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नगीन जी. शाह
(d) नामकन्यन्यः कम सम्भवति । न तावदम्य बुद्धि विना कश्चिद्धमा लिभता
कर अपादागिनुम । आगलाच द्रष्टा बोधा सर्वज्ञाता ईश्वर इनि। श्यादिभिधा
सलिगनिम्पा च्यमीवर पत्यक्षानु नानागनविषयातीत कः शक्त उपपादयितुम् । मुश्वर आत्मा ही है, तत्त्वान्तर नहीं क्योंकि उसमें ऐसा कोई धर्म नहीं जो उसे नवान्नर मिद करे । उममें वृद्धि है और बुद्धि आत्मा का ही धर्म है। आगम में भी उसका यही धर्म बताया गया है। आगम उसका दृग्या, योद्वा और सर्वज्ञाता केम्प में बन करता है। इस तरह आगरने भी ऐसा कोई धर्म नहीं बताया जो इसे नन्यान्नर, सिद्ध करे। यदि वह आत्मलिंग धुद्धि आदि से रहिन हो तो वह निम्पाख्य बन जायगा, उसका विध्यात्मक वर्णन ही अशक्य बन जायगा, उस जाना ही नहीं जा सकताः यह प्रत्यक्ष, आगम या अनुमान से अगोचर ही रहेगा। इस प्रकार ईश्वर आत्मा ही होने से वह सगुण है।
हम जानते हैं कि सांग्य-योग के अनुसार जीवन्मुक्त विवेकी पुरुप सर्वज्ञ होता है। 10) स्वकृताया गमलोपन च प्रवर्त पानग्य यदुक्त प्रतिपंधजानप्रकर्मनिनिने शरीरसर्ग तत्सर्व
प्रगम्यते इति । निर्माणकार्यों को उत्पन्न करने के लिए प्रवृत्त होनेवाला अपने पूर्वकृत कर्म के परिणाम से ही उसमें प्रवृत्त होता है ऐसा यदि न माना जाय तो उसके निर्माण जगारी की उत्पत्ति में उसके पूर्वकृत कर्म निमित्त नहीं हैं ऐसा अर्थ होगा; और गमा म्याकार करने में तो अपने अपने सामान्य प्रकार के शरीर की उत्पत्ति में प्रत्येक जीव के अपने अपने कर्मो को निमित्त कारण न मानने में जो दोप आते हैं वे सब दाप यहां मी आवंग। ___ ऊपर के अर्थघटन के विषय में कई शंकाएं और उसका समाधान--(१) 'प्रत्यात्मवृतीन धर्माधर्मसञ्चयान्' का अर्थ ऊपर के अर्थघटन में 'आत्मसन्निकृष्ट धर्माधर्मसंचयों ऐसा किया है, अर्थात 'प्रति' का अर्थ यहां अभिमुख या सन्निकृष्ट गोसा लिया है। 'प्रति' का ऐसा अर्थ होता है ? हा, 'प्रत्यक्ष 'शब्दगत 'प्रति' का अथ 'मन्निकृष्ट' या 'अभिमुख' ऐसा किया जाता है । 'प्रत्यात्मवृत्तीन् ' का विग्रह इस प्रकार हो सकता है-आत्मानं प्रति प्रत्यात्मम, प्रत्यात्मं वृत्तिः येषां तान प्रत्यात्मवृत्तीन । इसका अर्थ होता है 'आत्मानं प्रति आभिमुख्येन समवायसम्बन्धेन येषां वृत्तिः ने, नान प्रत्यात्मवृत्तीन् ।' अर्थात्, ईश्वर अपनी आत्मा में समवायसम्बन्ध से रहे हुए संचित कर्या को विपाकोन्मुख करता है। अन्य आत्माओं में समवायसम्बन्ध से रहे हुए संचित कर्मों को वह विपाकोन्मुख नहीं करता है। टीकाकार 'पति' का अर्थ 'प्रत्येक' करते हैं। ऐसा अर्थ लेने पर 'ईश्वर' का पूर्वकृत कर्म (धर्म) प्रत्येक जीवों के संचित कर्मा को विपाकोन्मुख करता है-सा वाक्यार्थ होगा, जिसमें विरोध स्पष्ट है । 'प्रति' का 'प्रत्येक' अर्थ वात्स्यायन के समग्र विचार के जो अंश है, उसमें विसंवाद लाता है जब कि 'प्रति' का 'अभिभुख' या 'सन्निकृष्ट' अर्थ उसमें संवाद लाना है। इमी दृष्टि से ही 'प्रति' का टीकाकार सम्मत अर्थ यहाँ छोड दिया गया है।