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मार्च-अप्रैल २०१४
मूलनायक को आंगी करके एकाग्र चित्त से केशर पूजा करके पुष्पों का मुकुट पहनाकर भक्त अपने तरणतारण परमात्मा की भक्ति करना चाहता है । यहाँ सुंदर वर्णानुप्रास से काव्यत्व की पंक्ति सुशोभित बनी है।
इसाखे फुली वनराई मोहरी, त्रीजनी आखात्रीज आई। केसरीआसुं साची सगाई, जगतगुरु जिनवरनें जपी ||८||
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वैशाख मास में अक्षयतृतीया पर्व महोत्सव और वसंत के वैभव का प्राकृतिक वर्णन का सुमेल कवि ने किया है। भगवान ऋषभदेव के ४०० उपवास का पारणा अक्षयतृतीया के दिन हुआ था। यह पर्व जैन परंपरा में धामधूम से मनाया जाता है।
अक्षयतृतीया को सर्वश्रेष्ठ तृतीया तिथि कही है। प्राचीन काल में सालभर में एक अक्षयतृतीया को मंगल मुहूर्त माना जाता था । यहाँ कवि अथवा भक्त भगवान से नाता जोड़कर उसकी प्रीति को अखंड निभाकर अपना संसार पारित करना चाहते है।
जेठे जिनवर जो आवे, सीतल जल लेइ नवरावे ।
के पंखो करतां पुन्य पावे, जगतगुरु जिनवरनें जपीए ।१९।।
जेठ मास में ग्रीष्म ऋतु होती है। इस ऋतु में भक्त मूलनायक को शीतल जल से स्नान (अभिषेक) कराना चाहता है। स्नान के बाद अंगपोछन और पंखे से द्रव्यपूजा करने की अभिलाषा है, क्योंकि द्रव्यपूजा भी पुण्य कर्म का कारण है।
वैष्णव परंपरा में प्रभु के आगमन पर स्नान, भोजन, शय्या और पंखे से हवा करने की प्रथा है, वैसे ही जैन परंपरा में भी स्नान, अंगपोछण, चंदन विलेपन, पंखा इत्यादि से प्रभु की सेवा की जाती है ।
आसाढे मेघ घणां गाजे, भेरी भुंगल मृदंग वाजे ।
जे जिन इन्द्र महोछव छाजे, जगतगुरु जिनवरनें जपीए ||१०||
आषाढ मास में मेघगर्जना करते हैं, तब मानो ढोल, मृदंग, नगारा, दुंदुभि जैसे वाद्य उपकरणों में नाद वातावरण का गुँजता है । कवि ने आरती के समय होनेवाली वाद्यों की ध्वनि से मेघगर्जना की तुलना की है।
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वर्षाऋतु के आगमन की खुशी में इन्द्रमहोत्सव रचाया जाता है। क्योंकि मेघ का मालिक इन्द्रदेव है। ग्रीष्म की गरमी से तप्त वसुंधरा मेघ से शीतलता का अनुभव करती है । धरा छोटे-छोटे पौधों से खिल उठती है । तब इन्द्र का आभार व्यक्त करने के लिए इन्द्रमहोत्सव मनाया जाता है।