Book Title: Samveg Rangshala
Author(s): Padmvijay
Publisher: NIrgranth Sahitya Prakashan Sangh

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Page 10
________________ ( iii ) एसो पुण संवेगो, संवेग परायणेहिपरि कहिओ। परमं भव भीरूत्तं, अहवा मोक्खा भिकं खिता ॥ अर्थात् :-संवेग रस के ज्ञाता श्री तीर्थंकर परमात्मा और गणधर भगवंत ने संसार के तीव्रभय अथवा मोक्ष की अभिलाषा को संवेग कहा है । ग्रन्थकार ने : आगे और भी वर्णन किया है कि-संवेग के साथ निर्वेद आदि परमार्थ तत्त्वों का जिसमें विस्तार हो वह शास्त्र श्रेष्ठतम शास्त्र कहलाता है। संवेग गर्भित अति प्रशस्त शास्त्र का श्रवण श्रेष्ठ पुरुषों को ही मिलता है। चिरकाल तक तय किया हो, शुद्धचारित्र का पालन किया हो, बहुश्रुतज्ञान का भी अभ्यास किया हो, परन्तु संवेग रस प्रगट न हुआ हो तो वह सब निष्फल है । दीर्घकाल तक संयम पालन तप आदि पालन का सार ही संवेग है। पूरे दिन में यदि क्षण भर भी संवेग रस प्रगट नहीं हुआ तो इस बाह्य काया की कष्ट रूप क्रिया का क्या लाभ ? जिसको पक्ष में, महीने में, छह महीने में अथवा वर्ष के अंत में संवेग रस प्रगट नहीं हुआ उसे अभव्य अथवा दुर्भव्य जीव जानना । अतः संवेग के बिना दीर्घ आयुष्य, अथवा सुख संपत्ति, सारा ज्ञान ध्यान संसार वर्धक है । और भी कहा है कि 'कर्म व्याधि से पीडित भव्य जीवों के उस व्याधि को दूर करने का एकमात्र उपाय संवेग है। इसलिए श्री जिन वचन के अनुसार संवेग की वृद्धि के लिए आराधना रूपी महारसायन इस ग्रन्थ को कहूँगा, जिससे मैं स्वयं और सारे भव्यात्मा भाव आरोग्यता प्राप्त करके अनुक्रम से अजरामर मोक्षपद प्राप्त करेंगे। संवेगरंगशाला नामक इस आराधना शास्त्र में नाम के अनुसार ही सभी गुण विद्यमान हैं। इसके मुख्य चार विभाग हैं। (१) परिक्रर्म विधि द्वारा, (२) परगण संक्रमण द्वार (३) ममत्व विमोचन द्वार और (४) समाधि लाभ द्वार । इसमें भी भेद, प्रभेद, अन्तर भेद आदि अनेक भेद में विस्तृत पूर्वक वर्णन किया है। वह विषयानुक्रमणिका देखने से स्पष्ट हो जायेगा। इह महाग्रन्थ का विषय इतना महान विस्तृत है कि उसको समझाने के लिये कई और महान् ग्रन्थ बन सकते हैं । वह तो स्वयं ही पढ़ने से अनुभव हो सकता है। __इस महाग्रन्थ के कर्ता परमपूज्य महा उपकारी आचार्य भगवंत श्री जिनचन्द्र सूरीश्वर जी महाराजा हैं। ये नवांगी टीकाकार परम गीतार्थ आचार्य देव श्री अभयदेव सूरीश्वर जी मह के बड़े गुरु भाई थे। उनके अति आग्रह से इस ग्रन्थ की रचना की है। इस ग्रन्थ के विषय में उल्लेख श्री देवाचार्य रचित 'कथा रत्न कोष' की प्रशस्ति में इस तरह मिलता है। आचार्य श्री जिनचन्द्र सूरीश्वर जी वयरी वज्र शाखा में हुए है जो आचार्य श्री बुद्धि सागर सूरीश्वर के शिष्य थे, उन्होंने 'संवेग रंगशाशाला' ग्रन्थ की रचना विक्रम सम्बत् ११३६ में की थी। वि० स० ११५० में विनय तथा नीति से श्रेष्ठ सभी गुणों के भंडार श्री जिनदत्त

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