________________
( ३ )
लिपि नहीं हो सकी । उक्त प्रतिको गत वर्षमें बनारस भी ले गया और वहाँ रहनेवाले कनड़ीके जानकार विद्वानोंके साथ संपर्क स्थापित कर उनसे बचानेका प्रयत्न भी किया । किन्तु प्राचीन कड़ी लिपि होनेसे उन्हें भी बाँचनेमें सफलता मिली। वे केवल प्रारम्भका कुछ अंश बाँच सके, जो इस प्रकार है
श्री शान्तिनाथाय नमः ।
श्रोवीरं जिनमानम्य वस्तुतत्त्वोपदेशकम् । श्रावकाचारसारख्यं वक्ष्ये कर्णाटभाषया ॥ १ ॥
माडि
इन्तु मंगलाद्यर्थं विशिष्टदेवतानमस्कारमं बिन्नेन" *****
इस उद्धरण से यह तो ज्ञात हो सका है कि यह माघनन्दि-श्रावकाचारसार कनड़ी भाषामें ही रचा और कनड़ी लिपिमें ही लिखा गया है । यदि इसके सुननेका भी अवसर मिल जाता, तो उसकी विशेषताओंका भी उल्लेख प्रस्तावना में कर दिया जाता । अन्तमें प्रस्तुत ग्रंथमालाके प्रधान सम्पादकजीके परामर्शसे यही निर्णय किया गया कि जब कभी उसकी नागरी लिपि हो सकेगी, तब उसे ग्रंथमालासे प्रकाशित कर दिया जायेगा ।
प्रस्तुत श्रावकाचार-संग्रहके पाँचों भागों से सबसे अधिक कठिनाई मुझे इस भाग में संकलित कुन्दकुन्द श्रावकाचारके सम्पादनमें उसकी दूसरी प्रति अन्य किसी शास्त्र भण्डारसे नहीं प्राप्त - होने के कारण हुई। ऐलक पन्नालाल सरस्वती भवन ब्यावरकी एकमात्र प्रतिके आधारपर ही इसका सम्पादन करना पड़ा है । परन्तु यह प्रति बहुत ही अशुद्ध थी अतः ज्योतिष शास्त्रसे सम्बद्ध मूल पाठोंके संशोधनमें हमें ज्योतिष-शास्त्रालंकार श्रीमान् पं० हरगोविन्दजी द्विवेदी, वाराणसीसे भरपूर सहायता प्राप्त हुई है और ज्योतिष - प्रकरणवाले सभी श्लोकों का हिन्दी अनुवाद भी उन्हींकी कृपा से संभव हो सका है । आपने लगातार चार मासतक अपना बहुमूल्य समय देकर हमें अनुगृहीत किया है । इसके लिए आपका जितना भी आभार माना जावे, वह कम ही रहेगा । वैद्यक शास्त्रसे और खासकर सर्प-विषयक प्रकरणके संशोधन और हिन्दी अनुवाद करनेमें श्रीमान् डॉ० रामावलम्ब शास्त्री, नव्यन्याय व्याकरण-ज्योतिष-पुराणेतिहास- आयुर्वेदाचार्य प्राध्यापक एवं चिकित्सक संस्कृत आयुर्वेद कालेज, सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय वाराणसीका परम दुर्लभ साहाय्य प्राप्त हुआ है, उसके लिए हम उनके चिर ऋणी रहेंगे । प्रतिष्ठापाठ एवं प्रतिमा-निर्माणप्रकरण के संशोधन एवं हिन्दी अनुवादमें हमें श्रीमान् बारेलालजी राजवैद्य एवं प्रतिष्ठाचार्य टीकमगढ़का परम सहयोग प्राप्त हुआ है, जिसके लिए हम उनके आभारी हैं । उक्त प्रकरणोंके सिवाय शेष समस्त ग्रन्थके मूल पाठोंके संशोधन और अर्थ-निर्णयमें हमारे परम-स्नेही श्रीमान् पं० अमृतलालजी शास्त्री साहित्य और दर्शनाचार्य, प्राध्यापक सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय वाराणसी से भर-पूर अति दुर्लभ साहाय्य प्राप्त हुआ है, जिसके लिए मैं उनका चिर आभारी रहूँगा ।
Jain Education International
श्रावकाचारसारमन्दसाद्य यदि
उक्त विद्वानोंके अतिरिक्त हमें ज्योतिष-वैद्यकसे सम्बद्ध अनेक श्लोकोंके संशोधन और अर्थ-स्पष्टीकरणमें श्री पं० सत्यनारायणजी त्रिपाठी, प्राध्यापक हिन्दू विश्वविद्यालय, श्री पं० विश्वनाथजी पाण्डेय, श्री डॉ० सहजानन्दजी आयुर्वेदाचार्य, श्री पं० अवधविहारीजी शास्त्री, रिटायर्ड प्रो० हिन्दू विश्वविद्यालय वाराणसीका तथा श्री पं० गुलझारीलालजी आयुर्वेदाचार्य
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org