Book Title: Sambodhi 1973 Vol 02
Author(s): Dalsukh Malvania, H C Bhayani
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 357
________________ नगीन जी. गाह करता है। अतः आत्मा सर्वज्ञ है और इस कारण से वह इन्द्रियों से भिन्न है ऐसा बाल्यायन ने एक स्थल पर कहा है 10 । यहाँ संदर्भ कर्म-फल का है अत एव कर्म-फल के नियत सम्बन्ध को जाननेवाला--दुःखमुक्ति (फल) और उसके उपायां (साधनाकर्म)को जाननेवाला-एसा 'सर्वज्ञ' शब्द का अर्थ होगा । 'सर्वज्ञ' शब्द के अर्थ का इससे अधिक विस्तार प्रस्तुत संदर्भ में जरूरी नहीं। इस अर्थ में जीवन्मुक्त सर्वज्ञ है ही। विशेष में न्याय का जीवन्मुक्त सर्व ज्ञेयां को जाननेवाले के अर्थ में 'सर्वज्ञ' होता हो तो भी वह अर्थ प्रस्तुत संदर्भ में से फलित नहीं होता। साधक का, अथवा सर्व भूतों का उपकारक तो राग आदि क्लेशों से मुक्त, कर्म-फल के नियत सम्बन्ध को जाननेवाला व्यक्ति है। दृसर। बात यह भी है कि कर्म-फल के सिद्धांत के साथ सर्व द्रव्यों कोमर्व अवस्थाआ के साथ-जाननेवाले 'सर्वज्ञ' व्यक्ति की मान्यता का मेल नहीं खाता । कर्म सिद्धांत और सा सर्वज्ञ एक दूसरे के विरोधि है । अतएव इस संदर्भ में तो किस कर्म का कसा फल होता है वह जाननेवाला ही सर्वज्ञ है। वास्तव में योग की साधना का और योग की निर्माणकाय की प्रक्रिया का वात्स्यायनने स्वीकार किया है तो जीवनमुक्तकी योगलान्य सर्वज्ञता का भी वे स्वीकार करते हों ऐसा विशेप संभव है। इस तरह वात्स्यायन के मत में मोक्षमार्ग का उपदेशक, सर्वज्ञ, विवेकी, वलेशमुक्त, जीवन्मुक्त पुरुप ही ईश्वर है ऐसा स्पष्टरूप से फलित होता है। (४) प्रशस्तपाद और ईश्वर नृष्टि और प्रलय की कल्पना और ईश्वर जगत का कर्ता है. ये दोनों सान्यता न्याय-वैशेपिक के उपलब्ध ग्रन्थों में सर्वप्रथम हमे' प्रशस्तपाद के पदार्थधर्मसंग्रह में मिलती हैं। वे ईश्वर के लिए 'महेश्वर' शब्द का प्रयोग करते हैं। जीव अपने कर्मों के फलों का भोग कर सके उसके लिए महेश्वर को सृष्टि करने की इच्छा होती है। उसके परिणाम स्वरूप आत्माओं के अदृष्ट अपने अपने कार्य करने के लिए उन्मुख बनते हैं। आत्मा एवं ऐसे अदृष्टों के संयोग से पवन परमाणुओं में कार्यारभक गति उत्पन्न होनी है। पवनपरमाणुओं में यह गति उत्पन्न होने पर उन परमाणुओं का कार्यारंभक संयोग होता है जिस के परिणाम स्वरूप द्वथणुकादिक्रम से पवनमहाभूत उत्पन्न होता है। इसी क्रम से बिना तेजमहाभूत के चार महाभूतों की उत्पत्ति होती है। इन चार महाभूतों की उत्पत्ति होने के बाद महेश्वर के संकल्पमात्र से पार्थिव परमाणु से संयुक्त तैजस परमाणुओं में से बडा अंडा उत्पन्न होता है । उस अंडे में से सर्वलोकपितामह ब्रह्मा को सकल भुवनों (चौदह भुवनां) के साथ उत्पन्न कर महेश्वर उसे प्रजा की स्मृष्टि करने का कार्य सौंपते हैं। ब्रह्मा ज्ञान, वैराग्य और ऐश्वर्य से युक्त है। वह जीवों के कर्मों के विपाक को जानकर कर्म के अनुरूप ज्ञान, भोग और आयुवाले प्रजापतियों, मनुआं, देवा भीपिओं, ब्रामगो, क्षात्रेयों, वैश्यों, शूद्री एवं छोटे बड़े प्राणियों का सर्जन करना है, और उन्हें अपने अपने कर्म के अनुरूप धर्म, ज्ञान, वैराग्य और ऐश्वर्य से

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