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(१५) हरिनेट ते ॥ कुमति कदा ग्रह मेट ॥ २३॥ कुम ति कौशिक जेहने, देखी जांखा थाय ॥ ते ॥ सवि तल महिमा गाय ॥२४॥ सूरज कुंमना नीरथी, या धि व्याधि पलाय ॥ ते ॥ जस महिमा न कहाय ॥ २५॥ सुंदर ट्रंक शोदामणो, मेरुसम प्रासाद ।। ते दूर टने विखवाद ॥ २६ ॥व्य नाव वैरी त गा, जिहां आवे होय शांत ॥ ते ॥ जाये नवनी नांत ॥ २७ ।। जग हितकारी जनवरा, याव्या एणे गम॥ते ।। जस महिमा नदाम ॥ ७॥ नदी श त्रंजी स्नानथी, मिथ्यामन धोवाय ॥ ते ॥ सविज नने सुखदाय ॥श्णा थान कर्म जे सिवगिरें, न दीये तीव्र विपाक ॥ ते ॥ जिहां नविआवे काक ॥३०॥ सिशिला तपनीय मय, रत्नस्फाटिक खाण ॥ते॥ पाम्या केवल नाण ॥३१॥ सोवन रूपा रत्ननी, औ बधि जात अनेक ॥ ते० ॥ न रहे पातक एक ॥ ॥ ३२ ॥ संयमधारी संयमें, पावन होय जिण खे त्र॥ ते ॥ देवा निर्मन नेत्र ॥ ३३ ॥ श्रावक जि हां शुन व्यथी, उडव पूजा स्नान ॥ ते० ॥ पोषे पात्र सुपात्र ॥ ३४ ॥ सामिवत्सल पुण्य जिहां, थ नंत गुणुं कहेवाय ॥तेा सोवन फूल वधाय ॥३॥
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