Book Title: Sambodhi 1973 Vol 02
Author(s): Dalsukh Malvania, H C Bhayani
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 367
________________ १८ नगीन जी साह वेद का कर्ता ईश्वर है.७७ । नित्य ज्ञान आदि का धारक नित्यमुक्त, जगत्कर्ता एक ईश्वर वेद का कर्ता है सा स्पष्ट उल्लेख सर्व प्रथम जहां तक मैं समझता हूँ जयन्त की न्यायमंजरी में मिटता है। कणाद न तो इतना ही कहा है कि वेदवाक्यों की रचना बुद्धिपूर्वक है। गौनस आप्त वचनों को शब्दप्रमाण मानता है-आगम सानता है और उसका प्रामाण्य भी आयुर्वेद आदि शास्त्रो के प्रामाण्य की तरह ही निर्णित होता है गया वह कहता है। प्रशस्तपाद ने महेश्वर का बेदकर्ता के रूप में वर्णन नहीं किया है। वात्स्यायन स्पष्ट रूप से साक्षात्कृतधर्मा ऋपियों को ही वेद का द्रष्टा और प्रवक्ता मानता है55 । द्रष्टा और प्रवक्ता इन दो शब्दों का प्रयोग बहुवचन में हुआ है, यह ध्यान देने योग्य है। वात्स्यायन के मत में कोई एक नित्य ईश्वर वेद का कर्ता नहीं क्योंकि उन्होंने वैसे ईश्वर को माना ही नहीं है । उद्योतकर ने एक नित्य जगत्कर्ता ईश्वर की कल्पना को तो स्वीकृत किया है किन्तु ईश्वर का वेदकर्ता के रूप में स्पष्ट उल्लेख नहीं किया। और यह भी साक्षात्कृतधर्मा ऋपियों को ही वेद के कर्ता मानता हो ऐसा लाता है। इस प्रकार वेदों को पौरुपेय-पुरुषकृत-मानने का सिद्धान्न न्यायवैशेषिकों में पहले से ही अर्थात् कणाद के समय से ही प्रचलित होने पर भी वह पुरुप, जयन्त के समय तक, एक नित्य जगत्कर्ता ईश्वर नहीं किन्तु साक्षात्कृतधर्मा अनेक पुरुप है, अर्थात् ऋपिमुनि हैं। सर्व प्रथम जयन्त ही एक नित्य जगत्कर्ता ईश्वर को ही वेद का कर्ता मानता है। जयन्त ने ईश्वर में आनन्द को स्पष्ट रूप से सर्व प्रथम स्वीकार किया है। और उसके मन में यह आनन्द केवल दुःखाभावरूप नहीं किन्तु विध्यात्मक (positive) है ऐसा उनके कथन से फलित होता है। (७) श्रीधर और ईश्वर ईश्वर में करुणा है इसलिए वह जीवों के लिए सृष्टि उत्पन्न करता है। यदि ईश्वर में जीवों के प्रति करुणा है तो वह केवल सुखमयी सृष्टि को क्यों नहीं बनाता? इसके उत्तर में श्रीधर कहता है कि वह जीवों के धर्माधर्म की सहायता से सृष्टि उत्पन्न करता है, अतः वह केवल सुखमयी सृष्टि कैसे बना सकता है ? इससे उनकी करुणा में कोई बाधा नहीं आती, क्योंकि स्मृष्टिगत दुःख जीवों में वैराग्य उत्पन्न कर उनके मोक्ष का कारण बनता है । यदि सृष्टि की उत्पत्ति करने में ईश्वर को जीवों के धर्माधर्म का अनुसरण करना पड़ता हो तो उसका ईश्वरत्व कहां रहा? उसका स्वातन्त्र्य कहां रहा ! इसके उत्तर में श्रीधर कहता है कि ईश्वर जीवों को उनके कर्मानुसार फल देता है इससे उसके ईश्वरत्व में या स्वाधीनता में कोई बाधा नहीं आती, बल्कि उसका ईश्वरत्व ही सिद्ध होता है। सेठ उसके सेवकां की योग्यता को लन में रखकर उसके अनुरूप उन्हें फल देता है तो इमसे उसका श्रेष्ठत्व नष्ट नहीं होता। ईश्वर प्रत्येक जीव के समक्ष उसके कर्म के अनुरूप भोगसामग्री उपस्थित करता है। उसके कर्म के विपाककाल में उस कर्म का योग्य फल उत्पन्न करके जीव के सामने उसे उपस्थित करता है। ...

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