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गुरुवाणी
आचार्यश्री पद्मसागरसूरिजी
'धम्मस्स मूलं विनयः' परमात्मा महावीर का कथन है कि धर्म का जो मूल है, वह विनय है और विनय के द्वारा ही व्यक्ति प्रेम का साम्राज्य स्थापित कर सकता है। जगत के प्राणीमात्र के अन्तस्तल में अपना स्थान बना सकता है। इसमें सारे क्लेशों और कटुता का नाश करने की अपूर्व क्षमता समाहित है। नम्रता के द्वारा हम अपनी क्षमा की भावना प्रकट करते हैं। अपनी तिक्तता विसर्जित करते हैं। अपने वैर भाव को हम तिलांजलि दे देते हैं।
अनन्त काल के संसार का भेद इसी नम्रता की क्रिया के द्वारा ही हम प्राप्त करते हैं। इसीलिए संसार के प्रत्येक धर्म के अन्दर सर्वप्रथम नमस्कार को महत्त्व दिया गया है। मंदिर जाएं, प्रभु दर्शन करें, रास्ते में सन्त मिल जाएँ, गुरुजन मिल जाएँ तो नमस्कार अवश्य करें,
घर के अन्दर अपने माता-पिता या बड़े भाई या जो भी घर में बड़े हैं, सर्वप्रथम व्यवहार में भी नमस्कार करें। कहीं पर जब ऑफिसर के पास काम कराने जायें तो वहाँ भी पहले ही नमस्ते, नमस्कार करते हैं। बड़ी अपूर्व क्रिया है। विलक्षण चमत्कार इस नमरकार की क्रिया में अन्तर्हित है। शुद्ध भाव से परमात्मा को किया हुआ नमस्कार मोक्ष का कारण बनता है। हमारे यहाँ प्रतिक्रमणसूत्र में पाप की आलोचना की जो सब से श्रेष्ठ क्रिया है, उसमें स्पष्ट कह दिया गया है
'इक्को वी नमुक्कारो जिनवर वसहस्स वद्धमाणस्स। संसार सागराओ तारेई नरं व नारिं वा ।।
संसार रूप इस सागर से आत्मा तैरकर किनारा प्राप्त कर लेती है ऐसी अपूर्व क्रिया है इस नमस्कार में। इसलिए ग्रन्थकार ने सर्वप्रथम नमस्कार को महत्त्व दिया है।
आपको मालूम होगा घर के अन्दर आप इलैक्ट्रिक स्विच रखते हैं और यदि स्विच ऑफ कर दें तो लाइट चली जाती है। स्विच जैसे ही ऊपर हुआ, उसका माथा, 'गर्वेण तुंगं शिरः' गर्व से, अभिमान से उसका माथा आपने ऊँचा कर
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