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श्रुतसागर - ३८-३९
प्राचीन काल से आज तक ऋषभदेव-केशरियाजी तीर्थ अपने अतिशय के लिए प्रसिद्ध है और भक्तों के आस्था का केन्द्रबिंदु है। यह भाव कवि द्वारा उजागर किया हैं।
मागसरे मन मोयूं मारु, के तरीत दरीसण थयूं ताहरूं।
तारी सुरत पर हुं वारुं, जगतगुरु जिनवरनें जपीए 11३।। ___ मृगशीर्ष महिने में केशरीयाजी की श्यामवर्ण सुंदर प्रतिमा का दर्शन करते ही भक्त का हृदय मोहित होता है। प्रभु के अनुपम व अवर्णनीय रूप को देखकर असीम आनंद की लहर उठती है।
पोरों प्रीतडली पालो, के तिन भुवू(ब)नमा अजुआलो। के तुमे छो दीन तणां दयालो, जगतगुरु जिनवरने जपीए ।।४।।
पौष महिने में भक्त भगवान से प्रीत निभाने की विनती करता है। परमात्मा के आगमन से नरक, स्वर्ग और मृत्युलोक में परमशांति का अनुभव होता है। यहाँ भक्त की उत्कट प्रीति का भाव भी निहित है। साथ में प्रभु की असीम करुणा और दयालुता की प्रतीति होती है।
माहा सुद पांचमें दीन आवे, के मोहर लेईनें सह वधावे। गुणीजन राग वसंत गावे, जगतगुरु जिनवरने जपीए ।।५।।
माघ महिना याने वसंत का आगमन! उस समय आम्रवृक्ष पर मंजर लगता हैं। प्राचीन काल में समाज में वसंतपंचमी का पर्व धूमधाम से मनाने की प्रथा प्रचलित होगी ऐसा स्पष्ट होता है। परमात्मा की स्तवना के साथ तत्कालीन व्यवहार एवं रीति-रिवाजों का बोध प्राप्त होता है।
फागुणे फाग रमूं तसु, केसरीया नही अंतर करसुं। के नाटीक करसुं ने नीत नमसुं, जगतगुरु जिनवरने जपीए ।।६।।
फाल्गुन मास में गुलाल, फूल, अत्तर, केशर, कस्तुरी जैसे सुगंधी पदार्थों से और विलेपन से पूजा करके भगवान की आंगी रचाने का भाव प्रस्तुत गाथा में निहित है। ___यहाँ धूलिपर्व के संदर्भ से भक्त परमात्मा के साथ फाग खेलना चाहता है। यहाँ ऋतुवर्णन के साथ-साथ ब्रज परंपरा का अनुसंधान दृश्यमान होता है। पूजा की दृष्टि से धूप से सुवासितकर केशर और पुष्पों से पूजन होता है।
चैतरें चित लागो चरणे, फूल गूलाब मूगट भरणे। के सेवा तारणनें तरणे, जगतगुरु जिनवरने जपीए ।७।।
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