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रामविलासकाव्यम्-लेखक-विश्वनाथ भट्ट चित्तपावन रानडे, संपादक-श्री गोपाल नारायण बहुरा, महाराजा सवाई मानसिंह (द्वितीय) स्मारक ग्रन्थमाला, नं ३, प्रकाशक-महाराजा सवाईमानसिंह (द्वितीय) म्युजियम, सीटीपेलेस, जपुर, ई. १९७८, मूल्य बारह रुपये ।
इसका संपादन सुप्रसिद्ध विद्वान श्री गोपाल नारायण बहराने बड़े परिश्रम से किया है। संपादन की पद्धति का नैपुण्य उनमें है अत एव प्रस्तुत संपादन एक उत्तम संपादन का नमूना हमारे समक्ष उपस्थित करता है। श्री बहुराजो ने अंत में सकल पद्योंका अकारादि - अनुक्रम दिया है और प्रारंभ में जो प्रास्ताविक लिखा है उसमें इस काव्यका सार दिया है। काव्य कर्ता के अन्य ग्रन्थों का परिचय दिया है। विशेषतः वाजपेय यज्ञ के विषय में विवरण इस लिए दिया है कि काव्य के नायक जयपुर के राजा सवाई जयसिंह ने वाजपेय यज्ञ का उद्धार किया था और उसका अनुष्ठान करवाया था । इस तरह इस इतिहासनिष्ठ काव्य का संपादन करके इतिहास-रसिकों के लिए तथा विशेषतः यज्ञरसिकों के लिए समुचित सामग्री उपस्थित की है।
-दलसुख मालवणिया समयसुन्दर, डॉ. रमणलाल ची. शाह, कुमकुम प्रकाशन, गुजराती ग्रन्थकार श्रेणीः १६, अमदावाद, मूल्य साडा सात रुपिया, १९७९.
डॉ. शाहे 'समयसुंदर' नामे कृतिमा प्रारंभमां समयसुदरतुं जीवन आप्यु छे. अने पछी तेमनी बधीज कृतिओनो तेना महस्व प्रमाणे परिचय आप्यो छे. समयसुन्दर ना जीवन अने कवन विषे अत्यार सुधीमा घणु लखायु . स्यारे ते वधाना साररूप स्वतन्त्रपणे लखायेल आ ग्रन्थ संशोधकोने उपयोगी थशे ज.
-दलसुख मालवणिया भारतीय भाषाओं के विकास और साहित्य की समृद्धि में श्रमणों का महत्त्वपूर्ण योगदान, ले. डॉ. के. आर. चन्द्र, प्रका० प्राकृत जैन विद्या विकास फंड, अहमदाबाद-१५, १९७९, पत्र-२८, मूल्यः- डाक खर्चे ।
यह लघु पुस्तिका, 'भारतीय संस्कृति के विकास में श्रमण संस्कृति का योगदान' नामक संगोष्ठी में, १९७७ में नागपुर विश्वविद्यालय में पढे गये लेख का किञ्चित परिवर्तित रूप है।
इस छोटी सी पुस्तिका में लेखक महोदय ने अति संक्षेत में प्राचीन भारत में विद्यमान सांस्कृतिक परम्पराओं और भाषाओं का परिचय देते हुए इन में श्रमण परंपरा और उनके साहित्य का परिचय दिया है । श्रमणों का साहित्य मुख्य रूपेण तत्तत्कालीन प्राकृतों में रचा गया है । लेखक ने कौशल्यपूर्वक कालक्रम से मागधी, पालि, अर्धमागधी, शौरसेनी, महाराष्ट्री, अपभ्रंश और अवहह आदि मध्यकालीन भारतीय आर्य भाषाओं में रचे गये श्रमण साहित्य का विषय-निदर्शन कराते हर उन उन विषयों के उपलब्ध महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों का निर्देश किया है । इसके बाद संस्कृत में रचे गये साहित्य का सामान्य परिचय दे कर बाद में आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं के उद्गम काल से १८ को शती त के श्रमण साहित्य का विहंगावलोकन किया है । अंत में दक्षिण की द्राविड कुल की भाषाओं में उपलब्ध श्रमण-साहित्य का भी सामान्य परिचय दिया है ।
इस तरह भारतीय संस्कृति के विकास में और भारतीय साहित्य की समृद्धि में श्रमणों का प्रदान महत्त्वपूर्ण और विशिष्ट रहा है यह दिखाने का लेखक का प्रयत्न रहा है । श्रमणसाहित्य के जिज्ञासु अध्येताओं के लिए मार्गदर्शिका के रूप में यह पुस्तिका उपयोगी सिद्ध होगी।
-र. म. शाह.
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