Book Title: Shrutsagar Ank 038 039
Author(s): Hiren K Doshi
Publisher: Acharya Kailassagarsuri Gyanmandir Koba
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श्रुतसागर - ३८-३९
२१ एह विनंति चित्त हजुरजी, लहें चतुर अमृत रसपूरजी। नवि वीती हसें तस दुर जी, स्यूं जाणे मुरख भुरजी
घर आची नेम ।।३।।
मास :६
|१||
वैशाखें पाकी द्राषजी, अति पाकी आंबा साखजी। खंड करी आफू अभिलाषजी, प्राणेसर रस भरी चाखोजी करुणा करी नेम एकवार, मंदिर आवो घणुं स्युं कहिइं। नव भवनो प्रेम किम करी, चूकावो चतुर चित्त लहिइं. उत्तगना तेम छे प्यारजी, जलमां जिम तेलनी धार जी। आथमति छांहडी सारजी, ते तो वड जेटले विस्तार जी बालकवय भणवा जोगजी, जोवन वयें विलसें भोग जी। वृद्धपणे पालें जोगजी, कहें अमृत अचल अमोधजी
|| नंद कुंयर वर नानडीआ ए देशी ।।
|२||
||३11
मास : ७
लावा
||१||
हवें जेठे भेठी थइ छाहिं, आ अलगी वलगी बांहिं हो। समुद्रविजय सुत सामलीआ, आरांम अनोपम वन जईइ, उछाहिं रमीई वीसमीइं हो, प्राणजीवन वर पातिलीया भरीओ सीतल खंडोखलीओ, मांहि सुरभी कुसुम रंगे भलिओ हो। उपगारी आवी इहां झीलो, राणी राजुलनां दुःख पीलो हो ।२।। अति झाझुंस्युं रे कहावो, सुं माननीने तरसावो हो । चतुर कलीत अवसर परखो, भरी अमृत निजरे निरखो हो ।।३।।
मास :८
आ असाढ चढ्यो आवी, चिहुं दिशें घनघोर मचावी हो। वीरह न वधारो नाहलीआ, मंदिर आवो सीवादेवी नंदना (आंचली) कां थाओ कठोर ते मननाहो, तुम विण न गमे नाहलीआ गयण धडूके वरसें धारा, आ दादुरमोर किंगारा हो। झवझब झबके चपला चमकारा, आ अबलाने कौंण आधारा हो
||१||
|२||
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