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सत्यशासन-परीक्षा "देशकालाकारव्यवच्छिन्ननिर्व्यभिचार-सकलावस्थाव्यापि प्रतिभासमात्रमखण्डज्ञानानन्दामृतमयं परमब्रह्मकमेवास्ति न तु द्वितीयम्, 'एकमेवाद्वितीयं ब्रह्म' इत्याद्याम्नायात् ।" ( परम०६५)
"कथमेकमेव परब्रह्मास्ति, परसारं भिन्नानां नानात्मनां प्रतीतैरिति चेत्; न; एकस्यापि तस्य भूते भूते व्यवस्थितस्य जलेषु चन्द्रवत् अनेकधा प्रतिभाससंभवात् । तदुक्तम्
___"एक एव तु भूतात्मा भूते भूते व्यवस्थितः ।
एकधा बहुधा चैव दृश्यते जलचन्द्रवत् ॥" ( वही० ६६) इसके आगे और भी विस्तारके साथ ब्रह्माद्वैतका विवेचन है। इसे पढ़कर यह लगता है कि वेदान्तका ही कोई ग्रन्थ पढ़ा जा रहा हो । यही प्रक्रिया प्रत्येक शासन में अपनायो गयो है।
पूर्वपक्षके बाद उत्तरपक्षमें उस शासनको विभिन्न तर्को तथा पूर्व जैनाचार्योंके शास्त्रोंसे प्रमाण देकर दृष्ट और इष्ट विरुद्ध सिद्ध किया गया है। यथा
"तदेतत् ........."प्रत्यक्षविरुद्धम्......"तथेष्ट विरुद्धञ्च" यही शैली पूरे ग्रन्थमैं अपनायी गयी है।
[३] ग्रन्थसार ६१-४. विद्या ( अनन्तज्ञान ) तथा आनन्द ( अनन्तसुख ) के अधिपति जिनेन्द्रदेवको विद्यानन्दिस्वामीका नमस्कार हो।
इस ग्रन्थका नाम सत्यशासन-परीक्षा है। इसमें पुरुषाद्वैत, शब्दाद्वैत, विज्ञानाद्वैत, चित्राद्वैत, चार्वाक, बौद्ध, सेश्वरसांख्य, निरीश्वरसांख्य, नैयायिक, वैशेषिक, भाट्ट, प्राभाकर, तत्त्वोपप्लव तथा अनेकान्तशासनके सत्यत्वकी समीक्षा की गयी है । परस्पर विरोधी बातोंका प्रतिपादन करनेके कारण सभी शासन तो सत्य हो नहीं सकते, कोई एक ही सत्य होगा। सत्यताकी कसौटी यह है कि जो शासन इष्ट (प्रत्यक्ष ) तथा इष्ट ( अनुमान आदि ) से बाधित न हो वही सत्य है। इसी आधारपर समीक्षा की गयी है ।
[परमब्रह्माद्वैत-शासन-परीक्षा ] [ पूर्वपक्ष]
६५. ब्रह्म एक है, अद्वितीय है, अखण्डज्ञानानन्दमय है, सम्पूर्ण अवस्थाओंको व्याप्त करनेवाला है एवं प्रतिभासमात्रसे जाना जाता है।
६६. एक ही ब्रह्म अनेक भूता ( जड़-चेतन ) में जलमें चन्द्रमाको तरह भिन्न-भिन्न प्रकारसे दिखायी देता है।
७. पृथ्वी आदि ब्रह्मके विवर्त है, भिन्न तत्त्व नहीं। इस चराचर संसार ( प्रपञ्च ) को उत्पत्ति इसी ब्रह्मसे होती है।
६८. अनादिकालीन अविद्याके संसर्गके कारण परब्रह्मसे प्रपञ्च ( संसार ) को उत्पत्ति होती है । ६९. यह अविद्या सत् और असत्से भिन्न अनिर्वचनीय है ।
६१०. जिस तरह भ्रमवश रस्सीमें साँपका ज्ञान होता है, उसी प्रकार मायारूप यह संसार उसी परब्रह्म में प्रतिभासित होता है।
६११. जबतक अविद्या रहती है तभीतक यह सब विवर्त दृष्टिगोचर होते हैं, अविद्याकी निवृत्ति हो जानेपर नहीं। यही अविद्या-निवृत्ति मोक्ष है।
ब्रह्मका साक्षात्कार मोक्षका उपाय है । श्रवण, मनन और ध्यानके द्वारा ब्रह्मका साक्षात्कार होता है।
६ १२. उपनिषद् वाक्योंका परमब्रह्ममें तात्पर्य निश्चित करना श्रवण है । सुने हुए अर्थका युक्तिपूर्वक विचार करना मनन है तथा श्रवण और मननके द्वारा निश्चित किये गये अर्थका मनसे चिन्तन करना ध्यान है । यह ध्यान नित्यानित्य वस्तुविवेक, शम, दम आदि सम्पत्ति, इस लोक तथा परलोकसे वैराग्य और
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