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प्रस्तावना
१७
सत्मशासन-परीक्षा में बन्ध के विषय में जैनदृष्टिको स्पष्ट करते हुए प्रकारान्तरसे उमास्वातिके सूत्रों को ही प्रस्तुत किया गया है । तुलनाके लिए देखें
" स्निग्धरूक्षत्वाद्वन्धः,
न जघन्यगुणानाम्, गुणसाम्ये सदृशानाम्, धिकादिगुणानां तु । "
דין
[ तत्रार्थसू० अ० ५, सू० ३३-३६ ]
"तैः ( स्याद्वादिभिः ) परमाणूनां स्निग्धरूक्षाणामजघन्यगुणानां द्वयधिकादिगुणानां विजातीयानां सजातीयानां च सतुतोयवत् सन्तप्तजतुखण्डवत् कथंचित् स्कन्धाकारपरिणामात्मकस्य संबन्ध - स्याभ्युपगमात्
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[२] आप्तमीमांसा और सत्यशासन-परीक्षा
आप्तमीमांसा स्वामी समन्तभद्रकी अमर रचना है । अकलंकने इसपर गूढ़ तर्कशैली में अष्टशती नामकी टीका लिखी । विद्यानन्दिने अष्टशतीको पूर्णतः अन्तर्हित करके आप्तमीमांसापर अष्टसहस्री नामक बृहत् टोका लिखी। विद्यानन्दकी प्रत्येक रचनापर आप्तमीमांसाकी तर्कशैली, भाव और भाषाका स्पष्ट प्रभाव है ।
सत्यशासन-परीक्षा में प्रत्येक शासनको दृष्टेष्टविरुद्ध सिद्ध करनेका तर्क विद्यानन्दिको आप्तमीमांसा के निम्न पद्यसे प्राप्त हुआ लगता है
"वन्मतामृतबाह्यानां सर्वथैकान्तवादिनाम् ।
तामिमानदग्धानां स्वेष्टुं दृष्टेन बाध्यते ॥'
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विद्यानन्द इस कारिकामें आये दृष्ट और इष्ट शब्दसे प्रेरणा पाकर सस्यशासन - परीक्षाको पृष्ठभूमि तैयार की होगी ।
विभिन्न प्रसंगों पर सत्यशासन-परीक्षा में आप्तमीमांसाकी आठ कारिकाएँ उद्धृत हैं ।
१. सत्य ० बौद्ध ०
पुरुषाद्वैत की समालोचना करते हुए विद्यानन्दिने जो तर्क उपस्थित किये हैं उनकी साक्षीमें आप्तमीमांसाकी चार कारिकाएं उद्धृत हैं
[क] अद्वैतकी सिद्धि यदि किसी हेतुसे होती है तो हेतु और साध्यका द्वैत हो जायेगा और यदि हेतुके बिना ही सिद्धि हो जाती है तो वचनमात्रसे द्वैत क्यों नहीं हो जायेगा ?
१. " हेतोर द्वैतसिद्धिश्चेत् द्वैतं स्याद्धेतुसाध्ययोः । हेतुना चेद्विना सिद्धितं वामात्रतो न किम् ॥'
१० ६२७
२. श्राप्तमी० श्लो० ७
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३. सत्य० परमब्रह्म० २०
४. वही : ३०
३
अद्वैतैकान्त पक्ष में प्रत्यक्षविरोध दिखाते हुए निम्न श्लोकका प्रमाण दिया है२. "अद्वैतैकान्तपक्षेऽपि दृष्टो भेदो विरुद्धयते । कारकाणां क्रियायाश्च नैकं स्वस्मात्प्रजायते ॥ ४
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[ आप्तमी० श्लो० २६ ]
[ आप्तमी० श्लो० २४ ]