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गांधर्वमा 'रक्ति पांचमी-छट्टो शताब्दी) नो पण पहेलां थई चूक्युं हशे, पण तेनां स्वरूप विशेनी उपलब्ध सौथी जूनी चर्चा 'विश्वावसुना कर्तृत्वथी प्राक् मध्यकाळे जाणीता पण माजे तो अप्राप्य अने अज्ञात ऐवा कोई संगीत-ग्रन्थमा हशे तेम 'मतंग ना प्रसिद्ध ग्रन्थ "बहद्देशी" (८मो सको पूर्वार्ध ?) मां तेना श्रुतिनी व्याख्या देता अवतरण परथी लागे छे. गांधर्वराद 'विश्वावमु' कहे छे के :
श्रवणेन्द्रियग्राह्यत्वाद् ध्वनिरेव श्रुतिभवेत् ॥ अर्थात् कान द्वारा सांभळी शकाय तेवो-श्रवणगोचर बने तेवो-'ध्वनि ते 'अति'. 'श्रुति' गायन-वादनमां प्रयुक्त थती होई, कोई पण ध्वनि 'अति' रूपे संभवी शके छ : पण गांधर्वमान्य श्रुतिनी उत्पत्ति-प्रत्यक्ष अनुभूति-नादथी ज थाय छे, अने तेनी विशेषता ए छे के तेनी उत्पत्तिनो हेतु "श्रवणप्रीति" छे. अतिलक्षणनी आ विशेष स्पष्टता उपलब्ध ग्रन्थोमा सौ प्रथम कदाच चौलत्यवंशो हरिपालदेवना "संगीत सुधाकर" मां प्राप्त थाय छे." यथा
नादादुत्पद्यते श्रुतिः । पवनाघट्टनात्तन्त्र्या यः समुत्पद्यते ध्वनिः ॥ श्रवणप्रीतिहेतुः स्याच्छतिरित्यभिधियते ।
सङ्गीतसुधाकर, गीताधिकार ५.१५-१६ 'नाद'थी श्रुति उत्पन्न थाय छे, 'पवन' थी (शरोरमां प्राणना उत्थानथी) अने 'तंत्री' (एटले के वीणा) पर 'आघटन' (आघात) द्वारा कर्णप्रियताने लक्षमा राखी उत्पन्न करवामां आवतो ध्वनि ते 'अति'. "
हवे ध्वनि अनंत प्रकारना होई, श्रुतिओ पण अनंत होय छे. मतंगे आ वात समजावतां पूर्वाचार्य 'कोहल' (चोथो शताब्दी !) नुं वचन मा प्रकारे टोक्युं छे : "केचिदासामानन्त्यमेव प्रतिपादयन्ति." आ मुद्दानी विशेष छणावट करता आचार्य मतंग आगळ उपर कहे छे के जेम आकाशना उदर विशे अनेकानेक ध्वनि ऊठे छे अने हिल्लोलित सागरमां जेम अनंत तरंगो ऊठे के तेम श्रुतिओनु पण विद्वदलोक अनंतत्व माने छे, ""संगीतराज"कार महाराणा 'कुंभकर्ण' (ई. स. १४५६) 'मतंग' नो आधार आपो कहे छे के मेध मळमां -थी पसार थता सूर्यकिरणनी सारंग विभाजनानी जेम नाना स्थाने अने उपाधिभेदथी प्रतिभासे ते 'श्रुति'." 'दत्तिलाचार्य' (त्रीजो सैको ?) श्रुतिना स्थान विशे स्पष्टता आ रीते करे छ :