Book Title: Shatkhandagama Pustak 11 Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Balchandra Shastri, A N Upadhye Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay AmravatiPage 12
________________ विषय-परिचय चूलिका १ इस चूलिकामें निम्न ४ अनुयोगद्वार हैं—स्थितिबन्धस्थानप्ररूपणा, निषेकप्ररूपणा, आबाधाकाण्डकप्ररूपणा और अल्पबहुत्व । (१) स्थितिबन्धस्थानप्ररूपणामें चौदह जीवसमासोंके आश्रयसे स्थितिबन्धस्थानोंके अल्पबहत्वकी प्ररूपणा की गयी है। अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिमेसे जघन्य स्थितिको कम करके एक अंकके मिला देनेपर जो प्राप्त हो उतने स्थितिस्थान होते हैं । इस अल्पबहुत्वको देशामर्शक सूचित कर श्री वीरसेन स्वामीने यहाँ अल्पबहुत्वके अव्वोगाढअल्पबहुत्व और मूलप्रकृतिअल्पबहुत्व ये दो भेद बतला कर स्वस्थान-परस्थानके भेदसे विस्तारपूर्वक प्ररूपणा की है। अब्बोगाढअल्पबहुत्वमें कर्मविशेषकी अपेक्षा न कर सामान्यतया जीवसमासोंके आधारसे जघन्य व उत्कृष्ट स्थितिबन्ध, स्थितिबन्धस्थान और स्थितिबन्धस्थानविशेषका अल्पबहुत्व बतलाया गया है। परन्तु मूलप्रकृतिअल्पबहुत्वमें उन्हीं जीवसमासोंके आधारसे ज्ञानावरणादि कर्मोकी अपेक्षा कर उपर्युक्त जघन्य व उत्कृष्ट स्थितिबन्धादिके अल्पबहुत्वकी प्ररूपणा की गयी है। आगे जाकर “ बध्यते इति बन्धः, स्थितिश्चासौ बन्धश्च स्थितिबन्धः, तस्य स्थानं विशेष. स्थितिबन्धस्थानम् ; अथवा बन्धनं बन्धः, स्थितेर्बन्धः स्थितिबन्धः, सोऽस्मिन् तिष्ठतीति स्थितिबन्धस्थानम् " इन दो निरुक्तियोंके अनुसार स्थितिबन्धस्थानका अर्थ आबाधास्थान करके पूर्वोक्त पद्धतिके ही अनुसार अव्वोगाढ़अल्पबहुत्वमें स्वस्थान-परस्थान स्वरूपसे जघन्य व उत्कृष्ट आबाधा, आबाधास्थान और आबाधास्थानविशेषके अल्पबहुत्वकी सामान्यतया तथा मूलप्रकृतिअल्पबहुत्वमें इन्हींके अल्पबहुत्वकी कर्मविशेषके आधारसे प्ररूपणा की गयी है। तत्पश्चात् जघन्य व उत्कृष्ट आबाधा, आबाधास्थान और आबाधाविशेष, इन सबके अल्पबहुत्वकी प्ररूपणा पूर्वोक्त पद्धतिके ही अनुसार सम्मिलित रूपमें एक साथ भी की गयी है। __तत्पश्चात् “स्थितयो बध्यन्ते एभिरिति स्थितिबन्धः, तेषां स्थानानि अवस्थाविशेषाः स्थितिबन्धस्थानानि" इस निरुक्तिके अनुसार स्थितिबन्धस्थानपदसे स्थितिबन्धके कारणभूत संक्लेश व विशुद्धि रूप परिणामोंकी व्याख्या प्ररूपणा, प्रमाण व अल्पबहुत्व इन ३ अनुयोगद्वारोंसे की गयी है। संक्लेशविशुद्धिस्थानोंका अल्पबहुत्व स्वयं मूलग्रन्थकर्ता भट्टारक भूतबलिके द्वारा चौदह जीवसमासोंके आधारसे किया गया है। तत्पश्चात् स्थितिबन्धकी जघन्य व उत्कृष्ट आदि अवस्थाविशेषोंके अल्पबहुत्वका भी वर्णन मूलसूत्रकारने स्वयं ही किया है। (२) निषेकप्ररूपणा-संज्ञी पंचेन्द्रिय मिथ्यादृष्टि पर्याप्त आदि विविध जीव ज्ञानावरणादि कर्मोंके आबाधाकालको छोड़कर उत्कृष्ट स्थितिके अन्तिम समय पर्यन्त प्रथमादिक समयोंमें किस प्रमाणसे द्रव्य देकर निषेकरचना करते हैं, इसकी प्ररूपणा इस अधिकारमें प्ररूपणा, प्रमाण, श्रेणि, अवहार, भागाभाग और अल्पबहुत्व, इन ६ अनुयोगद्वारोंके द्वारा विस्तारसे की गई है। १ यह अल्पबहुत्व श्वेताम्बर कर्मप्रकृति ग्रन्थकी आचार्य मलय गिरि विरचित संस्कृत टीकामें भी यत् किंचित् भेदके साथ प्रायः ज्योंका त्यों पाया जाता है (देखिये कर्मप्रकृति गाथा १, ८०-८१ की टीका)। इसके अतिरिक्त यहां अन्य भी कुछ प्रकरण अनूदित जैसे उपलब्ध होते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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