Book Title: Shatkhandagama Pustak 11
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Balchandra Shastri, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati

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Page 13
________________ विषय- परिचय (३) आबाधाकाण्डकप्ररूपणा में यह बतलाया गया है कि पंचेन्द्रिय संज्ञी आदि जीव आयुकर्मको छोड़कर शेष ७ कर्मोंकी उत्कृष्ट स्थितिसे आबाधाके एक एक समयमें पल्योपमके असंख्यातवें भाग मात्र नीचे आकर एक आबाधाकाण्डकको करते हैं । उदाहरणार्थ विवक्षित जीव आबाधा अन्तिम समयमें ज्ञानावरणादिकी उत्कृष्ट स्थितिको भी बांधता है, उससे एक समय कम स्थितिको बांधता है, दो समय कम स्थितिको भी बांधता है, तीन समय कम स्थितिको भी बांधता है, इस क्रमसे जाकर उक्त समयमें ही पल्योपमके असंख्यातवें भाग मात्रसे हीन तक उत्कृष्ट स्थितिको बांधता है । इस प्रकार आबाधाके अन्तिम समयमें जितनी भी स्थितियाँ बन्धके योग्य हैं उन सबकी एक आबाधाकाण्डक संज्ञा निर्दिष्ट की गयी है । इसी से आबाधा के द्विचरमादि समयोंके विवक्षित द्वितीयादिक आबाधाकाण्डकोंको भी समझना चाहिये । यह क्रम जघन्य स्थिति प्राप्त होने तक चालू रहता है । यहाँ श्री वीरसेन स्वामीने चौदह जीवसमासोंमें आबाधास्थानों और आबाधाकाण्डकशलाकाओंके प्रमाणकी भी प्ररूपणा की है । 1 १२ यहाँ आयु कर्मके आबाधाकाण्डकोंकी प्ररूपणा न करनेका कारण यह है कि अमुक आबाधामें आयुकी अमुक स्थिति बँधती है, ऐसा कोई नियम अन्य कर्मोके समान आयुकर्मके विषयमें सम्भव नहीं है । कारण कि पूर्वकोटिके त्रिभागको आबाधा करके उसमें तेतीस सागरोपम प्रमाण [ उत्कृष्ट ] आयु बँधती है, उससे एक समय कम भी बँधती है, दो समय कम भी बँधती है, तीन समय कम भी बँधती है, यहाँ तक कि इसी आबाधामें क्षुद्रभवग्रहण मात्र तक आयुस्थिति बँधती है । यही कारण है कि यहाँ आयुके आबाधाकाण्डकोंकी प्ररूपणा नहीं की गयी । ( ४ ) अल्पबहुत्व अनुयोगद्वार में मूलसूत्रकार द्वारा चौदह जीवसमासोंमें ज्ञानावरणादि ७ कर्मों तथा आयु कर्मकी जघन्य व उत्कृष्ट आबाधा, आबाधास्थान, आबाधाकाण्डक, नानाप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर, एकप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर, एक आबाधाकाण्डक, जघन्य व उत्कृष्ट स्थितिबन्ध तथा स्थितिबन्धस्थान, इन सबके अल्पबहुत्वकी प्ररूपणा विशद रूपसे की गयी है' । आगे चलकर यहाँ श्री वीरसेन स्वामीने इस अल्पबहुत्वके द्वारा सूचित स्वस्थान व परस्थान अल्पबहुत्वोंकी भी प्ररूपणा बहुत विस्तार से की है । चूलिका २ इस चूलिका अन्तर्गत स्थितिबन्धाध्यवसायस्थानोंकी प्ररूपणामें जीवसमुदाहार, प्रकृतिसमुदाहार और स्थितिसमुदाहार ये ३ अनुयोगद्वार निर्दिष्ट किये गये हैं । (१) जीवसमुदाहारमें यह बतलाया है कि जो जीव ज्ञानावरणादि रूप ध्रुवप्रकृतियोंके बन्धक हैं वे दो प्रकार होते हैं— सातबन्धक, और असातबन्धक । इसका कारण यह है कि १ तुलनाके लिये देखिये कर्मप्रकृति १-८६ गाथाकी आचार्य मलयगिरिविरचित संस्कृत टीका । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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