Book Title: Savruttikam Uttaradhyayan Sutram Part 01
Author(s): Bhavvijay Gani
Publisher: Atmanand Jain Sabha
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सुभाषितानि सूक्तानि वचनानीति योज्यते, ऋषयावृत्त्यार्थ यक्षा यक्षपरिवारस्य बहुत्वाद्बहुवचनं, कुमारान् ।
द्वादशमवारयन्ति, उपद्रवान् कुर्वतो निराकुर्वन्तीति सूत्रार्थः ॥ २४ ॥ कथं निवारयन्तीत्याह
ध्ययनम्
गा २५-२७ मूलम्-ते घोररूवा ठिअ अंतलिक्खे, असुरा तहिं तं जणं तालयंति ।
ते भिन्नदेहे रुहिरं वमंते, पासित्तु भद्दा इणमाहु भुजो ॥ २५ ॥ व्याख्या--ते यक्षा घोररूपा रौद्राकारधारिणः 'ठिअत्ति' स्थिता अन्तरिक्षे नभसि असुरा आसुरभावान्वितत्वात् । तस्मिन् यज्ञपाटे तं उपद्रवकरं जनं ताडयन्ति, ततश्च तान् कुमारान् भिन्नदेहान् विदारिताङ्गान् यक्षप्रहारैरिति गम्यं, तथा रुधिरं वमतो दृष्ट्वा भद्रा इदं वक्ष्यमाणं 'आहुत्ति'वचनव्यत्ययादाह ब्रूते, भूयः पुनरिति सूत्रार्थः॥२५॥ तद्यथामू-गिरि नहेहिं खणह, अयं दंतेहिं खायह । जायतेअं पाएहिं हणह, जे भिक्खुं अवमन्नह ॥ २६॥ | व्यख्या-गिरि नखैः खनथ, इह सर्वत्रेवार्थो द्रष्टव्यस्ततः खनथेव खनथ, तथा अयो लोहं दन्तैः खादथ,
जाततेजसं अग्निं पादैहन्यथ ताडयथ, ये यूयं भिक्षु प्रक्रमादेनं अवमन्यध्वे अवधीरयथ, अनर्थफलत्वाद्भिश्वपमान|स्वेति सूत्रार्थः ॥ २६ ॥ कथमिदमित्याह
मूलम् आसीविसो उग्गतवो महेसी, घोरवओ घोरपरक्कमो अ।
अगणिं व पक्खंद पयंगसेणा, जे भिक्खु भत्तकाले वहेह ॥ २७ ॥

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