Book Title: Samveg Rangshala
Author(s): Padmvijay
Publisher: NIrgranth Sahitya Prakashan Sangh

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Page 11
________________ ( iv ) गणी नामक उनके शिष्य ने उसे सर्व प्रथम पुस्तक रूप में लिखी है । तथा आचार्य श्री जिनचन्द्र सूरी जी के शिष्य आचार्य श्री प्रसन्न सूरी जी की प्रार्थना से श्री गुणचन्द्र गणी ने इस ग्रन्थ को संस्कारित किया है । एवं आचार्य श्री जिनवल्लभ गणी ने इस ग्रन्थ का संशोधन किया है। विशेष परिचय इस ग्रन्थ की प्रशस्ति में देख ले । खरतर गच्छ पटावली के अनुसार आचार्य श्री जिनचन्द्र सूरी जी के नाम से कई आचार्य हुये हैं । परन्तु ये आचार्य श्री जिनेश्वर सूरीश्वर के शिष्य आचार्य श्री जिनचन्द्र सूरी जी हुए है, ये प्रथम जिनचन्द्र सूरी जी कहलाते हैं । इन्होंने अपने जीवनकाल में सात महाग्रन्थों की रचना की है। इसमें सर्व श्रेष्ठ रचना यह संवेग रंगशाला नामक आराधना शास्त्र है। पूज्य ग्रन्थकार ने स्वयं अनुभव गम्न शास्त्रीय रहस्य केवल परोपकार भाव से लिखा है । स्याद्वाद दृष्टि से ज्ञाननय और क्रियानय, द्रव्यास्तिनय और पर्यायस्तिकनय, निश्चय नय और व्यवहार नय आदि विविध अपेक्षाओं का सुन्दर समन्वय किया है। इस महाग्रन्थ का एकाग्र चित्त से श्रवण और अध्ययन करे एवं इसे कंठस्थ कर हृदयस्थ करे तो समाधिपूर्वक जीवन यात्रा सफल कर सकता है । इस महाग्रन्थ की प्रशंसा कई ग्रन्थों में मिलती है। श्री गुणचन्द्र गणि ने वि० स० ११३६ में रचित प्राकृत महावीर चरित्र में लिखा है कि 'संवेग रंगशाला न केवलं कब्ज विरयणा जेण । भव्य जण विम्हयकरी विहिया संजम पबितो वि ॥' ... अर्थात् आचार्य श्री जिनचन्द सूरी जी ने केवल संवेग रंगशाला काव्य रचना ही नहीं की अपितु भव्यजनों को विस्मय कराने वाली संयम वृत्ति का सम्पूर्ण विधान कहा है तथा श्री जिनदत्त सूरि जी ने विक्रम की बारहवीं शताब्दी उत्तरार्ध में रचित प्राकृत 'गणधर सार्धशतक' नामक ग्रन्थ में प्रशंसा लिखी है कि : संवेग रंगशाला विसालसालोबमा कया जेण।। रागाइवेरिमयभीत-भव्व जणरक्रवण निमित्तं ।। अर्थात् श्री जिनचन्द्र सूरीश्वर जी ने रागादि वैरियों से भयभीत भव्यात्मों के रक्षण के लिए विशाल किल्ले के समान संवेग रंगशाला की रचना की है। तथा आ० जिनपति सूरि जी द्वारा विक्रम की तेरहवीं शताब्दी में रचित पंचलिगी विवरण में प्रशंसा की है कि : नर्तयितुं सवेगं पुनर्नुणा लुप्तनृत्यमिव कलिना। संवेग रंगशाला येन विशाल व्यरूचि रूचिरा ॥ अर्थात् आचार्य श्री जिन चन्द्र सूरीश्वर जी ने कलिकाल से जिसका नृत्य लुप्त हो गया था, वैसे ही फिर मनुष्यों को सवेग का नृत्य कराने के लिए विशाल मनोहर संवेग रंगशाला नामक ग्रन्थ की रचना की है। इसी प्रकार १२६५ में सुमति गणि ने गणधर सार्धशतक की संस्कृत वृहद् वृत्ति में उल्लेख मिलता है तथा

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