा जोईए. श्रीसोमसुंदरसूरिने 'रंगसागर फाग'मां स्मर्या छे ए जोतां तेओ तेमना शिष्य अने सोमदेवसूरिना गुरुभाई पण होय. तेमना समयमां गुरुभाईओमा अणबनाव प्रवर्तातो हतो. तेथी श्रीलक्ष्मीसागरसूरिए सं. १५१७ मां लाटापुरीमां श्री रत्नशेखरसूरिए पट्टाभिषेक कर्यो ते पछी तेमने श्रीसोमदेवसूरि अने रत्नमंडनसूरि साथे गच्छमेळ करवानी जरूर पडी त्यारे तेओ खंभात आव्या अने १५२०मां' मेळ कर्यो. ए संबंधे "गुरुगुणरत्नाकरकाव्य" मां ज उल्लेख छे के - "श्रीसोमदेवाह्वयसूरिसूत्रिताऽत्याक्षेपतः पक्षपृथक्त्वमोक्षिषु । निर्णिक्तहेमेव नतेषु तेषु च श्रीस्तम्भतीर्थे नगरे गुरूत्सवैः ।।१२।। स्व-दृक्-शरोविशशरदि व्यधायि यैर्यदा गणैक्यं धनसङ्घसाक्षिकम् ।" आ वर्णन उपरथी जाणी शकाय छे के श्री लक्ष्मीसागरसूरि करतां श्रीसोमदेवसूरि अने श्रीरत्नमंडनसूरि मोटा हता तेथी तेमनी पासे आवीने श्रीलक्ष्मीसागरसूरि ए मेळ कर्यो. उपदेशतरङिगणीना कर्ता श्री रत्नमंदिरगणि ए भोजप्रबन्धनी रचना सं. १५१७ मां करी छे. अने रत्नमंडनसूरि सं. १५४१ सुधी तो जीवित हता ज. ए जोतां तेओ बंने समकालीन तो छे ज, परंतु वय अने दीक्षापर्यायमां पण मोटा १. श्री देसाइए "जैन साहित्यनो संक्षिप्त इतिहास'ना पृ. ४९७ पर आ गच्छमेळनो सं. १५२७ आप्यो छे, अने तेनी ज नकल "श्रीतपागच्छपट्टावली"मां श्री कल्याणविजयजीए करी छे, पण ए मेळ सं. १५१७ नहि पण १५२०मां थयो छे, ए उपर्युक्त वर्णनथी जाणी शकाय छे. For Private and Personal Use Only Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org मार्च-अप्रैल २०१४ ६६ एटले तेमना गुरुना गुरुभाई हता, तेथी रत्नशेखरसूरिना शिष्य नंदिरत्नना शिष्य रत्नमंदिरगणि हता, पण रत्नमंडनसूरि नहि, एटलुं नक्की करी शकाय छे. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रस्तुत कृतिना अंते पं. श्री रत्नमंडनगणिकृतः ' एवो उल्लेख आप्यो छे तेथी एम पण जाणी शकाय छे के तेओए आ कृति सूरि थयां पहेलां ज रचेली छे. एटले आ काव्यकृति पंदरमी शताब्दिना उत्तरार्ध एटले वसन्तविलासफागना समकालीन समयनी छे अने तेनी घाटी पण वसन्तविलासनुं स्मरण करावे छे. 'फागुबंध' काव्योना स्वरूप संबंधे के श्रीरत्नमंडनसूरि संबंधे विपर्यास जेवुं विद्वानोने जणाय तो सूचववा विनवुं छु. पं. रत्नमण्डनगणिविरचित नारीनिरास अपरनाम नेमिनाथ फाग || श्री सोमदेवसूरिगुरुभ्यो नमः || सकलकमलाकेलीधामत्वदीयपदाम्बुजप्रणतिनिरतः श्रीनेमीश! स्मृतश्रुतदैवतः । 'प्रथमरजसोल्लेखद्वेषप्रदान्त्यरसास्पदं रचयति यतिः फागं नारीनिरास इति श्रुतम् ||१|| रति पहुती मधु माधवी, साधवी शमरस पूरि; जिम महमहई महीतल, सीतल स्वजस कपुरि. 1121 न जितो मधुमाधवर्तुना विषयैः पञ्चभिरञ्चितेन यः । स करोति दिशो यशोभरच्छलसर्पद्धनसारसौरभाः ||३|| तेह तणउं कीजुअली, जुअली पयकमलाहं: परिहरिउ जे हिअकाय, कायरे वनिताहं ॥४॥ रचयामि चारु चिराय चारुतच्चरणाम्भोरुहचञ्चरीकताम् । कनकद्रवसान्द्रकान्तिषु प्रमदाङ्गेषु न ये रतिं गताः || ५ || वेणि गमई नही आज मुं, आ जमुनांजल पूर; कालिय नाग निरागलु, रागलु डसई अतिक्रूर. ||६|| १. मारी प्रतिमां प्रथममां बिभ्राणं तुलातुलितौ रसौ एवं अशुद्ध अने छंदोभंगवाळु पद छे. में श्री देसाइए 'जैन गूर्जर काव्य' भा. उना खं १मां आपेला अवतरणमांथी मूक्युं छे. For Private and Personal Use Only Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रुतसागर - ३८-३९ www.kobatirth.org म करसि एकसि राखडी, राखडी पेखणि रंग; ए निरया पथ दीपक, दीपकनूं जि पतंग, 11७11 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कुसुमावलिफेनिबला कबरी कालतनुः कलिन्दिजा । अजिनजनमत्र मा र ( चय) त्यनुरागः कलिकालियोरगः ||८|| भृङ्गश्यामलकुन्तलावलिनिभोज्जृम्भाञ्जनभ्राजिनं तेजःपुञ्जविराजिनं शशिमुखीमध्ये शिरः शेखरम् । धत्तेऽधः पथकल्पितप्रकटनं रक्षापुटीदीपकं मा भूतस्य विलोकनाय रसिको यत् त्वं पतङ्गायसे ||९|| सिंदूर देखी सिरि मूं धरे, तूं धरे नयण निमेष; तरुण भारे पड़ी अंब रे, लंब रे ऊकनी रेख. 119011 त्वं सिन्दूरपरागपूरणधृतारुण्यां तरुण्याः कचश्रेण्यन्तः रारणिं विलोक्य सहसा संकोचय स्वे दृशौ । उल्कायास्तरुणेष्वरिष्टपिशुना रेखार्चिरेखातमस्तोमश्यामतमे निपत्य गगने विस्तारमासेदुषी ||११|| कामिणि वइरिणि सी गिणि, सीगिणि भमुहि बि जाणि; विकट कटाक्ष सिराउली, राउली मूंकइ ए ताणि. ||१२|| तरुणीं गणयन्तु वैरिणीं कुटिलभ्रूनिभधन्वधारिणीम् । विकटाक्षकटाक्षतोमरैः कटरे विध्यति सा भटानपि ||१६|| नाकि म खेडसि मनरथ, अनरथनं एह मूल; भमुहि तिलक त्रिणि पांखडी, आंखडी देखि त्रिसूल. 119४|| मध्यप्रांशुस्मरपरवशप्राणिहृदभेदरक्तासक्तिव्यक्तारुणतरतिरः सर्पिलोहत्रिपत्रम् । भालोन्मीधुसुणतिलकश्यामलभूयुगश्रीः शुभ्रूनासा न भवति किमुद्दामकामत्रिसूलम् ।।१५।। निर्मल नासिका माणिक, जाणि कमलि जिस्युं वारि; तिणि परि आयु अथिर गणी, निर गणी म भजसि नारि. 119६/ For Private and Personal Use Only ६७ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६८ मार्च-अप्रैल - २०१४ संपद्यध्वमगण्यपुण्यकरणव्यापारपारंगताः कान्तारङ्गममुं च मुञ्चत शिवद्रङ्गाध्वगध्वंसिनम् । आयुः पद्मगतोदबिन्दुतरलं यस्मादिति स्मारयस्यस्माकं धृतमौक्तिकमिदं (?) वक्त्राम्बुज सुध्रुवः ||१७ । । तूं मनि अधर मधरसिं, अधरम अधर म विमासि; जुवती जंगम बिसलय, किसलय तिणि तेह पासि. ||१८|| युवतेरधरस्त्वया सुधामधुरो मुग्ध! मुधाऽवधार्यते। विषवल्लिरकारि सा यतो विधिना तत्र पुनः सपल्लवः । विमल कमल दल पांखडी, आंखडी ऊपम टालि; ते विष सलिल तलावली, सावली पांपिणि पालि. ।।२०।। युवतिदृग्युगलं तव पक्ष्मलं तुलितपालिपारष्कृतपल्बलम् । विषजलाकुलमस्ति हिनस्ति यद् भवकटाक्षतरङ्ग(भरं) नरम् ।।२१।। नरग नगरि मुख पोलि, कपोलि कपाट विचार, ज्योति जलण मय कुंडल, कुंड लगार न सार, ||२२|| नरकपुरिपुरन्ध्या वक्त्ररन्ध्र प्रतोलिः किलकिलतकपोलोद्घाटिता दृक्कपाटाः। अपि च विचरदर्चिःसंकुले वह्निकुण्डे किमु कमिनृकुलानां कुण्डले दाहहेतोः ।।२३।। हा रमिसिइं मुखि सासु कि, वासुकि कई ए फूंक; तिणि तीणइ करी महिलीई, गहिलीई चतुर अचूक. ||२४|| विगलति गलकुण्डे बासुकिः सुन्दरीणां गमितगरलशक्तिः शोक्तिकेयस्रगात्मा। श्वसितमिषत ईर्ष्यामुक्तफूत्कार एव । ग्रहिलित इति हेतोः स्याज्जनस्तत्र सक्तः ।।२५।। नारि लवई नित कुंअली, कुंअली म सुणि तुं वाणि; कुमति करई सवडाईणि, डाईणि मंत्रतउ जाणि. I॥२६॥ For Private and Personal Use Only Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुतसागर - ३८-३९ मा कर्णयोत्मीलदलीकमालां त्वं कोमलाङ्गां कमलाननायाः। यड्डाकिनीमन्त्र इव श्रुता सा दत्ते बुधानामपि दुष्टबुद्धिम् ।।७।। सुर नर तिरि प्रजागति, जागति मई किम जाई; तिणि त्रिणि जित कमलकंठि, रे कंठि रेखा व(च) हुं माई. ।।२८ ।। दिविज-मनुज-तिर्यग्गामुकाः कामुकाः स्युः कथमिव मयि सत्यमिव मावेदनाय ! कथयति कमला वेदिम रेखास्नि सख्याः स्वरजितकलकण्ठी कण्ठपीठप्रतिष्ठा ।।२९ ।। कसिण कंचुक मिसि आभलु, आभलु कुच गिरिशृंगि; भीतरि करिसि ए कांदम, कां दम घरसि न अंगि. ||३०|| भूषारत्नचरिष्णुरोचिरचिरद्युच्चारु नारीकुचक्ष्यामृत्यभ्रकमेतदुन्नतमयं नो मेचुकः कञ्चुकः । कर्ता प्रकिलतामिदं किल भव(त्य)त्यद्गुणभ्रंसिनी तेनाशु प्रविशत्वनिन्द्रियदमावासोदरं सोदरः ||३१|| आपण पुं गिणि हार तुं, हार तुं जइ निरखेसि; मांडिय पास पयोधर, योध रह्या तुझ रेसि. 1|३२|| विपुलभौक्तिकपद्धतिपाशयोस्तव पयोधरयोः किमु योधयोः । द्वयमिदं तरुणिस्वनिरीक्षणप्रवणपुंधरणाय सभीहते ।।३३।। नेत्रिवली त्रिवली नर, लीन रही मन वर्णि; त्रिविध कपट भरी रेख, वरेख वहई तिण त्रिणि, ||३४|| इयमिह कणगर्ता गाढम्भीरभावात् त्रिकरणकपटानामुत्कटानां वधूटी। इति विधिरकरोत किं तामभिज्ञानहेतोः कलितवलितरङ्गाव्याजमध्यत्रिरेखाम् ।।३५।। मयण पारि करि ला(क)डी, मा कडि लंकि हि झीण; इम कि कहई जुवती वसि, जीव सवे हुई खीण. ॥३६।। For Private and Personal Use Only Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ७० www.kobatirth.org युवतिमृगमृगयोत्कानङ्गयष्टेस्तरुण्यास्तनुदलनकलङ्कप्रापकश्रेणिलङ्कः । पिशुनयति किमेवं कामिनीयो मनुष्यः श्रयति स भवतीत्थं तन्तुसंकाश ( का ) यः | १३७ ।। Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बिल जिसी आणि म सुंदरि, तुं दरिसिणि निज नाभि, मदन रहइ दृष्टीविष ही, विषधर एह गाभि. ||३८|| नितम्बिनि ! विलोपमां तबक नाभिरालम्बिते बतेयमधु (ध) रीकृतत्वदृभिसंधिगभीरिमा । इमां यदि भवि निभालयति कोऽपि तद् भस्मसात् तदीयविषमेषु दृग्विषभुजङ्गमाज्जायते ।। ३९ ।। मार्च-अप्रैल २०१४ वपु विषवन शुभ जाणि म, ताणि म कुच फल लूंबि, सेवि म तेह तणी छांहडी, बाहडी डालि म झुंबि. 11४०11 शङ्के सुभ्रु ! चकार तावकवपुः किम्पाकपृथ्वीरुहाकीर्ण काननमाकुलं कलयितुं वेधा कुलं कामिनाम् । भ्रूवल्लीह सितप्रसूनवदनश्वासनिलोर्भिस्फुरद्दोःशाखाधरपल्लवादय इमे यत् ते ददत्यापदम् ||४१ || कुरणइं कामिणि कांकण, कां कण विणु जिम रंक, करि धरी लिई रखे साकिणि, साकिणि नरगि निसंक. 11४२ ॥ द्वारि क्षुद्रनृणामकारितकणा रङ्का इवैणीदृशौ मुक्ता बाष्पकणाः कुतः करुणयन्त्युच (च्च) त्कणाः किंकणाः । धृत्वाऽनःकरयोरशङ्कितमियं नैषीरसौख्याकरे मा कस्मिन् नरके तदेकनयनासक्तेऽतिभीत्या सखे || ४३ || विषतरु विषम तजां घडी, जांघडी परिहरिउ बेउ, तुं न पीएं पुण थान, कुथानकु जुत तेउ. 118811 विषतरुभुवा जङ्घायुग्मं त्वचा घटितं घटामटति युवते (-) सत्कं तस्माज्जिहीत हितस्पृहाः ! । त्यजत च तनौ तस्याः कुस्थानकं तद (न) र्थदं न भवति तथा पेयं धन्या यथा जननीपयः ।।४५ ।। For Private and Personal Use Only Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रुतसागर - ३८-३९ www.kobatirth.org अंगि अगनि साची रची, चीर चीए परिगूढ, तिम करि जिम झाझिम, दाझि म तूं तिहां मूंढ ||४६ || कचसंच (य) धूमधूसरोऽरुणचीरा तरुणी न पावकः । अधिभूमि चरिष्णुरुष्णताराहितोऽप्येष दहत्यहो ! जनम् ११४७।। Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir साच वचन ऊगाढीआ, काढीआ निज मुख सीम, नेर झुण पगि लांगलां, लाग लाख्यां लहई कीम. 11४८|| सद्भूतानि वचांसि चारुवदना सर्वाणि निर्वासयामास स्वाननसीमतः कृतमतिः सत्येतरोदीरणे 1 रुच्यप्राच्यपदस्पृहानुरतया मञ्जीरमञ्जुस्वर तानि लगन्ति सपदयोस्तस्याः प्रशस्यानि किम् | १४९|| व्याजात् जेहं मनि शमरस सुंदर, सुंदरि वसइ आराति, ते मझ सीलसुदरिसण, दरिसण दिउ सुप्रभाति 11५०// येषां चेतः सरसि तरुणी नैति पानीयहारिण्येकाऽप्यङ्गीकृतकुचघटा शुद्धसिद्धान्तनीरे। तेषामालोकनमनुदिनं संगलन् मङ्गलालीलीलागारं मम दिनकरोङ्कारकाले किलास्तु ।। ५१ ।। पदमिनी कुल मधु राजलि, राजलि जिणि तजी खेमि, जगि जयउ नित नतसुरयण, सुरयणमंडन नेमि. ॥५२॥ लक्ष्मी के लिनिकेतकान्तविलसद्वक्त्रारविन्द स्फुरद्वेणीकैतवचञ्चरीकतरुणीझङ्कारझात्कारिणीम् । भोजप्राज्यकुलेज्यपल्वलभुवं राजीमती पद्मिनीं हित्वा रैवतरत्नमण्डनमभूद् यः सोऽस्तु नेमिः श्रिये ।। ५३|| ।। इति श्रीमहातीर्थगिरिबार गिरिमण्डनश्रीनेमिनाथफागः समाप्तः पं. रत्नमण्डनगणिकृतः ।। For Private and Personal Use Only ७१ ( जैन सत्य प्रकाश, वर्ष १२, अंक - ५-६ ) Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org पं. नंदिरत्नगणिना शिष्य पं. रत्नमंडनगणि पं. लालचंद्र गांधी 'श्री जैन सत्य प्रकाश'ना ता. १५-३-४७ना गत अंकमां पं. अंबालाल प्रेमचंद शाहनो जे लेख 'फागुबंध काव्यनुं स्वरूप अने नारीनिरासफागना कर्ता' नामथी प्रकट थयेल छे, तेमांनुं केटलुंक विधान गेरसमज करावनार होवाथी अने भने उद्देशीने त्यां सूचन होवाथी ते संबंधमां स्पष्टीकरण करवानी मारी फरज समजुं धुं, जेथी ते लेखक तथा बीजा विचारक वाचको युक्ति-युक्त प्रामाणिक विचारी स्वीकारी शके. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ते लेखमां पृ. १६७ - १६८मां पं. रत्नमंडन संबंधमां जणावतां लेखके जणाव्युं छे के - xxxxxतेमज पं. लालचंदभाईनी कंईक सुधारावाळी छतां बीजी रीतनी भूलनी परंपरानो ख्याल आवे छे. श्रीरत्नमंडनसूरि अने श्रीरत्नमंदिरगणि बने भिन्न व्यक्तिओ छे एवं पं. लालचंदभाईनुं कथन साधुं छे. पण बने नंदिरत्नना शिष्यो नथी. श्रीरत्नमंडनसूरि श्रीसोमसुंदरसूरिना के तेमना शिष्य सोमदेवसूरिना शिष्य छे अने रत्नमंदिरगणि सोमसुंदरसूरिना रत्नशेखरसूरि, तेना नंदिरत्नना शिष्य छे. आ हकीकत बीजी रीते पण पुरवार थई शके तेवा छे xxxxतेथी रत्नशेखरसूरिना शिष्य नंदिरनना शिष्य रत्नमंदिरगणि हता, पण रत्नमंडनसूरि नहि, एटलुं नक्की करी शकाय छे.' xxxx 'तेओ निश्चितरूपे श्रीसोमदेवसूरिना शिष्य होवा जोईए. श्री सोमसुंदरसूरिने 'रंगसागर फाग मां स्मर्या छे ए जोतां तेओ तेमना शिष्य अने सोमदेवसूरिना गुरुभाई पण होय.' - ए वगेरे सहसा विधान करतां लेखके विशेष ग्रन्थावलोकन करवा तस्दी लई स्थिर बुद्धिथी विचारणा करी होत तो तेओ एवो उल्लेख करवा न प्रेरात अने सत्य - प्रकाश आपी शक्या होत. + अस्तु. नीचेनां प्रमाणो जोतां ए सत्य समजाशे एवी आशा छे. - - पं. नंदिरत्नगणि. ए. तपागच्छाधिपति सोमसुंदरसूरिना शिष्य हता ( रत्नशेखरसूरिना नहि ) - एम तेमना शिष्य रत्नमंदिरगणिए वि. सं. १५१७मां रचेला भोजप्रबंधना अंतमा सूचित कर्तुं छे 'जातः श्रीगुरुसोमसुन्दरगुरुः श्रीमत्तपागच्छपस्तत्पादाम्बुजषट्पदो विजयते श्रीनन्दिरत्नो गणिः । For Private and Personal Use Only Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७३ श्रुतसागर - ३८-३९ तच्छिष्योऽस्ति च रत्नमन्दिरगणिर्भोजप्रबन्धो नवस्तेनासौ मुनि-भूमि-भूत-शशभृत्-संवत्सरे निर्मितः ।।' - रत्नमंदिरगणिए पोताना ग्रंथोमां ए नंदिरत्नगुरुनु स्मरण कर्यु छे, ए साथे पोताना गुरुना स्वर्गवासी गच्छनायक सोमसुंदरसूरिनुं अने ग्रन्थ-रचना-समये विद्यमान गच्छनायक तरीके रत्नशेखरसूरिनुं पण स्मरण त्यां त्यां उचित आचरणरूपे कर्यु छ - ए उपदेशतरंगिणीना आदि-अंतना उल्लेखो जोवा-विचारवाथी समजाय तेम छे. - एवी रीते पं. रत्नमंडनगणिना सुकृतसागर काव्यना प्रारंभमां जोवाथी जणाशे के तेमणे पण पूर्वोक्त परमगुरु, सद्गत गच्छनायक सोमसुंदरसूरिना पट्टधर विद्यमान गच्छनायक तरीके रत्नशेखरसूरिनुं स्मरण कर्या पछी नंदिरलगुरुनु पण स्मरण कर्यु छे, एटलुं ज नहि, ते काव्यना प्रत्येक (८) तरंगोना अंतमां-गद्य उल्लोखोमां पण शिष्टाचार तरीके ए गच्छनायकोना विनेय तरीके अने पं. नंदिरत्नगणिना चरणरेणु तरीके पोतानो परिचय कराव्यो छे, तथा ग्रंथना अंतमां श्लो. २२३-२२४मां पण तेमणे करेलो नंदिरत्नगुरुना नामनो निर्देश जोइ शकाय तेम छ - 'श्रीसोमसुन्दराचार्य-पट्ट-पूर्वाद्रि-हेलयः। तेजस्विनो जयन्ति श्रीरत्नशेखरसूरयः ।।३।। विभ्रती शिष्य हृन्म मञ्जूषोद्घाटपाटवम् । श्रीनन्दिरत्नगीश्चित्रमवक्रा कुञ्चिकायते ।।४।।' - पं. रत्नमंडनगणिना सुकृतसागर काव्य (जैन आत्मानंदसभा, भावनगरथी सं. १९७१मां प्र.)ना प्रारंभमां. 'इति युगोत्तमगुरुश्रीसोमसुन्दरसूरिपट्टालङ्कारश्रीरत्नशेखरसूरिविनेय-पण्डितनन्दिरत्नगणि-चरणरेणु-रत्नमण्डनविरचिते मण्डनाङ्के सुकृतसागरे............... प्रथमस्तरङ्गः । रत्नमण्डनविरचिते मण्डनाके सुकृतसागरे............... रत्नमण्डनविरचिते मण्डनाङ्के सुकृतसागरे.............. तृतीयस्तरङ्गः। रत्नमण्डनविरचिते मण्डनाङ्के सुकृतसागरे. ............. चतुर्थस्तरङ्गः । रत्नमण्डनविरचिते मण्डनाङ्के सुकृतसागरे............... पञ्चमस्तरङ्गः । रत्नमण्डनविरचिते मण्डनाङ्के सुकृतसागरे............... षष्ठस्तरङ्गः । For Private and Personal Use Only Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ७४ www.kobatirth.org दृब्धः श्रीगुरुनन्दिरत्न-चरणाम्भोजालितां भेजुषा, विद्यामण्डितपण्डितप्रभुसुधानन्दैरदोषीकृतः । तन्द्रातीतविनीतनन्दिविजयप्रादुष्कृताद्यप्रति Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रत्नमण्डनविरचिते मण्डनाङ्के सुकृतसागरे.. रत्नमण्डनविरचिते मण्डनाङ्के सुकृतसागरे.. 'पूर्ण: पार्वणसोमसुन्दरगुणस्यानन्दिरत्नत्रयीश्रीगुरुधर्मघोषचरणद्वन्द्वारविन्दालिनः । प्रौढावन्तिचिरत्नमण्डनमणेः श्रीपेथडस्य श्रुतिस्वादिष्टः सुकृतादिसागर इति ख्यातः प्रबन्धोऽभवत् ।।२२३|| मार्च-अप्रैल - २०१४ सप्तमस्तरङ्गः । . अष्टमस्तरङ्गः ।' ग्रन्थः सद्भिरयं मरुत्परिमलन्यायेन विस्तार्यताम् ।।२२४ ।। - पं. रत्नमंडनगणिना सुकृतसागरकाव्यना अंतमां. पं. रत्नमंडनगणिना बीजा ग्रंथ जल्पकल्पलताना त्रणे स्तबकोनां अंतिम पद्योमां पण गुरु मंदिरत्ननुं स्मरण करेलुं जोवामां आवे छे. तेम ज त्यांना गद्य उल्लेखोमां तपागच्छाधिपति सोमसुंदरसूरिना पट्टधर विद्यमान गच्छनायक रत्नशेखरसूरिना शिष्याणु तरीकेनो उल्लेख, तेमना आज्ञांकित अनुयायी तरीके पोताने सूचववा माटे छे. 'अस्ति स्वस्तिकरस्तमस्तिरयिता श्रीमन्दिरत्नो रविस्तत्पादप्रणये परायणतया कोकायते यः कविः । आद्यस्तत्कृतजल्पकल्पलतया क्रोडीकृतः साधनासिद्ध्याख्यस्तबको बभूव बहुलामोद : सुधीमण्डनः || For Private and Personal Use Only श्लिष्टस्तत्कृतजल्पकल्पलतया शेषाब्धि-संख्योदयद्दोषाख्यस्तवको बभूव सुधियामाद्येतरो मण्डनम् (:) ||१३|| श्लिष्टस्तत्कृतजल्पकल्पलतिकामैकादिमत्र्यम्बकासिद्ध्याख्यस्तबकस्तृतीय उदयांचक्रे सुधीमण्डनः ।। २७ ।। 'इति श्रीतपागच्छ.... रत्नशेखरसूरीन्द्रशिष्याणुरत्नण्डनकृतायां जल्पकल्पलतायां मण्डनाङ्कः १,२,३' - पं. रत्नमंडनकृत जल्पकल्पलता (दे. ला. ग्रं. ११, प्रकाशन संवत १९६८ ) Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुतसागर - ३८-३९ ७५ नारीनिरास नेमिनाथफागनी ह. लि. पोथी लखनार-लखावनार सोमदेवसूरिना कोई भक्त शिष्ये तेना प्रारंभमां 'श्रीसोमदेवसूरिगुरुभ्यो नमः ।।' लखेलुं होई शके - एटलाथी ज ए काव्यना कर्ताने एमना शिष्य तरीके सूचववा ए युक्त गणाय नहि. ___ पं. रत्नमंडनगणिए पोताना कोई ग्रन्थमा तेमने गुरु तरीके ओळखाव्या होय तो ते दर्शावq जोईए, खरी रीते सोमदेवसूरि अने पं. नंदिरनगणि ए बंने सोमसुंदरसूरिना शिष्यो होई गुरुभाईओ गणाय. अमे उपर ए ग्रंथकारना ग्रंथोमाथी प्रमाणो दर्शाव्यां छे, ए वांचवा-विचारवाथी पं. रत्नमंडनगणिना गुरु पं. नंदिरत्नगणि हता-ए स्पष्ट समजी शकाय तेम छे. गच्छनायको परमगुरु होई तेमना प्रत्ये बहुमान सूचववा तेमना आज्ञांकित अनुयायीओ पोते विनेय, शिष्याणु तरीकेना उल्लेखो करे ए स्वाभाविक छे. एथी भ्रांतिमां न पडवू जोईए. जल्पकल्पलताना उपर्युक्त अंतिम उल्लेखने जोई भ्रांतिथी तेना कर्ता- नाम अणुरत्नमंडन, तथा तेमना गुरुनु नाम रत्नशेखरसूरि, वेबरना बीनना केटलोगमा सूचवेल छे. तेना आधारे 'केटलोगस केटलोगोरम्' वगेरेमां तेवी नोंध छे. सोमसुंदरसूरि गच्छनायकनी विद्यमानतामां रचेली 'रंगसागर नेमिफाग' कृतिमां पं. रत्नमंडने तेमनु स्मरण कर्यु छ (छपायेल आवृत्तिमां सोमसुंदरसूरिने तेना कर्ता जणाव्या छे), सुकृतसागर काव्यनी रचना, रत्नशेखरसूरि गच्छाधिपतिना समय (सं. १५०२ थी सं. १५१७)मां करेली होवाथी त्यां तेमणे ‘जयन्ति' क्रियापद द्वारा तेमनु स्मरण - सूचन कर्यु छे. ___पं. अंबालालभाईए पृ. १६८मां गच्छमेळ संबंधमा जे जणाव्युं छे, ते बराबर नथी. 'श्रीसोमदेवसूरि अने रत्नमंडनसूरि सार्थ गच्छमेळ करवानी जरूर पड़ी त्यारे तेओ खंभात आव्याxxxxलक्ष्मीसागरसूरि करतां श्रीसोमदेवसूरि अने श्रीरत्नमंडनसरि मोटा हता. तेथी तेमनी पासे आवीने श्रीलक्ष्मीसागरसूरिए मेळ कर्यो. xxxxरत्नमंडनसूरि सं. १५४१ सुधी तो जीवित हता ज. - ए कथन विचारणीय छे. ___- सं. १५२४मां पं. प्रतिष्ठासोमे रचेला सोमसौभाग्य काव्य (सर्ग १०, श्लो. ४४)मां 'श्रीमान् राजति रत्नमण्डनगुरुः' एवा करेला वर्तमानकालीन क्रियापदप्रयोग-द्वारा पं. रत्नमंडनने ते समयमा विद्यमान सूचव्या छे, परंतु सं. १५४१मां सोमचारित्रगणिए गुरुंगुणरत्नाकरकाव्य (सर्ग २, श्लो. ११)मां तेमना ज संबंधमां परोक्ष-भूतकालीन 'चकाशिरे' क्रियापदनो प्रयोग कर्यो होवाथी ते समयमां पं. For Private and Personal Use Only Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७५ मार्च-अप्रैल - २०१४ रत्नमंडन विद्यमान न होवा जोईए. सोमदेवसूरि गच्छ-मेळ कराववामां प्रेरक हता, सं. १५१७मां रत्नशेखरसूरिना पट्ट पर स्थापित थयेला लक्ष्मीसागरसूरिने सं. १५२०मां पं. रत्नमंडनगणिए खंभातमां नमन कर्यु हतु-एम नीचे जणावेल ग्रंथ परथी जणाय छे. नारीनिरास नेमिनाथफागना प्रारंभना पद्यमां 'सकलकमलाकेलि' तथा अंतिम पद्यमां 'लक्ष्मीकेलिनिकेत' शब्दद्वारा लक्ष्मीसागरसूरिनुं स्मरण कविनुं विवक्षित विचारीए तो तेनी रचना ए गच्छनायकना समयमा थई हशे-एईं अनुमान करी शकाय. गुरुगुणरत्नाकरकाव्य, जे सं. १५४१मां सोमदेवसरिना प्रशिष्य, अने पं. चारित्रहंसगणिना शिष्य सोमचारित्रगणिए ते समयमा विजयमान गच्छनायक लक्ष्मीसागरसूरि संबंधमां रच्युं हतुं. तेना बीजा सर्गमां श्लो. १० थी १३ चार श्लोको कलापक तरीके संबंधवाळा होवाथी तेनो समुच्चय आशय आवी रीते होवो जोईए. 'जेमने (लक्ष्मीसागरसूरिने) माळवामां रहेला जोइने गूर्जरभूमिमां अवसर मेळवीने कलिराजे केटलाक साधुओने पोताना सेवको कर्या हता, तेथी आ गण(तपागच्छ) व्रण(छिद्र)वाळो थयो हतो. वाग्देवीए जेमने वरदान आपेलुं हतुं, जेओए दिव्य शरीर अने रूपवडे कामदेवले पराजित कर्यो हतो. तथा कविशिरोमणि- अनुकरण करनार जे गुरु रत्नमंडन दीपता हता, तेओ सोमदेवसूरिए करेला अत्याग्रहथी पक्षनी भिन्नता मूकी दई, विशुद्ध करेला सोनानी जेम, स्तंभतीर्थ(खंभात) नगरमां भारे उत्सव पूर्वक नमतां, जेओए (लक्ष्मीसागरसूरिए) सं. १५२०मां घणा संघनी साक्षीए ज्यारे गणमां ऐक्य कराव्यु, त्यारे अहिं अन्य पक्षना महात्माओना मनमां पण अत्यंत विस्मय थयो हतो.' - भ्रांतिथी बीजानी भूल-परंपरा दर्शावनार साक्षर, पोतानी भूल-परंपरा जुए अने सत्य स्वीकारी, भूल-परंपरा करतां सावधानता राखे - एम इच्छीए. (जैन सत्य प्रकाश, वर्ष १२, अंक-७) For Private and Personal Use Only Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org पुस्तक परिचय डॉ. हेमंत कुमार पुस्तक नाम जैनों का संक्षिप्त इतिहास दर्शन व्यवहार एवं वैज्ञानिक आधार लेखक नाम श्री छगनलाल जैन, डॉ. संतोष जैन एवं डॉ. तारा जैन Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रकाशक नाम - राजस्थानी ग्रंथागार, जोधपुर (राजस्थान ) आवृत्ति प्रथम, प्रकाशन वर्ष - २०१३ मूल्य - ४००/- पृष्ठ २८०, भाषा हिन्दी एवं अंग्रेजी भारतीय प्रशासनिक सेवा के सेवानिवृत्त अधिकारी श्री छगनलाल जैन एवं उनकी पुत्रियों डॉ. संतोष जैन एवं डॉ. तारा जैन द्वारा लिखित जैनों का संक्षिप्त इतिहास, दर्शन, व्यवहार एवं वैज्ञानिक आधार नामक पुस्तक में नवीनतम् खोजों के अनुसार यह सिद्ध किया है कि विज्ञान एवं जैनधर्म-दर्शन एक दूसरे के विरोधी नहीं, बल्कि सहयोगी हैं. उन्होंने अनेक तथ्यों के आधार पर यह साबित करने की कोशिश की है कि जैनधर्म मानवधर्म बनने की पूरी योग्यता रखता है. श्री जैन ने अपने शोधपूर्ण लेखों को चार भागों में विभक्त कर इस पुस्तक के नाम में प्रयुक्त चारों विषयों को बड़े ही विवेचनात्मक ढंग से प्रस्तुत किया है. प्रथम भाग में इतिहास से संबंधित लेखों में जैनों के इतिहास की रूपरेखा, जैन जातियों का वर्णन, भगवान महावीर का जीवन चरित्र आदि का सुन्दर वर्णन किया गया है. दूसरे भाग में जैन दर्शन के विभिन्न विषयों से संबंधित लेखों में नमस्कार महामंत्र, तत्त्वार्थसूत्र, प्रतिक्रमणसूत्र आदि का वर्णन किया गया है. तीसरे भाग में जैन आचार से संबंधित विभिन्न लेखों के माध्यम से साम्प्रदायिकता, सुसंस्कार, अनेकान्तवाद, शाकाहार, अहिंसा आदि का तथ्यपूर्ण विवेचन किया गया है. अन्त के चौथे भाग में जैन दर्शन एवं विज्ञान कहाँ तक समकक्ष, आगे या पीछे हैं, वर्तमान विश्व के लिए इन दोनों की एक-दूसरे के पूरक रूप में कितनी आवश्यकता है इत्यादि का शोधपूर्ण उल्लेख किया गया है. विज्ञान कि नए खोजों के आधार पर यह निश्चय पूर्वक कहा जा सकता है कि जैन दर्शन के हजारों वर्ष पूर्व घोषित सृष्टि के रचयिता, रचना, अणु-परमाणु, अनेकांत, जीव विकास आदि के सिद्धांत आज का विज्ञान मानने को बाध्य हुआ है. अनेक ऐसे साक्ष्य हैं जिनके आधार पर यह सिद्ध होता है कि हजारों वर्ष पूर्व जैन दर्शन ने जिन सिद्धांतों का प्रतिपादन किया था वह पूर्णतः वैज्ञानिक था. श्री जैन ने अपने विभिन्न लेखों के द्वारा यह सिद्ध कर दिया है कि मनुष्य जन्म से नहीं कर्म से महान बनता है. जैन दर्शन की ऐतिहासिक उपलब्धियों के बारे में सामान्य लोग अनभिज्ञ हैं, इस पुस्तक के माध्यम से उनके समक्ष अपनी उपलब्धी एवं प्रामाणिकता सिद्ध करने हेतु अनेक तथ्य प्राप्त किए जा सकते हैं. अतः कहा जा सकता है कि यह पुस्तक वर्तमान विश्व में जैन दर्शन की सार्थकता सिद्ध करने में सफल हुआ है. A For Private and Personal Use Only Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैन समाजरत्न, उदारमना, दानवीर श्रीमान सोहनलालजी चौधरी : संक्षिप्त परिचय डॉ. हेमंत कुमार श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र, कोबातीर्थ के अध्यक्ष के रूप में अविस्मरणीय सेवा प्रदान करने वाले जैन समाजरत्न, धर्मनिष्ठ, उदार दानवीर, समाजसेवी, सुश्रावक, श्री सोहनलालजी चौधरी का जन्म सिवाना (राजस्थान) में दिनांक १९ जनवरी, १९३७ को श्री लालचंदजी पूनमचंदजी चौधरी की धर्मपत्नी श्रीमती भूरीदेवी की कुक्षी से हुआ था. प्रारम्भिक शिक्षा गाँव में ही प्राप्त कर व्यवसाय के क्षेत्र में जुड़ गए. आप व्यवसाय करने हेतु सिवाना से कडप्पा (आंध्रप्रदेश) व सेलम (तामिलनाडु) में व्यवसाय के उच्च कीर्तिमान तय करते हुए कालक्रम से अहमदाबाद आए. अपनी कर्मठता व सूझ-बूझ से आपने व्यवसाय के क्षेत्र में एक नया कीर्तिमान स्थापित करते हुए अहमदाबाद के अग्रणी व्यसायियों में अपना नाम स्थापित कर लिया. आप न केवल एक प्रतिष्ठित उद्योगपति के रूप में ही जाने जाते हैं बल्कि एक उदार दानवीर एवं समाज सेवी के रूप में भी अपनी छाप बनाई. माता-पिता से प्राप्त संस्कार के कारण आप देव-गुरु-धर्म से सदैव जुड़े रहे और अपने धन व अपने अमूल्य समय का सदुपयोग धार्मिक, सामाजिक, शैक्षणिक, सांस्कृतिक, साहित्यिक संस्थाओं के विकास हेतु करते रहे. _ आपने एक ओर जहाँ अनेक मन्दिरों एवं प्रतिमाओं के निर्माण व प्रतिष्ठा का कार्य करवाया, छरी पालित संघ, नवपदजी की ओली आदि अनेक धार्मिक अनुष्ठान करवाए, वहीं दूसरी ओर सिवाना एवं अहमदाबाद में हॉस्पिटल का निर्माण कराकर चिकित्सा के क्षेत्र में अपना बहुमूल्य योगदान दिया और महावीर एज्युकेशन सोसायटी की स्थापना कराकर शिक्षा के क्षेत्र में एक नया कीर्तिमान स्थापित किया. परम पूज्य राष्ट्रसन्त आचार्यभगवन्त श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म. सा. के आशीर्वाद व प्रेरणा से आपने कोबातीर्थ के प्रमुख के रूप में ११ वर्ष अविस्मरणीय सेवा प्रदान की थी. कोबातीर्थ के ट्रस्टीश्री के रूप में भी आपने अमूल्य योगदान प्रदान किया था. संस्था में संचालित भोजनशाला के मुख्यदाता के रूप में आप For Private and Personal Use Only Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७९ श्रुतसागर - ३८-३९ सदैव स्मरणीय रहेंगे. श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र, कोबा के विकास में आपके द्वारा किए गए कार्य चिरस्मरणीय रहेंगे. आध श्री नाकोडाजी तीर्थ, जैसलमेर लोद्रवापुर पार्श्वनाथ जैन ट्रस्ट, श्री आदेश्वर मूर्तिपूजक जैनसंघ, सेलम, श्री जैन श्वेताम्बर गोडी शंखेश्वर पार्श्वनाथ ट्रस्ट, सिवाना, भगवान महावीर जीवन निर्माण केन्द्र, सिवाना आदि संस्थाओं के अध्यक्ष-उपाध्यक्ष के पद पर रहते हुए अनेक महत्त्वपूर्ण कार्य करते रहे. इनके अतिरिक्त अनेक धार्मिक एवं सामाजिक संस्थाओं के अध्यक्ष एवं ट्रस्टी के रूप में भी आपने अविस्मरणीय योगदान दिया. राजस्थान हॉस्पिटल्स, अहमदाबाद में सोहनलालजी लालचंदजी चौधरी पैथोलॉजी लेबोरेटरी तथा श्रीमती गुलाबदेवी सोहनलालजी चौधरी यूरोलोजी विभाग का निर्माण कराकर चिकित्सा सेवा के क्षेत्र में अमूल्य योगदान दिया. आपके इस कार्य से प्रभावित होकर गुजरात सरकार द्वारा आपको सम्मानित किया गया. आपने न केवल अपने कर्मभूमि अहमदाबाद में ही चिकित्सा के क्षेत्र में योगदान दिया बल्कि अपने जन्मभूमि सिवाना (राजस्थान) में भी ५० बिस्तर का आधुक सुविधायुक्त सोहनलालजी लालचंदजी चौधरी राजकीय अस्पताल का निर्माण कराकर राजस्थान सरकार को अर्पित किया. आपके इस महत्त्वपूर्ण योगदान हेतु राजस्थान सरकार द्वारा आपको सम्मानित किया गया. आज आप हमारे बीच नहीं हैं, आपकी कमी समाज की अपूरणीय क्षति है. दिनांक ७-२-२०१४ को ७९ वर्ष की आयु में आप इस दुनिया को सदा के लिए छोड़ कर चले गए. आपके इस तरह अचानक जाने से एक पंक्ति याद आती है बड़े गौर से सुन रहा था जमाना, खुद ही सो गए दासतां कहते-कहते आप एक सफल उद्योगपति के साथ-साथ धर्मनिष्ठ समाजसेवी के रूप में विख्यात रहे. आपके द्वारा किए गए कार्य अनुमोदनीय एवं अनुकरणीय हैं. आप सदैव भावि पीढी के लिए प्रेरणास्रोत बने रहेंगे. श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र एवं आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर परिवार आपको भावभीने श्रद्धासुमन अर्पण करता है. For Private and Personal Use Only Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सम्राट संप्रति संग्रहालय के नूतन भवन का शिलान्यास समारोह परम पूज्य राष्ट्रसन्त आचार्य भगवन्त श्रीमत् पद्मसागरसूरीश्वजी महाराजा की पावन प्रेरणा से निर्मित एवं अध्यात्म उर्जा से छलकती पून्यभूमि श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र, कोबातीर्थ में दिनांक १५ मई, २०१४ गुरुवार के शुभ दिन सम्राट संप्रति संग्रहालय के नूतन भवन का शिलान्यास कार्यक्रम आयोजित किया गया है. यह विदित है कि प. पू. राष्ट्रसंत आचार्य श्रीमत् पद्मसागरसूरीश्वरजी महाराजा ने भारत भर में एक लाख किलोमीटर से भी अधिक की पदयात्रा के क्रम में जहाँ भी शिल्प-कला-पुरातत्व से संबंधित वस्तुओं को उपेक्षित अवस्था में देखा उसे वहाँ के लोगों को प्रेरित कर सम्राट संप्रति संग्रहालय के लिए मांगकर संगृहीत करते गए. पुरावस्तुओं का संग्रह इतना विशाल हो गया कि अब पूर्व निर्मित संग्रहालय में स्थान छोटा पड़ने लगा. संगृहीत सभी वस्तुओं को प्रदर्शित करना मुश्किल होने लगा, इस हेतु नूतन एवं विशाल संग्रहालय भवन की आवश्यक्ता प्रतीत होने लगी इसी आवश्यकता की पूर्ति हेतु इस समारोह का आयोजन किया गया है. दिनांक १५ मई, २०१४ को प्रातः ८.०० बजे परम पूज्य राष्ट्रसन्त आचार्य भगवन्त श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी महाराज एवं उनके शिष्यप्रशिष्य की शुभ सन्निधि में श्री प्रेमलभाई कापडिया परिवार, मुंबई द्वारा खनन विधि एवं श्रीमती शारदाबेन यु. महेता परिवार, अहमदाबाद द्वारा शिलान्यास का कार्यक्रम सम्पन्न होगा. इस शुभ अवसर पर स्नात्र पूजा, पूज्यश्री के द्वारा मंगल-आशीर्वचन, अतिथियों के वक्तव्य, अतिथिओं का सम्मान, आभारविधि एवं साधर्मिक भक्ति आदि विभिन्न कार्यक्रम आयोजित किए गए हैं. For Private and Personal Use Only Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्राट् संप्रति संग्रहालयमा प्रदर्शित विक्रमनी सोळमी सदीमां आलेखायेला कृष्णलीला प्रसंगना ताडपत्रीय चित्रो Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra କ ଟ, ବରପଟକୁ, Bloose - ALI SROD95999991 For Private and Personal Use Only www.kobatirth.org HRSIDASISATIRORARosie Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir GROASAYANANSARAAT Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir BOOK-POST/ PRINTED MATTER प्रकाशक आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र कोवा, गांधीनगर 382007 फोन नं. (079) 23276204, 205, 252, फेक्स (079) 23276249 Website : www.kobatirth.org email : gyanmandir@kobatirth.org विमपिक कालिदस्काटधार्यतामाकष्टमातादशाताविविधवायनातापियवासमार्चपदसंबयाहि वाकालिकातरवाकतायानिासदेधिविहारमपतिदतशाचाचसारामघालयाचा निश्च विलिसाजानाधम्मकयागययास यासमासनमानितकऊलनससलसवाडाणारयसरि मंगलमwnशिवमचसदऊगदितन्दितनिस्तासनसतगणमादाघाययाउनाशसर्वस विलायमाघसदिशग्रीयागिनीपुण्यधशामालऊलसंतवाचकागाचीदानाधिरदेशसव टरवर लागगारीमगिनकरपारपादाना समर्पित BOOK-POST / PRINTED MATTER For Private and Personal Use Only