Book Title: Samveg Rangshala Author(s): Padmvijay Publisher: NIrgranth Sahitya Prakashan Sangh View full book textPage 9
________________ संवेग रंगशाला के प्रतिनिधि श्री तीर्थंकर परमात्मा संसारी आत्माओं की भयंकर करूणा जन्य अवस्था को देखकर अपनी वात्सल्यता की अभिदृष्टि से जीवात्माओं को मोहराजा के बंधन से सदा के लिए मुक्त कराने का प्रयास करते हैं। वे जीवों को संसार का यथार्थ स्वरूप समझा-बुझाकर संसार रंगशाला की पात्रता से मुक्ति दिलाकर संवेग रंगशाला का पात्र बनाते हैं। उस जीव को पुदगलानंदी से आत्मानंदी बनाते हैं, इतना ही नहीं वे स्वयं भक्त से भगवान, नर से नारायण और आत्मा से परमात्मा बनने के मार्गदर्शक बनते हैं। यही तीर्थ स्थापना है, जिसे 'जिन शासन' कहा जाता है। यही वास्तविक संवेग रंगशाला है । इस रंगशाला में वैराग्यमय शान्त रस होता है । ____ 'संवेग' शब्द सम् उपसर्ग विज् धातु में धज प्रत्येय लगने से बना है जिसका अर्थ है विक्षोभ, उत्तेजना, प्रचंडगति, अथवा वेदना। अर्थात मोक्षानंद की बात का विक्षोभ होना, मोक्ष प्राप्ति की उत्तेजना होना, मोक्ष प्राप्ति में उत्साहपूर्वक शीघ्रगामी बनना, इस प्रकार मोक्ष अभिलाषा के लिये तड़पाने वाली पीड़ावेदना आदि में संवेग का प्रयोग होता है। योग शास्त्र के दूसरे प्रकाश श्लोक १५ वें की टीका में लिखा है "संवेगों मोक्षाभिलाषः।" अर्थात् मोक्ष साधना की उत्कट अभिलाषा संवेग है। सर्वार्थ सिद्धि में भी संवेग की व्याख्या मिलती है कि "संसार दुःखानित्य भीलता संवेग" अर्थात संसार के दुःखो से हमेशा डरना, उससे सावधान रहना संवेग है। आचार्य श्री उमास्वाति ने तत्त्वार्थ सूत्र के सातवे अध्ययन सातवे सूत्र में कहा है :-"जगतकाय स्वभावो च संवेग वैराग्यर्थम् ।" अर्थात जगत स्वभाव के चिन्तन से संसार के प्रति मोह दूर होता है वह संवेग है। इसी प्रकार काया के अस्थिर अशुचि और असारता स्वभाव के चिन्तन से अन्यसत्ति, भाव उत्पन्न होता है, वही वैराग्य है । ___ इस संवेग रंगशाला का अचिन्त्य महाप्रभाव है। इसका पात्र बनते ही जीव का स्वरूप बदल जाता है। वह मुमुक्षु कहलाने लगता है। मुमुक्षु बनने पर वह संसार के स्वरूप को वास्तविक नहीं मानता, मोहराजा का झूठा जाल समझता है, भौतिक सर्व पदार्थ उसे क्षणिक मधुरता व सुन्दरता रहित असार दिखाई देने लगते हैं। वह संसार को दुःखमय, अशुचिमय, पापयुक्त, अज्ञानमय, प्रमादमय और कषाय युक्त मानता है। अपने को ज्ञानमय, दर्शनमय, चारित्रमय एवं पूर्ण सहजानंदमय बनने की पवित्र भावना प्रत्येक आत्मप्रदेश में गूंज उठती है। संसार से मुक्त होने की और स्वात्मा के स्वरूप प्रगट करने की तीव्र अभिलाषा अथवा मोक्ष प्राप्ति की तीव्र अभिलाषा रखने वाला उत्कट संवेग उत्पन्न होता है । संवेग की महिमा का गुण गान परम पूज्य श्री ग्रन्थकार ने स्वयं इसी ग्रन्थ में ५५ वी श्लोक में किया है :Page Navigation
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