Book Title: Savruttikam Uttaradhyayan Sutram Part 01
Author(s): Bhavvijay Gani
Publisher: Atmanand Jain Sabha
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उत्तराध्ययन
त्रयोदशमध्ययनम्
॥२८७॥
१५
चित्रसम्भूतचरित्रम २७९-२९१
खामिन्!, जानामि त्वामहं नियतम् ॥ २७९ ॥ तन्मे मन इव रथममु-मारोह विमो! द्रुतं तयेत्युदितः ॥ रथमारुह्य समित्रः, क ? गम्यमिति तां जगौ नृपभूः ॥ २८० ॥ साख्यन्मगधपुरे मम, वसति पितृव्यो धनावहःश्रेष्ठी ॥ स हि कर्ता प्रतिपत्ति, प्रचुरां तत्तत्र गम्यमितः ॥ २८१ ॥ इति रत्नवतीवचना-त्सुहृदा सूतेन वाहयन् वाहान् ॥ प्रापाटवीं कुमारः, कौशांबीविषयमुलंध्य ॥ २८२ ॥ तत्र सुकण्टककण्टक-संज्ञौ चौराधिपो प्रबलसैन्यौ ॥ तं रुरु- धतुरपहर्तुं, रथादि विशिखान् प्रवर्षन्तौ ॥ २८३ ॥ चापमुपादाय ततः, प्रहरन्नृपनन्दनः शरप्रकरैः ॥ तदस्युवल- | मनाशय-दहर्पतिस्तम इवांशुभरैः ॥ २८४ ॥ तमथोचे सचीवसुतः, श्रान्तोसि रणेन तद्रक्षेत्रैव ॥ खपिहि क्षणं ततः सो-ऽप्यशेत सह रत्नवत्या द्राग ॥ २८५॥ प्रातश्चैकां तटिनी, प्राप्यातिष्ठन् हयाः खयं श्रान्ताः॥ तत्रच जागरितो ना-पश्यत्सुहृदं रथे नृपभूः ॥ २८६ ॥ भावी जलाय गत इति, मुहुमुहुरशब्दयत्कुमारस्तम् ॥ न त्वाप प्रतिवचनं, सद्वचनं नीचवदन इव ॥ २८७ ॥ व्याकुलचेताः स ततो, बाष्पजलाविलशा दिशः पश्यन् ॥ रक्ताभ्यक्तमपश्यत् , स्यन्दनवदनं नरेन्द्रसुतः॥ २८८ ॥ हाऽहं हत इति जल्पं-स्ततोऽपतन्मूछितो रथोत्सङ्गे ॥ अधिगतसंज्ञस्तु भशं, व्यलपत्कुत्रासि ? मित्रेति ॥ २८९ ॥ तमथाख्यद्रत्नवती, प्रभो! सखा ज्ञायते न हि मृतस्ते ॥ तत्तस्येदममङ्गल-मुचितं वाचापि नो कर्त्तम् ॥ २९० ॥ नूनमपृष्ट्वापि त्वां, त्वत्कार्यायैव स हि गतो भावी ॥ स्थाने गतास्तु शुद्धिं, तख नरैः कारयिष्यामः ॥ २९१ ॥ परमिह गहने स्थातुं, नो चिरमुचितं यमोपवनकल्पे ॥ इति तद्विरा स तुरगा-बद
HAR
॥
७॥

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