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आर. एल. रावल
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- आम वर्तमान जीवनना संदर्भ वगरना इतिहासना अभ्यासनो कंह अर्थ नथी. जीवन अखंड छे. ए नदीना अस्खलित प्रवाह जेवु छे. तेने कोइ पण मूल्य के विचारसरणीमां कायमी बांधीने तपासी न शकाय. ए रीते जोतां इतिहास ए चोक्कस माळखामां भूतकाळनी महितीनो संचय नथी. आजे इतिहासना मोटाभागना पाठ्यपुस्तको पण साचा जीवंत इतिहासनां स्वरूपने रज़ करतां नथी. आपणे आवा पाठ्यपुस्तको द्वारा इतिहासने जड अने बंधियार बनावी दीघो छे. ऐतिहासिक संशोधननो छेवटनो हेतु वर्तमान जीवनना संदर्भमां इतिहासनी प्रासंगिकता प्रकट करानो छे, जे संशोधन (research) पूरतो सीमित न रहेतां जीवनना सत्यो शोधवा प्रेरणा आपे. अगाउ उल्लेख करयामां आव्यो ते प्रमाणे आजनो आपणो युग इतिहासनी कटोकटीनो युग छे. स्वाभाविक रीतेज इतिहासनी चेतनाने प्रगटाववानी आपणी जवाबदारी विशेष छे, कारण के इतिहास ए स्थळ अने काळना संदर्भमां जीवननां अनेक स्वरूपनु चिंतन छे. तेथी इतिहासना अभ्यासनो अंतिम हेतु तो क्रांत-द्रष्टा-कवि थवानो छ जे समयना वहेणमांपण समयातीत सत्ता (Existence) नी झांखी करी शके. आ समयातीत सत्तानो शांखी करवा माटे जो आपणे इतिहासनो चेतना तथा दृष्टि केळवीए अने लोकाने ते दृष्टि आपवा प्रयास करीए तो ज इतिहासने साचा अर्थ मां लोकप्रिय बनावी शकाय.
श्रीकृष्णे गीताना ११ मां अध्यायमां पातानुं 'विश्वरूप' प्रगट करीने अर्जुनने कहयु:
पश्य मे पार्थ रूपाणि शतशोऽथ सहस्त्रशः । .. नानाविधानि दिव्यानि नानावर्णाकृतीनि च ॥ . -: (हे पार्थ! मारां अनेक प्रकारनां तथा अनेक वर्ण अने आकृतिवाळां सेंकडा अने हजारो दिव्य रूपा तु जो.) भने साये उमेयु के
। न तु मां शक्यसे द्रष्टुमनेनैव स्वचक्षुषा । - दिव्यं ददामि ते चक्षुः पश्य मे योगमैश्वरम् ॥
(परंतु पातानां आ (चर्म) चक्षुथी ज तुमने जोवा समर्थ नथी (माटे) हुँ तने दिव्यचक्षु आपुं छु; (तेनाथी) मारे। ईश्वरीय योग तु जो.) . ... आ विश्वरूपदर्शन ते इतिहासदर्शन. जे शब्द, समय अने स्थळनी मर्यादाओमां होबा
तां तेमनाथी पर छे, ते जावा माटेनी दृष्टि ए दिव्यदृष्टि, अने ते च सम्यक इतिहासदृष्टि, (1) Collingwood, R. G., The Idea of History (Oxford University Press, 1962) (2) Herber Lilly, Krisnamurti and the world Crisis (George Allen and Unwin
Ltd, London 1935) (3) Herbert Marcus., One Dimentional Man (Sphere Books Ltd., London, 1969) (4) Herbert Marcus., Eros and Civilization (Sphere Books Ltd., London 1970) (5) Kothari Rajani., Footsteps into the Future (Orient Longman, Bombay,
1974) (6) Medows Donell, H., The Limits to Crowth (A Potomac Associate Books,
New York, 1972)
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