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श्रुतसागर । ३८-३९
५१ चिह्न परिवर्तित होने लगे। गुप्त राजाओं के प्रभाव से ब्राह्मी का यह रूप गुप्त लिपि कहलाने लगा। लगभग चौथी-पाँचवीं शताब्दी में इसका प्रचार समस्त उत्तरी भारत में था। छठी शताब्दी में गुप्त-लिपि के वर्गों की आकृति कुछ कुटिल हो गई। अतः ये वर्ण कुटिलाक्षर और लिपि कुटिल कहलाने लगी। इस लिपि का उत्तरी भारत में खूब प्रचार था। तत्कालीन शिलालेख तथा दानपत्र इसी लिपि में लिखे जाते थे। कुटिल लिपि से ही संभवतः आठवीं-नौवीं शताब्दी में शारदा एवं प्राचीन नागरी लिपयों का विकास हुआ। आधुनिक काशमीरी, टाकरी तथा गुरुमुखी लिपयों का निर्माण भी शारदा के आधार पर ही हुआ है।
अस्तु आज ब्राह्मी लिपि के साथ-साथ शारदा, ग्रंथ, प्राचीन नागरी, नदीनागरी, नेवारी, कैथी आदि प्राचीन लिपियों का लेखन एवं पठन-पाठन कार्य पूर्णतः लुप्त हो चुका है। और इन लिपियों को जानने वाले भी गिने-चुने ही रह गये हैं। जबकि इन लिपियों में संरक्षित साहित्य हमें शिलालेखों, ताम्रपत्रों, ताडपत्रों, भूर्जपत्रों, हस्तनिर्मित कागजों, कपड़ों आदि पर प्रचुर मात्रा में लिखा हुआ मिलता है, जो न केवल भारत के ही ग्रन्थागारों में बल्कि विदेशों में स्थित विविध संग्रहालयों में संगृहीत है। एक समय इसी ज्ञान संपदारूपी धरोहर के कारण हिन्दुस्तान को जगद्गुरु का खिताव हाँसिल था।
यद्यपि भारत सरकार के मानव संसाधन एवं विकास मंत्रालय ने इन प्राचीन लिपयों के अध्ययन, संरक्षण एवं पठन-पाठन हेतु लगभग दस वर्ष पूर्व इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय कला केन्द्र-दिल्ली के प्रांगण में राष्ट्रीय पाण्डुलिपि मिशन की स्थापना की है, जो समय-समय पर संपूर्ण देश में पाण्डुलिपि एवं पुरालिपिविज्ञान अध्ययन कार्यशालाओं का आयोजन कर इन प्राचीन लिपियों को जीवित रखने का प्रयास कर रहा है। कुछ विश्वविद्यालय एवं संग्रहालय भी इन लिपियों के पठन-पाठन हेतु प्रयासरत हैं। गुजरात के अहमदाबाद एवं गांधीनगर के मध्य स्थित आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर-कोबा में भी प्राचीन लिपियों के पठन-पाठन, हस्तप्रत संरक्षण, सूचिकरण एवं पुरातात्विक सामग्री संरक्षण तथा प्रशिक्षण का कार्य बड़े पैमाने पर किया जा रहा है, जो सराहनीय है।
अस्तु हमने यहाँ ब्राह्मी लिपि का किंचित परिचय प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। आशा है गवेषक इस प्राचीन भारतीय धरोहर को युग-युगान्तरों तक जीवित रखते हुए आगे आनेवाली पीढियों को सुरक्षित पहुँचाते रहेंगे।
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