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सत्यशासन-परीक्षा
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२. प्राभाकरों की मान्यता इस प्रकार है
द्रव्य, गुण, क्रिया, जाति, संख्या, सादृश्य, शक्ति, समवाय और क्रम ये नव ही पदार्थ हैं । इनमें पृथ्वी आदि द्रव्य हैं, रूपादि गुण हैं, उत्क्षेपण आदि क्रिया है, सत्ता, द्रव्यत्व आदि जाति है, एक, दो आदि संख्या है, गोका प्रतियोगी गवयगत और गवयका प्रतियोगी गोगत सादृश्य है; सामर्थ्यको शक्ति कहते हैं, गुण और गुणी आदिका सम्बन्ध समवाय है; एकके बाद दूसरा, यह क्रम हैं ये नव ही पदार्थ हैं; इनके यथार्थज्ञानसे निःश्रेयस (मोक्ष) की सिद्धि होती है ।
३. वेद पढ़कर, उसके अर्थको जानकर, उसमें बताये गये नित्य, नैमित्तिक, काम्य, निषिद्ध अनुष्ठानका क्रम निश्चित करके तदनुसार प्रवृत्ति करनेपर स्वर्ग और अपवर्गकी सिद्धि होती है ।
४. मुमुक्षुको प्रव्रज्या लेनी ही चाहिए, ऐसा नियम नहीं है । न्यायपूर्वक धन कमानेवाला, तत्वज्ञाननिष्ठ, अतिथिप्रिय, श्राद्ध करनेवाला, सत्यवादी गृहस्थ भी मुक्त हो जाता है ।
$ ५. भाट्टोंके अनुसार मोक्षार्थीको काम्य और निषिद्ध अनुष्ठान नहीं करना चाहिए। प्राभाकरोंके अनुसार करना चाहिए ।
[उत्तरपक्ष ]
६. यह मीमांसक मत दृष्ट ( प्रत्यक्ष ) विरुद्ध है । भाट्ट तथा प्राभाकरोंके अनुसार पृथिव्यादि अर्थ सत्तासामान्यके द्वारा जाने जाते हैं। उन्होंने सत्तासामान्यको नित्य, निरवयव, एक और व्यापक माना है । यह प्रत्यक्षविरुद्ध है; क्योंकि इस तरहके सामान्यकी कहीं भी प्रतीति नहीं होती ।
$ ७-८. इसके बाद भी यदि हठाग्रहसे वैसा ही माना जाये तो कहेंगे कि एक व्यक्ति में सर्वात्मना वर्तमान सामान्यकी अन्यत्र वृत्ति नहीं हो सकती; क्योंकि अन्यत्र वृत्ति में तद्देशगमन आदि जितने भो विकल्प हो सकते हैं वे सभी दोषयुक्त हैं । इस तरह अन्य व्यक्ति में सामान्यके अभावका प्रसंग आयेगा। कहा भी है"न याति न च तत्रासीदस्ति पश्चान्न चांशवत् । पूर्वमाधारमहो व्यसनसन्ततिः ॥ "
जहाति
६९. मीमांसकों का कहना है कि यह दोष भेदवादियोंके यहाँ ही आ सकते हैं; सामान्य और व्यक्तिका तादात्म्य माना है, इसलिए उक्त दोष नहीं । यह कथन ठीक नहीं है; तरह सामान्यके भी साधारण और असाधारण रूप माननेका तथा व्यक्तिकी तरह इसके भी माननेका प्रसंग आयेगा ।
मीमांसकोंने तो क्योंकि व्यक्तिको उत्पाद - विनाश
१०. सामान्यरूपता ही साधारणरूपता नहीं है । उत्पाद - विनाश भी नहीं बनते, इस तरह विरुद्ध धर्म- बाधा होनेसे व्यक्ति और इसका भेद हो जायेगा ।
११-१६. इस प्रकार अनेक दोषयुक्त होनेसे मीमांसकसम्मत सामान्य सिद्ध नहीं होता । [ इन वाक्य खण्डों में विस्तार के साथ सामान्यका खण्डन है । ]
[४] सत्यशासन - परीक्षा तथा अन्य ग्रन्थ
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[ अ ] जैन ग्रन्थ
[१] तत्वार्थ सूत्र और सत्यशासन - परीक्षा
तत्त्वार्थसूत्र जैन साहित्य के आद्य संस्कृत साहित्यकार आचार्य उमास्वातिको महान् कृति है । जैन तत्त्वज्ञान, प्रमाण, नय, भूगोल आदिका क्रमबद्ध सुव्यवस्थित विवेचन करनेवाला यह प्रथम संस्कृत ग्रन्थ है। तत्वार्थ सूत्रपर स्वोपज्ञ भाष्य, पूज्यपाद की सर्वार्थसिद्धि, भट्ट अकलंकका तत्वार्थवार्तिक, श्रुतसागर सूरिकी तत्त्वार्थवृत्ति आदि अनेक महत्त्वपूर्ण टीकाएँ हैं। स्वयं विद्यानन्दिने तत्त्वार्थसूत्र के एक-एक शब्दका तार्किक शैली में विस्तृत विवेचन करनेवाला तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक ग्रन्थ लिखा ।
१. श्वेताम्बर मान्यता के अनुसार ।