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श्रुतसागर - ३८-३९
यहाँ इन्द्र के भी इन्द्र याने जिनेन्द्रदेव हैं। जिन्होंने धर्ममार्ग की प्ररूपणा की है। भव्य जीवों के हृदय में धर्म के बीज बोये हैं। इस लिए भक्त परमात्मा का महोत्सव रचाना चाहता है।
श्रावण वरसे अतिसारो, बापई मोर दादुर प्यारो। गुणीयल गाय मीली सारो, जगतगुरु जिनवरने जपीए ।।११।।
कवि के शब्दों में श्रावणमास याने धर्म का महिना है। भक्त मल्हार राग में भगवा। के गुणकीर्तन करेगा उस समय मोर अर्थात् प्रकृति के सभी प्राणी प्रभुभक्ति से झूम उठेंगे 1 अर्थात् प्रशुभक्ति से प्राकृतिक तत्त्वों में खुशियाँ फैल जाती हैं।
भाद्रवे भविक करे भगति, पर्व पजोसण तणी मुगति। पूजा रचावी भसी जुगती, जगतगुरु जिनवरने जपीए ।।१२।।
भाद्रपद में पर्वाधिराज की आराधना करके भक्ति करने की युक्ति है। प्रभु जन्मवाचन, जन्म महोत्सव, भावना, आरती, रंगोली, व्याख्यान, क्षमापना जैसी धार्मिक क्रियाओं से कर्मबंधन का उच्छेद होता है।
जैन परंपरा में लोकोत्तर पर्व का अत्यधिक महत्त्व है। पर्युषण पर्व के दिनों में जैन समाज धर्मसाधना करके पुण्य संचय करता है।
आसु ए पूरीजो आसी, पर्व दीवाली दीपकथासी। हर्षे ऋषभदास गुण गासी, जगतगुरु जिनवर जपीए 11१३।।
भक्त भगवान से प्रार्थना करते हुए कहता है कि आश्विन महिने में मेरी सभी आशाएँ पूर्ण हों। अर्थात् जीव और शिव का मिलन हो, तब सच्ची दीपावली पर्व मनाया जायेगा। वही जीवन की सबसे बड़ी धन्य पल होगी। इस धन्य पल की प्राप्ति हेतु कवि ने केशरियाजी का गुणकीर्तन किया है।
यहाँ द्रव्यपूजा से भावपूजा में प्रवेश करने का संकेत है। "बारे मास करु सेवा, ऋषभदेव मागुं मेवा। के देजो दीनतणा देवा' ||१४||*
भक्त या कवि भक्ति का फल 'मेवा' याने शाश्वत सुख माँगता है। "बारेमास सेवा' भक्ति के भाव से प्रभु से प्रतिदिन सेवा करूंगा ऐसी इच्छा व्यक्त की है। कवि प्रभु से अंतिम प्रार्थना करते हुए शाश्वत स्थान प्राप्ति की मंगलकामना करते हैं।
* आ कडी मूळ प्रतमां प्राप्त थती नथी. संपा.
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