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सत्यशासन-परीक्षा
इसलिए कोई भी सर्वज्ञ नहीं हो सकता ।
६२. आगम और तर्क भी प्रमाण नहीं; क्योंकि उनमें भी परस्पर विरोध देखा जाता है; अतएव धर्मानुष्टान भी सिद्ध नहीं होते। कहा भी है
"तर्कोऽप्रतिष्ठः श्रतयो विभिन्नाः नासो मनिर्यस्य वच: प्रमाणम् ।।
धर्मस्य तत्वं निहितं गुहायां महाजनो येन गतः सः पन्या: ॥" -विचार करनेपर तर्क टिकता नहीं, श्रुतियां ( आगम ) विभिन्न प्रकारको हैं, ऐसा कोई मुनि नहीं जिसके वचनोंको प्रमाण माना जा सके । धर्मका तत्त्व गूढ़ है, इसलिए महापुरुष जिस मार्ग से चलें वही मार्ग श्रेष्ठ है।
६३. बृहस्पतिने प्रत्यक्ष प्रसिद्ध पृथ्वी, जल, तेज और वायु इन्हीं चार तत्त्वोंका वर्णन किया है। शरीर रूपमें परिणत हुए इन्हीं तत्त्वोंमें चैतन्य उत्पन्न हो जाता है, जिस प्रकार गुड़ आदि द्रव्योंके संयोगसे मद शक्ति अथवा ताँत ( स्नायु ), तूंबी, दण्ड और अगूंठे आदिके. संयोगसे मधुर स्वर उत्पन्न हो जाता है। यह चैतन्य गर्भसे लेकर मरण पर्यन्त 'जीव' 'आत्मा' इत्यादि नामोंसे पुकारा जाता है। गर्भके पूर्व तथा मरणके उपरान्त इसका अभाव है।
६४. इस तरह ऐसा जीव नहीं जिसका परलोक हो; अतएव परलोकीके अभावमें परलोकका अभाव स्वतः सिद्ध हो जाता है। मूर्ख लोग व्यर्थ ही ठगे जाकर परलोकके सुखानुभवके लिए शरीर और घनका अपव्यय करते हैं । मृत्यु अवश्यम्भावी है; भस्म हुआ शरीर फिरसे वापस नहीं आनेवाला; इसलिए जबतक जिन्दगो है, सुखसे जोना चाहिए। अग्निहोत्र, तोन वेद, त्रिदण्ड धारण करना आदि कार्य बुद्धि और पौरुषहीन लोगोंकी आजीविका है । [ उत्तरपक्ष ]
६५-६. प्रत्यक्षसे पथ्वी आदिका परस्पर उपादान-उपादेय भाव देखा जाता है। चन्द्रकान्त और सूर्यकान्त मणियोंसे चन्द्रमा और सूर्यके प्रकाशमें क्रमशः जल और अग्नि निकलना, अग्निरूप दीपकसे पृथ्वीरूप कज्जल तथा जल ( स्वाति नक्षत्रके ) विशेषसे मोती बनना, पंखेसे हवा होना, इत्यादि उदाहरण प्रत्यक्षसे पृथ्वी आदि तत्त्वोंका उपादान-उपादेय भाव व्यक्त करते हैं ।
६७-८. 'जीव नहीं है' यह कथन भी प्रत्यक्षविरुद्ध है। स्वसंवेदन प्रत्यक्षके द्वारा आत्मतत्त्वका अनुभव होता है । इस तरह अनुमानके बिना भी जीवका अस्तित्व सिद्ध होता है। हेतु तो उसके लिए दिया जाता है, जो प्रत्यक्षसे सिद्ध न हो । हाथमें पहने हुए कंकनको देखने के लिए दर्पण नहीं लिया जाता।
६९-१०. जीव और शरीरमें भेद है, क्योंकि जीव भोक्ता है और शरीर भोग्य । भोग्यके सद्भावमें भोक्ताकी स्वतन्त्र सिद्धि हो जाती है। शरीरको ही यदि भोक्ता मान लिया जाये तो मृतक शरीरमें भी भोक्तृत्वका प्रसंग आयेगा। इस तरह स्वसंवेदन प्रत्यक्ष तथा भोक्तृत्वके आधारपर जीवकी स्वतन्त्र सत्ता सिद्ध होती है।
६ ११. चार्वाकशासन इष्टविरुद्ध भी है, यह बताते हुए सर्वप्रथम जीवको प्रतिषेध, गौणकल्पना, शुद्धपद, अनेक सम्मति तथा जिनोक्तिके द्वारा अनादि, अनन्त, शरीरसे भिन्न स्वतन्त्र तत्त्व सिद्ध किया गया है।
६ १२. किसी भी वस्तुका निषेध प्रकारान्तरसे उस वस्तु के अस्तित्वको सिद्ध करता है। उदाहरणके लिए यह कथन कि 'यहां घड़ा नहीं है' प्रकारान्तरसे यह बात सिद्ध करता है कि 'अन्यत्र घड़ा है'।
१३. इस संदर्भ में यह तर्क उचित न होगा कि-'जिसका सर्वथा अभाव होता है उसीका निषेध किया जाता है, जैसे गधेके सोंग सर्वथा नहीं होते, इसीलिए उनका निषेध किया जाता है; क्योंकि गाय आदिके सिरपर विद्यमान सींगोंका हो गधेके सिरपर निषेध किया जाता है, न कि सर्वथा अभावरूप सींगोंका।
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