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पहले किसने किया ? स मंकत का जा प्रवर्तक है वही ईशार है। प्रलयकाल में विश्व के नाश के साथ ममी संकेतों का नाश हो जाना है और मुष्टि की उपान के साथ ईश्वर नये संकेतों को उत्पन्न करता है-रमक लिए यह पर्व मनपर आधार नहीं रखता।
(४) (व) ष्टि की उत्पनि के साथ वह न गमन बनाना ही नही किन्तु कलाओं को भी वहीं प्रारंभ करता है। पात्र बनाने की को, वाम न । कला, लिपिकला, लग्यनकला, इत्यादि कन्याओं को मुष्टि के आरम्भ में म न जीवों को सिखाना है। गुरु-शिष्य परम्परा डाग का हमार ममय नक की आनी हैं. यह परम्परा कहीं न कहीं से प्रारंभ हुई होगी। अर्थात ऋल्य का अग प्रवर्तक-आविष्कारक-आदि गुरु-कोई होना ही चाहिए। वही ईश्वर है ।
यहां कोई शंका करता है कि ईश्वर अनि हाल में किस प्रकार की का कौशल जीवों को बताकर काओं को मिला सकता है। इसका प्रभा दो ." उदयनाचार्य स्पष्ट शब्दों में कहते है कि ईश्वर भी कार्यवान पनच में र धारण करता है और विभूति बताना है।
उदयन का यह उत्तर सनकर कोई आपत्ति माना है कि न्याय कि हम को भांगायतन मानता है। यदि ई-वर में धर्म नहा है. नो भोगायन में हो सकता है। ईश्वर में धर्म मानना नो इष्ट नहीं है।
टीकाकार वर्धमान इस असंगनि को दूर करने का प्रगान करता है। वह कहना है कि ईश्वर का धर्म उसके शरीर का कारण नहीं किन्तु जीवों का धर्म उसके शरीर का कारण है ।
(५) प्रत्ययत:07-वेद में विषयवस्तु का यथार्थ निम्पण है। बेद में कहा हुआ सब सत्य है। वेद प्रमाण है। वेद का प्रामाण्य निपि व्यक्ति को चित करता है। रागादि दोपवाले व्यक्ति के वचन अप्रमागभून होते है-अयथार्थ होते हैं जबकि गग आदि दोपरहित व्यक्ति के वचन यथार्थ ही होने हैं। रागादि दोपरहिन पुरूप ही वस्तु को यथार्थ जान सकता है। और जैसा वह उस वस्तु को जानना है वैमा ही उसका निरूपण भी कर सकता है: राग आदि दोषरहित व्यक्त गर्व होता है। वेट ऐसे रागादि दोपरहित सर्वज्ञ व्यक्ति के वचन रूप होने से उनका प्रामाण्य है। इस प्रकार वेद का प्रामाण्य राग आदि दोपहित सर्वन्न व्यक्ति को अर्थात ईमाको सिद्ध करता है।
(६) श्रुत: 07-वेद के प्रामाण्य से निर्दोष ईश्वर को उपर मित किया है। किन्तु मीमांसक प्रा करते हैं कि वेद के प्रामाण्य से उसका कोई काहीही मा क्यों नहीं मानते हो ? न्याय वैशेपिक उत्तर देते हैं कि आयुर्वेद आदर हिम प्रकार पुरुपकृत है, उसी प्रकार वेद भी पुरुपकृत होने चाहिए। बेष्ट का वही ईश्वर है।