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सत्यशासन-परीक्षा "विवादापन्नः पुरुषः स्यादनित्यः, अनित्यभोगाभिसम्बन्धत्वात्; यदित्थं तदित्थं दृष्टम्, यथा भोगस्वरूपम् ।"
६ १९. दृष्ट तथा 'इष्ट विरुद्ध होनेसे सांख्यागम भी प्रमाण नहीं है; इसलिए उनका धर्मानुष्ठान भी नहीं बनता । इस प्रकार दृष्टेष्ट विरुद्ध होनेसे सांख्यमत सम्यक् नहीं है ।
[ वैशेषिकशासन-परीक्षा] [ पूर्वपक्ष]
१. बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, धर्म, अधर्म और संस्कार इन नव आत्म गुणोंका-अत्यन्त उच्छेद मोक्ष है । द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष तथा समवाय इन पदार्थोंके साधर्म्य और वैधयंका तत्त्वज्ञान मोक्षका कारण है। शैव, पाशुपत आदि दीक्षाग्रहण, जटाधारण, त्रिकाल भस्मोद्धुलन आदि तप और अनुष्ठान भी मोक्षके हेतु है ।
२-४. द्रव्य नव हैं-पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, काल, दिक्, आत्मा और मन । रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, संख्या, परिमाण, पृथक्त्व, संयोग, विभाग, परत्व, अपरत्व, बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा आदि चौबीस गुण हैं । उत्क्षेपण, अपक्षेपण आदि पाँच कर्म हैं। पर और अपरके भेदसे सामान्य दो प्रकारका है । नित्य द्रव्योंमें रहनेवाला विशेष है। अयुत सिद्ध तथा आधार और आधेयभूत द्रव्योंका सम्बन्ध समवाय कहलाता है। इनके साधर्म्य-वैधर्म्यका तत्त्वज्ञान मोक्षका कारण है।
$ ५-७. तत्त्वज्ञानसे मिथ्याज्ञान दूर हो जाता है; मिथ्याज्ञानके दूर होनेसे तज्जन्य राग-द्वेष; राग-द्वेषकी निवृत्तिसे तज्जन्य काय-वाङ्-मनोव्यापाररूप प्रवृत्ति तथा उसके दूर होनेसे कर्म-बन्ध-निवृत्ति हो जाती है । पूर्वोपार्जित कर्मोंका नाश भोगनेसे ही होता है अन्यथा नहीं। इन कर्मोंको भोगनेके विषयमें दो मत हैं--पहलेके अनुसार एक भवमें भी भोगे जा सकते है और दूसरेके अनुसार अनेक भवोंमें । [ उत्तरपक्ष]
८.९. यह वैशेषिकशासन प्रत्यक्षविरुद्ध है-वैशेषिकाभिमत अवयव-अवयवी, गुण-गुणी आदिका सर्वथा भेद प्रत्यक्षविरुद्ध है; क्योंकि प्रत्यक्षसे अवयव-अवयवी आदि कथंचित् अभिन्न प्रतीत होते हैं।
१०-११. यह कहना उचित नहीं कि समवायके द्वारा दोनों अर्थान्तर प्रतिभासित होते हैं; क्योंकि प्रत्यक्ष बुद्धि में ऐसा कभी भी प्रतिभासित नहीं होता कि 'ये अवयव हैं, ये अवयवी हैं और यह उनका समवाय ।'
१२-२६. वैशेषिकाभिमत समवाय सम्बन्ध भी युक्तियुक्त नहीं; क्योंकि इसके माननेमें अनेक दोष आते हैं। [ इन वाक्य खण्डोंमें विस्तारके साथ अनेक उपपत्तियों द्वारा समवायका खण्डन किया गया है । ]
२७-२८. वैशेषिक मत इष्ट विरुद्ध भी है-वैशेषिकोंने संसारको ईश्वरकृत माना है, जो कि अनुमानविरुद्ध है । अनुमान इस प्रकार है
"नेश्वरस्तन्वादोनां कर्ता, अशरीरत्वात् , य एवं स एवम्, यथात्मा, तथा चायम्, तस्मात्तथैव ।"
२९. 'सशरीरी भी बुद्धि, इच्छा और प्रयत्नके बिना कार्य नहीं कर सकता, इसलिए इन्हींको कारण माननेपर ईश्वर शरीरके बिना भी जगत्कर्ता बन सकता है।' वैशेषिकोंका यह मानना उचित नहों; क्योंकि ईश्वरमें बुद्धि, इच्छा और प्रयत्न भी असंभव हैं । मुक्तात्मामें जिस तरह इनका अभाव है वैसे हो ईश्वर में भी। इसके अतिरिक्त घट-पट आदि बुद्धिमन्निमित्तक हैं न कि पृथ्वी, पर्वत आदि ।
६३०. इतना होनेके बाद भी यदि हठाग्रहसे ईश्वरको कर्ता माना जाये तो प्रश्न होगा कि ईश्वर संसारके प्राणियोंको इतना दुःख क्यों देता है; जब कि अच्छे साधु आदि भी किसी प्राणीको दुःख नहीं
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