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कालिदास की कृतियों में तन्त्रीवाद्य एवं वादनकला
सुषमा कुलश्रेष्ठ महाकवि कालिदास के ग्रन्थो में उनका विविध शास्त्र-विषयक पांण्डित्य परिलक्षित होता है । व्याकरण, दर्शन, आयुर्वेद, वनस्पतिशास्त्र तथा सङ्गीत आदि ललित कलाओं में कवि परम निष्णात थे । गीतं वाद्य च नृत्यञ्च त्रयं सङ्गीतमुच्यते । सङ्गीत के अन्तर्गत गायन, वादन तथा नृत्य तीनों को परिगणित किया जाता है । विभिन्न वाद्यों द्वारा उद्भूत स्वर तथा लय का आनन्द वाद्य सङ्गीत अथवा वादन द्वारा प्राप्त होता है । साङ्गीतिक वाद्य चार प्रकार के माने गए हैं । आचार्य भरतमुनि के अनुसार -
ततं तन्त्रीकृतं ज्ञेयमवनद्ध तु पौष्करम् । घनं तालस्तु विज्ञेयः सुषिरो वंश उच्यते ॥ ना० शा० ॥ २८॥२
कालिदास को इन चारों प्रकार के वाद्यों का पूर्ण ज्ञान था। प्रस्तुत लेख में कालिदासकी. कृतियो में उल्लिखित तन्त्रीवाद्यों अथवा ततवाद्यों के विवेचन एवं वादनकलाविषयक कविकौशल के मूल्यांकन का प्रयास किया गया है ।
उंगलियों से छेड़कर (यथा स्वरमण्डल, तम्बूग आदि), कोण या त्रिकोण (मिजराब) की सहायता से (यथा सितार, वीणा, सरोद आदि), गज से रगड़कर (यथा सारङ्गी, इसराज, दिलरुचा अदि) तथा डण्डी से प्रहार कर (शन्तूर) वजाये जाने बाले वाद्य तत वाद्य कहलाते हैं । तत अथवा तन्त्री वाद्यों में वीणा, वल्लकी, परिवादिनी तथा तन्त्री का कवि ने अनेकशः प्रयोग किया है। शास्त्रों में अनेक प्रकार की वीणाओं के उल्लेख उपलब्ध होते हैं। 'उत्सले वा मलिनवसने' - मेघदूत के इस पद्य में कवि ने वीणा तथा तन्त्री शब्दों का प्रयोग किया है। शास्त्रों में तीन प्रकार की तन्त्रीवीणाओं - एकतन्त्री, द्वितन्त्री तथा त्रितन्त्री का उल्लेख मिलता है । भगवान् ब्रह्मा नाट्यवेद के आविष्कर्ता एवं भरतमुनि के शिक्षक थे । इनकी वीणा का नाम ब्राह्मी वीणा था । ब्राह्मी वीणा के अन्य नाम घोषा. घोषक, घोषवतो एवम् एकतन्त्री भी कहे गए हैं । एकतन्त्री का वर्णन सङ्गीतरत्नाकर में अच्छी तरह किया गया है । वीणा के दण्ड की लम्बाई तीन हस्त अर्थात ७२ अंगल (५४ इंच) होती थी। दण्ड की परिधि या घेरे का नाप एक वितस्ति या बित्ता (९ इंच) होता था। दण्ड का छिद्र पूरी लम्बाई में १.५ अंगुल न्यास का रहता था । एक सिरे से १७ अंगुल की दूरी पर अलाबु या कद्दू को बाँधना होता था । दण्ड अबनूस की लकड़ी से बनाया जाता था । कद्दू का व्यास ६० अंगुल (४५ इंच) होता था । दूसरे सिरे में कम रहता था। ककुभ के ऊपर धातु से बनाई हुई कुर्मपृष्ठ की भाँति पत्रिका . होती थी। कद् के उपर नागपाश सहित रस्सी बाँधी जाती थी । ताँत अर्थात् स्नायु को तन्त्री को नागपाश में बांधकर ककुभ के उपर की पत्रिका के ऊपर लाकर शङ्कु या र्टी से वांधा जाता था । तन्त्री और पत्रिका के बीच में नादसिद्धि के लिए वेणुनिर्मित 'जीवा' रखते थे । इम वीणा में सारिकाएं नहीं है । बायें हाथ के अंगूठा, कनिष्ठिका और मध्यमा पर वेणनिर्मित कनिका को धारण कर तर्जनी से आघात करके सारण किया जाता था । तन्त्री को ऊर्ध्वमुख करके तथा कद को अधोमुख करके, ककुभ को दाहिने पाँव पर रखकर, कदद को कंधे के ऊपर रहने की स्थिति में रखकर, जीवा से एक बित्ता की दरी पर उंगली से वादन किया जाता था। .
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