________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
प्रस्तावना
तरह प्रारम्भके चार दर्शन अद्वैतवादी या अभेदवादी हैं ।
द्वैतवादी - द्वैतवादी या भेदवादी शासनोंसे प्रयोजन उन दार्शनिक संप्रदायोंसे है जो किसी- किसी रूप में, एक से अधिक तत्त्वको स्वीकार करते हैं। चार्वाक पृथ्वी आदि पाँच भूतोंको स्वीकार करता है, इसलिए प्रत्यक्षैकप्रमाणवादी होनेपर भी उसकी गणना द्वैतवादी या भेदवादी दर्शनों में की गयी है। बौद्ध अनात्मवादी होनेपर भी पञ्चस्कन्धोंको स्वीकार करनेके कारण भेदवादी है । सांख्यने प्रकृति और पुरुष दो तत्त्व माने हैं । इसी तरह नैयायिक, वैशेषिक आदि अन्य शासनों में भी एक से अधिक तत्त्व स्वीकार किये गये हैं । इसलिए इन सबको गणना भेदवादी दर्शनोंमें की गयी है। इस तरह उपयुक्त शासनों में प्रारम्भके चार शासनों को छोड़कर शेष दस शासन द्वैतवादी या भेदवादी हैं ।
उपर्युक्त चौदह शासनों में से प्रस्तुत संस्करण में केवल प्राभाकर शासन तक ही ग्रन्थ मुद्रित हुआ है; वास्तव में तो प्राभाकरशासन भी पूरा नहीं है ।
यह संस्करण जिन हस्तलिखित प्रतियोंके आधारपर तैयार किया गया है, पाया जाता है। संभव है भविष्य में इसकी पूर्ण प्रति भी कहीं उपलब्ध हो जाये ! विद्यानन्दकी अंतिम कृति हो, जिसे वे पूरा न कर सके हों !
भाषा और शैली
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
सत्यशासन-परीक्षा की भाषा सरल, सुबोध एवं सरस संस्कृत है। उद्धृत वाक्य तथा विद्यानन्दिकी स्वनिर्मित कारिकाओं ( जो कि प्रत्येक शासनके अन्तमें पायी जाती हैं ) के अतिरिक्त संपूर्ण ग्रन्थ सुन्दर गद्य में रचा गया है । न्यायकी शुष्क शैलीमें भी संस्कृतका माधुर्य सुरक्षित रखा जा सकता है, इसका सत्यशासन-परीक्षा अद्वितीय प्रमाण है । अष्टसहस्त्री तथा तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकको दुरूह भाषा लिखनेवाला व्यक्ति इतना सरल शब्द - विन्यास भी कर सकता है, यह विद्यानन्द जैसे संस्कृत भाषाके महान् पण्डितके लिए ही संभव था। छोटे-छोटे वाक्योंमें कठिनसे कठिन प्रमेयको उपस्थित करके विद्यानन्दिने संस्कृत और न्यायके गूढ़ तत्त्वोंको समझाने का प्रयत्न किया है।
इन उदाहरणोंमें शब्दानुप्रासको छटा दर्शनीय है ।
उन सभी में ग्रन्थ इतना ही यह भी संभव है कि यह
सत्य शासन - परीक्षाको भाषा कहीं-कहीं साहित्यकी तरह आलंकारिक भी हो गयी है । जैसे
"एवं हि सर्वभावानां क्षणभङ्गसंगममेवाङ्गशृङ्गारमङ्गीकुर्वाणास्ताथागताः संगिरन्ते ।” ( बौद्ध०९१ ) "प्राक् परमाणवः प्रतिभासन्त इति परेषां प्रतिज्ञा पोप्लूयते ।" ( बौद्ध० ६ १८ )
भाषा के जाल में लपेटकर विद्यानन्दि साहित्यिक उपहास किये बिना भी नहीं रहते
"न चैते''''प्रत्यक्ष बुद्धौ भिन्नाः प्रतीयन्ते प्रत्यक्षताञ्च स्वोकर्तुमिच्छन्तोति तेऽमी अमूल्यदानक्रयिणः ।” ( वैशे ० § ११ )
इस पंक्ति द्वारा किस कुशलतासे पूर्वपक्षीको मुफ्तखोर कह दिया गया है, यह देखने योग्य है । और भी
For Private And Personal Use Only
" तथा च हेयोपादेयोपायरहितमयमह्नीकः केवलं विक्रोशतीत्युपेक्षार्ह एव ।”
इन शब्दोंके द्वारा विद्यानन्दिने धर्मकीर्तिके निम्न शब्दोंको सधन्यवाद लौटा दिया है
( बौद्ध० 8५० )
" एतेनैव यदह्रोका यत्किचिदश्लील माकुलम् । प्रलपन्ति
" ( प्रमाणवार्तिक ३|१८२ )
इस प्रकार सत्यशासन-परीक्षाकी भाषा पाठकको न तो कहीं रुकावट पैदा करती है और न अरुचि । सत्यशासन-परीक्षाकी शैली यद्यपि विषय प्रतिपादनकी दृष्टिसे न्याय ग्रन्थोंके समान ही कही
जा सकती है, फिर भी इसकी एक अपनी अनूठी विशेषता भी है। जिस दर्शनको समीक्षा के लिए प्रस्तुत करना है सर्वप्रथम उसके सिद्धान्तोंको उसी दर्शनके मूल ग्रन्थोंसे उद्धरण देकर विस्तार के साथ पूर्वपक्षको स्थापना की जाती है । पूर्वपक्षको पढ़ते समय ऐसा महसूस होता है कि उसी दर्शनके मूल ग्रन्थको पढ़ा जा रहा हो । उदाहरण के लिए ब्रह्माद्वैतको ही ले लें, पूर्वपक्षकी स्थापना इस प्रकार की है