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सत्यशासन-परीक्षा
अद्वैतका निरास करते समय अनुमान विरोध दिखानेके लिए निम्न कारिकाका प्रमाण दिया
गया है—
३. "अद्वैतं न विना द्वैतादहेतुरिव हेतुना । संज्ञिनः प्रतिषेधो न प्रतिषेध्याहते क्वचित् ॥'
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[ आप्तमी० श्लो० २७ ]
प्रत्यक्ष और अनुमानसे विरोध दिखानेके उपरान्त अद्वैतैकान्त पक्ष में विद्यानन्दिने एक और व्यावहारिक कठिनाई यह बतलायी है कि अद्वैतको माननेपर अद्वैतवादियोंका धर्मानुष्ठान आदि भी नहीं बन सकेगा । इसी बात का विवेचन करके आप्तमीमांसाकी निम्नकारिकाका प्रमाण दिया है४. “कर्मद्वैतं फलद्वैतं लोकद्वैतं च नो भवेत् । विद्या विद्याद्वयं न स्याद् बन्धमोक्षद्वयं तथा ।। "
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[ आप्तमी० श्लो० २५ ] [ख] बौद्धशासन परीक्षा में वृत्तिदोषका निराकरण करते हुए निम्नकारिका उद्धृत की गयी है— ५. " एकस्यानेकवृत्तिर्न मागाभावाद्बहूनि वा । मागवावास्य नैकत्वं दोषो वृत्तेरनार्हते ॥
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[ आप्तमी० श्लो० ६२ ] [ग] सांख्यशासन-परीक्षा में कूटस्थ - नित्यताका निरास करते हुए आप्तमोमांसाको दो कारिकाओं के अर्धभाग प्रमाणरूपमें उद्धृत किये हैं
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६. “यदि सत् सर्वथा कार्यं वनोत्पत्तुमर्हति । "
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१. वही : ६३१
२. वही : ३२
३. सत्य० बौद्ध० ९२५
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७. " यद्यस सर्वथा कार्य तन्माजनि खपुष्पवत् ॥
श्राप्तमी० इलो० ४२ ]
[घ] वैशेषिकशासन-परीक्षा में समवाय सम्बन्धका निराकरण करने के प्रसंग में आप्तमीमांसाका निम्नश्लोकार्थं उद्धृत है-
४. सत्य० सांख्य० ६ १२
५. वही : १२
६, सत्य० वैशे ०
८. "कार्यभ्रान्तैरणुभ्रान्तिः कार्यलिङ्गं हि कारणम् ।
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[ आप्तमी० श्लो० ३९ ]
[३] युक्त्यनुशासन और सत्यशासन - परीक्षा
युक्त्यनुशासन भी स्वामी समन्तभद्रकी कृति है । जैसा कि लिखा जा चुका है, जैन न्यायको पृष्ठभूमि तैयार करनेवाले इस महान् आचार्यका समस्त चिन्तन विद्यानन्दिका उपजीव्य रहा है ।
युक्त्यनुशासनपर विद्यानन्दिने युक्त्यनुशासन टीका या युक्त्यनुशासनालङ्कार नामक टीका लिखी । सत्यशासन-परोक्षामें विभिन्न प्रसंगों पर युक्त्यनुशासन के सात पद्य प्रमाणरूपमें उद्धृत किये गये हैं[क] विज्ञानाद्वैतशासन - परीक्षा में बाह्य अर्थका समर्थन करनेके प्रसंग में अनेक उपपत्तियों के साथ
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[ आप्तमी ० श्लो० ६८ ]